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Hindi Kahaniyan: मैं उनकी बातों को सुनकर उठी और दर्द का बहाना करके फिर से लेट गई। और बोली आज मुझसे कुछ नहीं हो पाएगा।

शुचि को अपने माता-पिता से शिकायतें ही शिकायतें थीं। एक तो माता-पिता दोनों को आपस में
पिछले जन्म का बैर सा था कि व्यंग्य और तानों से ही एक दूसरे को संबोधित करते जो दिन में कभी न कभी गंभीर वाग्युद्ध का रूप ले लेता और घर में अशान्ति व्याप जाती। दूसरी शिकायत यह थी कि इस कभी गर्मागर्मी और कभी शीत युद्ध के सतत वातावरण को झेलने के लिए चार बच्चे भी दुनिया में लाए।

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भला आजकल के जमाने में चार बच्चे किसके होते हैं। पहली बेटी को लक्ष्मी मानकर, कमला नाम रखा, दूसरी को उससे तुक मिला कर अमला नाम दिया। फिर लोगों ने बताया नामों की तुक मिलाने से आगे भी बेटियां ही होंगी और सच में जब तीसरी बेटी गोद में आ गई तो उसका नाम उन्हे तुक तोड़ कर शुचिता रखना पड़ा। फिर जाकर आया छोटा भाई और शुचिता की तीसरी शिकायत उसी को लेकर थी। उसे लगता घर में छोटा भैया को तो राजा बेटा बना दिया सबने। शुचि भी भाई से बहुत प्यार करती थी पर किशोरावस्था में प्रवेश करते ही तीन साल छोटे भाई से लड़ाइयां शुरू हो गई थीं। उसके अंदर तब जग रही फेमिनिस्ट राजा को मिलती हर
सुविधा को नुक्ताचीनी की दृष्टि से देखती।

पिता रूढ़िवादी नजरिये के थे इसलिए तीनों लड़कियों को शहर के एकमात्र बालिका विद्यालय में पढ़ाया पर राजा का प्रवेश एक अंग्रेजी-परस्त पब्लिक स्कूल में कराया।
थोड़ा और बड़े होने पर शुचि का एडमिशन शहर के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज में हुआ। पिता ने थोड़ी आनाकानी के बाद इस सह-शिक्षा कॉलेज में पढ़ने की अनुमति दे दी। पर दोनों बड़ी बेटियों की शादियां उन्होंने
ग्रैजुएशन के बाद ही कर दीं। दोनों ने विरोध के सुर उठाए भी कि आजकल इतनी जल्दी शादी कौन लड़की करती है, पच्चीस से पहले तो कोई नहीं और अधिकतर तो तीस की उम्र छूकर कर रही हैं। बहनों को उम्मीद थी कि अगला घर जहां वह जाएंगी वहां एक दिन उनका राज-पाट स्थापित हो जाएगा और
वह मनचाही जिंदगी जी सकेंगी। यहां तो अपनी मरजी से न बाहर जाने की इजाजत थी, न अपनी मरजी की चीजें खरीदने की गुंजाइश क्योंकि बड़े परिवार और छोटी तनख्वाह के कारण पैसों का टोटा था और
इसी में छोटे भाई के महंगे स्कूल की महंगी मांगों को भी पूरा करना था। भाई के कंधों पर मां-बाप के भविष्य का बोझ था। इसलिए कमला-अमला बाईस और तेईस साल की उम्रों में अपनी ससुरालों को प्यारी हुई। एक ही मंडप से दोनों की शादी कर खर्च बचाने में पिता सफल हुए। लेकिन बीस साल की शुचि को दीदियों के
जाते ही घर भायं-भायं करता सा लगने लगा।

उसे अब पता लगा कि घर में जो भी शोभा, जो भी हंसी-खुशी थी, दोनों दीदियों से ही थी। अब उसे सूने घर से दहशत सी होती। वह कॉलेज से घर का रुख करना ही नहीं चाहती। घर में था ही क्या? दीदियों ने उसे घरदारी से मुक्त रखा था तभी तो वह हर कक्षा में अच्छा परिणाम लेकर अच्छे कॉलेज तक पहुंच पाई थी। मां को लगता कि दोनों बड़ी बेटियों के चले जाने से उनके दो सहारे चले गए। वह अकेली कामों में लगी थकने लगतीं। पर शुचि रसोई में थोड़ा बहुत ही हाथ-बंटा कर झल्लाना शुरू कर देती थी। ऊपर से अप्रैल के अंत में सेमेस्टर की अंतिम परीक्षाएं थीं। उसने मां से साफ-साफ कह दिया कि वह अपना एक-एक मिनट परीक्षा की तैयारी में लगाएगी ताकि अपना परीक्षा परिणाम सर्वश्रेष्ठ रहे।
दिन पर दिन फिर भी शुचि और हताश, और चिड़चिड़ी होती जा रही थी। और दिन तो कॉलेज में निकल जाते पर छुट्टियों के दिन शुचि पर भारी पड़ जाते। जब पिता घर से इधर-उधर होते तो वह मानो हवा से लड़ते
हुए अपनी किस्मत का मातम करते रहती, ‘यह भी कोई घर है। ढंग से बैठने की कोई जगह भी नहीं। वही पच्चीस साल पुराना, घिसा हुआ, फटा हुआ, दहेज-ब्रान्ड सोफा जिसे कवर डाल-डाल कर ढंकते हैं। यहां
अपनी दोस्तों को भी बुला नहीं सकते, सब हमारे लो-स्टन्ैडर्ड पर हंसेंगीं। मां तुम कितना संभाल-संभाल कर चीजों को रखती हो कि ये खराब भी नहीं होते कि इनकी जगह नए आ सकें। तुम्हें तो इसके लिए मेडल या अवॉर्ड मिलना चाहिए। और खुद से घिसघिस के कपड़े धोती हो, ये भारी पर्दे और चादरें! आज तक वॉशिंग मशीन नहीं खरीद सकीं। मां कहतीं, ‘पहले कमला-अमला कपड़े धो देती थीं, पता भी नहीं चलता था कभी। तुमसे ये नहीं होता कि जो कुछ है उसी की झाड़-पोंछ कर दो। वे दोनों करती थीं कि नहीं? ‘हां-हां, मैं ही तो मनहूस हूं। शुचि चिल्लाती, ‘इन रंग-उड़ी दीवारों को भी झाड़-पोंछ कर चमका सकती हूं क्या? मेरे कॉलेज में अमीर घरों के बच्चे पढ़ते हैं,

