भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
महाराना प्रताप डैम के बस-स्टेशन पर बस रूकी। राजन बस से उतर कर देखने लगा। शाम को झुटपुट था। आठ बज रहे थे। डैम की मुण्डेर पर खड़े हो कर उसने दूर तक नज़र दौड़ाई। कितना कुछ बदल गया है। तब डैम की खुदाई शुरू हुई थी। डैम अब कितना बड़ा बनेगा, आम आदमी को इस का कोई अनुमान नहीं था। जहां अब कुछ बरस पहले मंद-मंद गति से दरिया बहता था, वहाँ अब मीलों लम्बी चौड़ी झील खड़ी थी। पानी इमबैंकमेंट के निचले छोर को छू कर बड़ी परवशात के साथ झील की गहराई में खो जाता था। झील के उस पार पहले ही की तरह घना जंगल अपने पूरे घनत्व के साथ खड़ा था। उसे याद आया। वहीं शेर सिंह बनवज़ीर रहता था। कभी-कभी वह शिकार करते-करते राजन के घर पहुँच जाता था। वह उसके दादा को जानता था। इस लिए उसका आना और उसके साथ बात करना उसे अच्छा लगता था। राजन सोच रहा था।
अंधेरा गहरा रहा था। अब उसे गांव के लिए चल देना चाहिए उसने सोचा। दाई तरफ झील के साथ-साथ एक पतली-सी पगडंडी थी, उसने बैग से टार्च निकाल ली। गांव वहां से आठ कोस की दूरी पर था। घर में केवल अम्मा थीं जिसे उसने सप्ताह पहले पोस्टकार्ड लिख दिया था कि अम्मा मैं आ रहा हूँ अमुक तारीख को।
इस पगडण्डी पर अब आवाजाही बहुत कम थी। और रात के समय तो ना के बराबर थी।
चारों तरफ ख़ामोशी थी। केवल झील के पानी की छलछलाहट सुन पड़ती थी। या कभी-कभी कोई खरगोश एक झाड़ी से निकल कर दूसरी झाड़ी में घुसता नजर आ जाता था। वह सोच रहा था कि इस बांध का नामकरण किस दृष्टि से किया गया होगा। महाराणा से तो दूर-दूर से इस जगह का लेना-देना नहीं। पर हां इस बांध से निकली एक बडी नहर राजस्थान तक जाती थी। पानी के घिराव और बंटाव की बात समझ में आने लगी। उसे याद है कि शुरू के दिनों में किसी को यकीन नहीं आता था कि यहां डैम बन सकेगा। पर बनकर करीब तीन सौ गांव इसकी भेंट चढ़ गए। कुछ गांव इसलिए बच गए की वे कदरे ऊंचाई पर स्थित थे। उसका गांव भी ऊंचाई पर था। अम्मा थीं जो पुश्तैनी घर छोडना नहीं चाहती थी। अब भी वह कभी उसे गांव छोड़ने के लिए कहता तो वह भावुक हो उठती। कहती तेरे बापू यहीं से गए। मैं भी यहां से ही जाऊंगी। इस तर्क के आगे किसी का बस नहीं चलता था।
उसे याद आया कि गांव के कितने ही युवा मैट्रिक पास करने के बाद शहरों में नौकरी करने लगे थे। जमीन जो बची रह गई थी उससे गुजारा होना मुश्किल था। वे बड़े दिनों की छुट्टियों में घर आते। लोग उन्हें बाबू कहते। आमतौर पर बाबू जब भी आता तो बड़ा-सा सूटकेस उसके साथ होता जिसमें अपने घर वालों के लिए कपडे-लत्ते, श्रृंगार की वस्तुएं, बच्चों के लिए रंग-बिरंगे खिलौने, मिठाई के डिबे, बूट पालिश की बिल्ली बैंड की खाली डिबियां भरी होती। खाली डिबियों की मांग बुजुर्गों की तरफ से रहती। वे इनमें तम्बाकू भर कर रखते। इन्हें जेब में रखना भी आसान होता।
ऐसे बाबू गांव में दो-चार ही थे। वह स्वयं भी उन में से एक था। सर्विस मिलते ही इन बाबुओं का हुलिया बदल जाता था। सूट-बूट, कलाई में घडी, जेब में फाऊटैन पैन, रंगदार कंघी और रेशमी रूमाल। बातचीत का लहजा भी अलग। उठने-बैठने का ढंग तक बदल जाता। सुबह शाम सैर सपाटा नित्य कर्म का आवश्यक अंग बन जाता।
अंधेरा बढ़ता जा रहा था। बाबुओं के बारे में सोचते-सोचते राजन को हंसी आ गई। वह भी तो कहीं ऐसा नहीं हो गया था। उसने टार्च अपने पर घुमाई। आश्वस्त हो गया कि वह ऐसा नहीं है। हां शहरी एक महक जरूर उसके तनबदन से भी आने लगी थी।
लोग बाग इन बाबुओं से अक्सर सवाल करते। बबुआ, कै तन्खाह पाते हो? चार सौ तो जरूर बर जरूर होगी। कोई इस सवाल का सीधा उत्तर नहीं देता। सभी मुस्करा कर टाल जाते। वे अपनी तरफ से कुछ कह कर उनका मोहभंग नहीं करना चाहते थे।
वह रास्ते पर चला जा रहा था। संयोग से उसके पास एक छोटा-सा, कंधे पर डालने वाला बैग ही था। रास्ता अभी तो बहुत लंबा था। घना अंधेरा था। टार्च जलाई तो रोशनी एक जंगली बिलाव पर पड़ी जो रोशनी की चकाचौंध से क्षणांश के लिए ठिठका और फिर भाग खड़ा हुआ। रास्ता अब थोड़ा जंगल की तरफ मुड़ने लगा था। जंगल में लक्कड़बगघे का डर था। पर उसके पास रोशनी का हथियार था। रास्ते में आदमी न आदमी की जात। उसने गुनगुनाना शुरू किया- यह रात भीगी भीगी, यह मस्त नजारा … बांध की बत्तियां आँखों से ओझल होने लगी थी। शेष सब जगह अंधेरा ही अंधेरा था। पर परवाह नहीं। इन्हीं अंधेरी गुहाओं में से गुजरते हुए वह बड़ा हो गया है।
रास्ता अभी कई कोस बालों था अभी तो बानू का खूह तक नहीं आया। वह घने अंधेरा जंगल में से गुजर रहा था। सियार हुआ-हूँ-हुआहू कर रहे थे। झींगुरों ने समवेत स्वर में अपना राग अलापना शुरू कर दिया था। कभी-कभार पेड से बड़ा-सा पत्ता गिरता तो वह ठिठक जाता। क्या होगा यदि लकड़बगघे से मुठभेड़ हो जाए। उसकी नजर बाईं तरफ गई। ऊंचे टीले पर रैंसर की गढ़ी काले बुर्ज-सी खड़ी थी। वहां से एक उल्लू की हू हू की आवाज आई। उसने मन ही मन अम्मा का ध्यान किया। और बैग से चाकू निकाल हाथ में ले लिया। अगर कोई भूत या चुडैल सामने आ गई तो वह चाकू को हवा में घुमाएगा। कहते हैं भूत-प्रेत चाकू से डरते हैं। वह क्या से क्या सोचे जा रहा है। अरे यह उसका जंगल है। पैर-लगा रास्ता है। वह चाहे तो आंखें बंद कर तय कर सकता है। डर काहे का। उसके अपने पैरों की आहट किसी भी खतरे को दूर भगाने के लिए काफी थी।
टार्च की नीम रोशनी में वह फूंक-फूंक कर कदम धर रहा था। धीरे-धीरे चलता वह पुरोहत बल्ले वाली बाऊली के निकट पहुंच गया। नीम अंधेरे में उसे कुछ आकृतियां नजर आई। कुछ मर्द आकृतियां जो आपस में कुछ फुसफुसा रही थीं। थोड़ा और आगे आने पर उसने देखा कि एक स्त्री बदन पर सफेद चादर लपेटे बाऊली में नहा रही है और पुरुष उसकी तरफ पीठ किए इंतजार कर रहे हैं कि स्त्री का स्नान कब खत्म हो और कब वे वहां से कूच करें। बाऊली की सीढ़ी पर मिट्टी का एक बड़ा-सा दीपक जल रहा था। अब उसे थोड़ा डर लगने लगा। पर हिम्मत हारने से काम नहीं चलेगा, उसने अपने को समझाया। एक क्षण को उसे यह भी लगा कि स्त्री शायद कोई चुडैल है। ऐसे भुतहे समय में तो चुडैलें ही स्नान करती हैं। स्त्री अब एक पत्थर पर खड़ी थी। उसने उसके पैरों की तरफ ध्यान से देखा। पैर तो पीछे की तरफ मुड़े नहीं है। इसका मतलब वह चुडैल नहीं है। वह चुपके से उनके पास से निकल गया। टॉर्च की रोशनी में उसने देखा कि रात के साढ़े नौ बजे हैं उसकी हाथ घड़ी में। गांव में तो इस समय आधी रात होती है। और यही समय होता है जब भूत बाहर खुले में विचरने लगते हैं। चलते चलते आखिर बानू का खूह आ गया। अंधेरा और घना हो गया था। उसने सोचा कि थोड़ा रूक कर वहां विश्राम किया जाये। वह बैठा ही था कि पास के पेड से एक पंछी उड कर दूसरे पेड़ पर जा बैठा। अब उसे घबराहट होने लगी। रात के इन पंछियों से वह वाकिफ तो था। पर इस समय बात दूसरी थी। तब बरसों पहले रात समय आंगन में लेटे आसमान में उड़ते इन पक्षियों को गिनते-गिनते नींद आ जाती थी। कहां जाते होगे ये पक्षी।
रास्ता घूम-घामकर फिर झील की तरफ मुड़ गया था। और यहाँ से चढाई शुरू होने वाली थी। उसे याद है कि थोड़ा ऊपर जा कर समतल आएगा। और थोड़ी दूरी पर आमों का घना झुरमट आएगा। पर तब तक तो चढ़ाई नजर पड़ेगी। वह धीरे-धीरे चढाई चढ़ने लगा। उसने झील की तरफ देखते हुए अनुमान लगाया कि ठीक उस पार समानांतर में एक बाबा की कुटिया है। महीने में एक बार यहां भंडारा लगता है। आसपास कितने ही गांवों के लोग इसमें शामिल होते थे। एक ही बार में सौ दो सौ श्रद्धालुओं को पैंठ में बिठा कर खाना खिलाने की सुविधा थी। रसोइया कान में जनेऊ लपेटे और गले में लाल उपरना लटकाए खारी में से गर्मागर्म भात हर श्रद्धालू के सामने रखी पत्तल में ढेरी-ढेरी परोसता था और उसके पीछे-पीछे उसका सहायक बाल्टी में दाल लिए कल्छी-कल्छी परोसता जाता था। खाना खा चुकने के बाद सब लोग संगत में बैठ कर बाबा का प्रवचन सुनते थे। बाबा मौन रहकर पहले तो भक्तों की प्रार्थना सुनते थे और फिर प्रवचन करते थे। प्रवचन की समाप्ति पर लौंग इलायची का प्रसाद बांटते थे। बाबा की वेशभूषा आम साधुओं जैसी ही होती थी। वे छह महीने गुफा में रहते थे और छह महीने बाहर आ कर प्रवचन करते थे।
बड़ी मान्यता थी बाबा की। कुछ किंवदंतियां भी जुड़ गई थीं उनके साथ। गुफा में छह महीने रहने के दौरान वह कई बार समाधि अवस्था में मल्लाहों के जाल में फंसे मिलते थे। मल्लाह समझते कि जाल भारी हो रहा है। जरूर कोई भारी मछली फंसी होगी, पर निकलते थे बाबा। पर बाबा ने अपने मुंह से कभी अपने बारे में बखान नहीं किया। ऐसी अनेक कहानियां बाबा से संबंधित गांव में प्रचलित थीं। खूह की मुंडेर पर बैठे-बैठे कुछ ही क्षणों में एक गुजरा हुआ ज़माना जी लिया उसने। वैसे तो गर्मियों का मौसम था पर खूह पर बैठे-बैठे उसे ठण्ड महसूस होने लगी थी। उठ कर वह फिर चलने लगा। गांव पहुंचने में अभी समय लगेगा। रात को वैसे भी रास्ता लम्बा लगने लगता है। अम्मा राह देख रही होगी। डाकिया सप्ताह में एक बार ही आता है। कल शनिवार था। शायद उसका कार्ड कल अम्मा को मिल गया होगा। अम्मा ने लाल चावल के साथ खानदानी दाल पकाई होगी। आम और पुदीने की चटनी भी बनाई होगी। थाली और कटोरी तैयार रखी होगी। झझरी में ठण्डा पानी भी रखा होगा। चलते-चलते उसे ख्याल आया कि यहाँ एक झरना होता था। यहाँ तक तो वे खेलने आ जाते थे। पास में एक मैदान होता था। वे गुल्ली-डंडा-खेलते थे। और शाम को पहले ही घर लौट जाते थे। उसे अपने उन दिनों के साथियों की याद आने लगी। चंदो उसका सब से घनिष्ठ मित्र था। पढ़ने लिखने में भी, वह उस से कहीं होशियार था। गणित के सवाल वह चुकटियों में हल कर लेता था। दसवीं पास करने के बाद उसने जे.बी.टी की थी और उसके बाद वह किसी स्कूल में अध्यापकी करने लग गया था। मालूम नहीं वह आजकल कहां होगा।

पास में ही उसे करौंदों की झाड़ियां नजर आईं। जानी-पहचानी झाड़ियाँ। स्कूल से लौटते हुए वह इन पर टूट पड़ते थे। उसका मन हुआ थोड़े से करौंदे तोड़ कर खाए, पर तभी उसे अम्मा की बात याद आई। अम्मा कहती थी रात के समय हरी पत्ती, हरी टहनी और फल-फूल नहीं तोड़ने चाहिए। पौधों में भी जान होती है। रात को इन्हें भी आराम की ज़रूरत होती है। करौंदे तोड़ कर खाने का ख्याल उसने छोड़ दिया। वह आगे बढ़ गया। उसका मन अब एक अजीब-सी पुलक से भर गया था। सब से मिलना होगा। अम्मा अपने पुराने संगी-साथियों, और विशेष कर फंगनी ताई से। वह कहा करती थी तुम थानेदार बनोगे तो हमारे घर तक सड़क बनवा देना। इस बार शायद वह उसे यह बता पाए कि नई सरकार के आने से शायद उसका सपना पूरा हो जाए। और साथ यह भी समझा देगा कि कोई भी थानेदार कुछ भले ही कर सकता हो पर सड़क नहीं बनवा सकता।
थोड़ा-सा पानी उबूर करना था उसे। इसलिए उसने अपनी पैंट को घुटनों तक खींच लिया। उसे याद आया कि पास के चश्मे पर वे कैसे पानी पर टूटते थे। चौपायों की तरह साष्टांग लेटकर गटगट पानी पीते थे। उसे यह बात याद कर हंसी आई कि चमन जब पानी पीता था तो उसका टेंट्आ घडी के पेंडुलम की भांति ऊपर नीचे होता रहता था।
अब रास्ता बीहड़ था घने आमों का झुरमट नज़दीक आ गया था। यहां खासा अंधेरा था। तभी झुटपुटे से उसे एक आदमी आता हुआ नज़र आया। जान में जान आई। सफ़र में एक से दो भले। अभी उसका चेहरा नहीं दिखाई दे रहा था। पर जब उसने डिक्टू कह कर पुकारा तो वह हैरान रह गया। डिक्टू उसका बचपन का नाम था। बचपन के नाम से कौन उसे पुकार सकता है इस बीहड़ बियाबान जंगल में।
डिक्टू भैया, कहां से आ रहे हो इतनी रात गए?
चांद निकल आया था पर अभी भी झुटपुटा था। आवाज से वह पहचान गया अरे यह तो धोनू मिरासी है उसका बचपन का मित्र, धोनू भाई, मैं तो मैं पर तुम बताओ कि ‘तुम इस समय कहां से आ रहे हो?’
तुम्हें नहीं मालूम कि आज खटियार गांव में ख्वाजा पीर का उर्सा है वहीं से आ रहा हूँ। सो देर रात बिरात क्या। चलो घर ही चला जाए। सो देर रात गए भी चल पड़ा। अच्छा ही हुआ तुम मिल गए। कहो कैसे हो?
डिक्टू ने अपने नगर-आवास की बातें बताई।
बातों ही बातों में उसने पूछा- ‘धोनू भाई, मुराद और अहमद अली हुआ करते थे। कुछ अता-पता है उनका?’
वो तो गांव छोड़ तभी पाकिस्तान चले गए थे। कहते हैं केलयांवाला में ऊन का व्यापार करते हैं।
‘अच्छा, और तुम भी तो जाने वाले थे न?’
‘हां लेकिन उस रात जब मैं दरिया पर पहुंचा तो बेड़ा छूट चुका था। मेरी अम्मी, हमशीरा और अब्बा जान चले गए। और मैं यहीं रह गया।’
‘अच्छा।’
‘यहीं गांव से बाहर तालाब के पास छोटी-सी झोंपड़ी डाल रहने लगा।’
‘शादी वादी हुई कि नहीं?’
नहीं। हमीदा जिस से मेरी शादी होने वाली थी अपने अम्मी-अब्बा के साथ पाकिस्तान चली गई।
‘कोई खत-पत्तर या संदेश?’
कुछ नहीं।
गुजर बसर कैसे चलता है?
‘बांसों की बेड़ियां डाडा सीबा से रै के पत्तन तक ले जाता हूँ।’
‘पर रास्ते में जल बांध पड़ता है न। उसे कैसे पार करते हो?’
‘पार कर लेता हूँ। मेरे लिए यह मुश्किल नहीं है। मल्लाह का फरजंद हूँ। कोई न कोई हीला बहाना हो जाता है।’
“मिरासीगिरी भी करते थे तुम। अब भी एक उंगली पर बीस फुट का लम्बा बांस टिका गिली-गिली बोलते हुए पर धमर नाचते हो?”
“नहीं डिक्टू। वो अब सब नहीं। बेड़े के चले जाने के बाद मैंने वो सब छोड़ दिया था।
“तुम्हारी अम्मा से मिले भी अरसा हो गया।”
बोलते-बोलते घोनू रूक गया। फिर बोला- “डिक्टू भाई, मुझे बीड़ी सुलगानी है। माचिस है तुम्हारे पास?”
“नहीं तो। तुम तो जानते हो मैं बीड़ी सिगरेट नहीं पीता।”
अरे हां। कितना भुल्लकड़ हूँ मैं। तुम तो हमेशा से सूफी थे। और मैं तब अब्बा जान की बीड़िया चुरा कर पीता था।”
दोनों हंस पड़े। हवा का एक झोंका उन्हें छूता हुआ निकल गया।
दोनों आमों के झुरमट के नीचे खड़े थे। घोनू बोला- देख डिक्टू, शक्कर खोरे को शक्कर मिल ही जाती है। वह देखो पास में अलाव जल रही है।
दरअसल वहां एक मुर्दा जल रहा था। वह उस आग में से एक सुलगती हुई लकड़ी उठा लाया।
डिक्टू सकते में था।
बीड़ी जलाकर घोनू इत्मिनान से बीड़ी पी रहा था। थोड़ी देर बैठने के बाद वे दोनों साथ-साथ चलने लगे। डिक्टू ने पूछा- ‘तुम्हें डर नहीं लगा?’
“डर काहे का। आग तो आग है।”
हां सो तो है। पर यह आग
“क्या फर्क पड़ता है”
वे दोनों कुछ देर चुपचाप चलते रहे। चांद आमों के झुरमट में छिपा नजर आ रहा था। पर यह रोशनी काफी नहीं थी।
“घोनू भाई, यहां इस जगह कब्रिस्तान हुआ करता था।”
“अब कुछ नहीं है यहां। लोगों ने यहां काश्त करनी शुरू कर दी है। पर जानता हूँ उस टीले के नीचे मेरे चाचाजान की कब्र थी। पूरे चांद की रात को मैं हमेशा यहां आता हूँ।”
“अच्छा।” डिक्टू बोला।
घोनू किसी गहरी सोच में डूबा बीड़ी का गहरा कश खींच रहा था। बोला- ‘मरने जीने में कोई फर्क नहीं।’
“क्यों, फर्क क्यों नहीं?”
“छोड़ो ये बातें। उसने मेरे सवाल को खारिज कर दिया।
दोनों अंतरंग बातें करते गांव के निकट पहुंच गए थे।
“बिरजू की दुकान थी यहाँ। डिक्टू ने पूछा।
“वो तो कब का फौत हो चुका। बदनसीब। उम्र भर बानो के गम में गिरामोफोन पर बालू का तवा बजाता रहा।
“ऐसा। पर कितना नेक इन्सान था वह। हम स्कूल से लौट कर यहीं विश्राम करते थे। वह हमेशा हमारे लिए ठण्डा पानी बाल्टी में भरे रखता था। हम उस से आना दो आना के ताशें खरीद लेते थे।
याद है। “डिक्टू सब याद है। घोनू जैसे गहरी सोच में था।
वह जेब में कुछ तलाशने लगा। डिक्टू उसकी तरफ उत्सुकता से देखता रहा। उसने कुछ कौड़ियां जेब से निकाली।
खेलोगे?” उसने पूछा।
अरे इतनी रात गए कोई कौड़ियां खेलता है?”
खेल का कोई समय नहीं होता।
क्या मालूम हम फिर कभी मिल पाएं कि नहीं। ‘क्यूं ऐसा क्यूं कह रहे हो?’
उसने रास्ते से हटकर एक खुले स्थान पर कौड़ियां बिछा दी। बोल कौन सी फोडू?”
“यह वाली।” डिक्टू ने एक छोटी-सी कौड़ी की तरफ ईशारा किया। सिक्के वाली कौड़ी के साथ उसने नन्हीं-सी उस कौड़ी को फोड़ डाला। एक-एक कर घोनू सारी कौड़ियां जीत गया। हर जीत पर चार अंगुलियों से वह डिक्टू की कलाई पर चपत रसीद करता। यही नियम था खेल का। अचानक कौड़ियां जेब में रखते हुए बोला- ‘अब चलते हैं। चांद बिल्कुल सिर के ऊपर था।’
“अम्मा तुम्हारा इंतजार कर रही होगी। कई सालों के बाद आए तुम।”
“हां। डिक्टू बोला। उसकी कलाई में जलन होने लगी थी। उसे घोनू पर गुस्सा आने लगा। न मिला होता यह तो मैं घर जल्दी पहुंच जाता। और फिर ये कौड़ियां। कोई वक्त है खेलने का। और फिर बीड़ी पीने बैठ गया। उसने घोनू की तरफ देखा। वह अपने छोटे से थैले में से कुछ निकालने की फिराक में था।” अब क्या गुल खिलाएगा- डिक्टू सोचने लगा।
थैले में से उसने छोटी-सी हंडिया निकाल ज़मीन पर रख दी। बोला मस्त हलवाई से लाया हूँ। इसमें ताज़ा गुलाबजामुन है। सोचा था रास्ते में बातों में हम लोग ऐसे उलझे कि इस तरफ ख्याल ही नहीं गया। अब ख्याल आया।
उसने हंडिया का मुंह खोल दिया। ले इसमें से दो गुलाब जामुन निकाल डिक्टू तनिक झिझका। घोनू ने फिर ईशारा किया- ‘क्या सोच रहा है। खुदा कसम मैंने इसे छुआ तक नहीं है। हलवाई ने ही इन्हें हंडिया में डाला है। इस बात का ख्याल मत कर ले।
उसने एक बार फिर हांडी डिक्टू के सामने कर दी।
नहीं नहीं घोनू भाई, ऐसा क्यों सोचते हो। तुम ने इसे छुआ भी हो तो क्या। भाई-भाई के हाथ का नहीं खाएगा तो और कौन खाएगा।”
डिक्टू को पश्चाताप हो रहा था। ऐसी बात घोनू ने सोची ही क्यूं। उसने झटपट दो गुलाबजामुन उठा कर रूमाल में बांध लिए। गुलाब जामुन वाकई गर्म उसने देखा घोनू की आंखों में शुक्रगुजारी के आंसू थे और उसकी अपनी आंखों में निजता और स्नेह के।
रूमाल को वह अपने बैग में रखने में मशगूल हो गया। आंख उठाकर देखा तो घोनू अंधेरी गली की तरफ बढ़ता दिखाई दिया।
उसने आवाज़ लगानी चाही पर तब तक घोनू गली के अंधकार में गायब हो चुका था।
डिक्टू मुस्कराया- घोनू ऐसा ही था। अब भी वह वैसा ही है डरामेबाज। स्कूल से एक साथ आते थे तो भी वह इसी तरह नाटकीय ढंग से गायब हो जाया करता था।
वह सोचते-सोचते घर की तरफ बढ़ने लगा। अब वह घर के बिल्कुल निकट था। चांद ड्योढ़ी पर वैसे ही चमक रहा था। प्रविष्ट होने से पहले उसने फाटक की तरफ देखा। आम, अमरूद, अंजीर के पेड़ उसी तरह खड़े थे। एरण्ड के छतराए पेड़ पर पीले फलों के गुच्छे लटक रहे थे। कनेर के पेड़ पर सदा की तरह फूल खिले थे।
उसने ड्योढ़ी में प्रवेश किया। आंगन में लुकाठ का पेड़ जो उसने बरसों पहले लगाया था उसी तरह खड़ा था।
आहट सुन कर अम्मां दौड़ कर दरवाज़े पर प्रकट हुई। उसकी खुशी का ठिकाना न था।
“अम्मा, अभी तक जाग रही हो?”
वह उसे छाती से लगा कर कह रही थी- “तू आ गया अब सब ठीक है। कलेजे में ठण्ड पड़ गई। कब से तुम्हारी राह देख रही थी। देर कैसे हो गई? क्या बस लेट हो गई थी? और फिर घने-घनेरे रास्ते में अकेला चलता रहा। रास्ते बदल गए हैं। भूला तो नहीं न।”
“एक साथ इतने सारे प्रश्न। वह किस-किस का जवाब दे।”
“अकेला कहां था अम्मा।”
“तो कौन था तुम्हारे साथ?”
“घोनू भाई था न। पिछली गली तक साथ-साथ आए हम।”
“क्या कह रहा है तू?”
“हैरान क्यूं हो रही हो?”
“उसे मरे तो चार साल हो गए।”
डिक्टू के पैरों तले से ज़मीन खिसक गई। उसका सिर चकराने लगा वह धम से पास रखी चारपाई पर बैठ गया।
“तू घबरा मत बेटा। मैं इस मुए घोनू के बच्चे को सबक सिखाकर रहूंगी। रोटी पर दहकते अंगार रख के मनसूंगी। फिर कभी ख्वाब में भी आने की जुर्रत नहीं करेगा।”
अम्मा बड़बड़ाती हुई रसोई में चली गई।
डिक्टू ने कांपते हाथों से बैग खोला। टटोल कर देखा तो रूमाल गायब था।
उसने घड़ी देखी। बारह बज रहे थे।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