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उन्होंने ऐसे पुराने डिजाइन के रंग-उड़े घर जिंदगी में न देखे होंगे। मां ने उसकी चिल्ला-चिल्ली से घबराकर, जो पहले घर के काम के लिए कहना छोड़ा था अब उसकी बातों का प्रतिवाद करना भी धीरे-धीरे छोड़ दिया जिससे शुचि और भी मुंहफट होती जा रही थी। उसका छोटा भाई भी उससे कन्नी काटकर ही निकल लेता था।
इस वक्त यह ग्रैजुएशन के अंतिम वर्ष में थी। दीदियों की शादी मार्च में हुई थी। अब मई का महीना था। परीक्षाओं के बाद कॉलेज में गर्मी की छुट्टियां भी हो गई थीं।

वह गर्मी से बेहाल थी। उसके कॉलेज में एसी लगे हुए थे और धीरे-धीरे उसको एसी की आदत लग गई थी। शुचि ने बेहाल हो कर सोचा, उसके सारे मित्र एसी कमरों में बंद गॢमयां गुजार रहे होंगे और कुछ ने तो हिल-स्टेशन को प्रस्थान किया होगा। क्या करे और न करे, कि ऐसी गर्मी में तो पढ़ाई भी मुश्किल थी जबकि पढ़ाई की धुन सवार थी कि पढ़ाई तो वह एकमात्र राह थी जिसके माध्यम से इस असुविधाजनक वर्तमान से निकलकर एक ढंग का भविष्य पाने की आशा रखी जा सकती थी। अपनी एक सहेली से बातचीत में उसे फिर हॉस्टल में शिफ्ट हो जाने का परामर्श मिला तो गर्मी की छुट्टियां समाप्त होते ही उसने कॉलेज के लड़कियों के हॉस्टल में जाकर बात की। सीनियर बैच के कॉलेज छोड़ जाने के बाद सीटें उपलब्ध थीं और उसने रूम के लिए आवेदन दे दिया। रूम अलॉट होने के बाद उसने घर पर सूचना दी और जैसी उसे आशंका थी, पिता ने अनुमति नहीं दी। पर इस बार वह दबी नहीं, अपनी पढ़ाई में बाधा पड़ने के नाम पर इतना रोनाधोना मचाया कि पिता भी आशंकित हो गए। उनके ‘बेटी पढ़ाओ’ समर्थक मित्र ने पुन: उन्हें बात मान लेने का परामर्श दिया कि हॉस्टल में रहने पर कॉलेज की लायब्रेरी में वह अधिक समय बैठ पाएगी। और कहीं अच्छा रिजल्ट कर गई तो अच्छी प्लेसमेंट पाकर अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी। और फिर उसके लिए वर-संधान में दिक्कत नहीं होगी क्योंकि आजकल तो शादी के मार्केट में अच्छे लड़के नौकरीशुदा लड़कियों का हाथ ही थामना चाहते हैं। हॉस्टल में शुचि रईस घरों से आयी हुई, अंग्रेजी-परस्त आधुनिका छात्राओं के बीच बहुत घुल-मिल नहीं पाई।

उसने कॉलेज की लाईब्रेरी को अपनी शरणस्थली बना लिया, जहां वह देर शाम तक पढ़ती रहती क्योंकि हॉस्टल में रहने के कारण अब वह सात बजे शाम तक वहां बैठ पाती थी। लाईब्रेरी में ही अमन नामक छात्र ने उसके अंतर्मुखी स्वभाव और भोली सी दिखने वाली मुखाकृति को परख लिया, धीरे-धीरे बहाने से उससे परिचय बढ़ाया और सहानुभूति पूर्ण कोमल लहजे में सवाल पूछ-पूछ कर उसकी सारी
कहानी, सारी मन:स्थिति समझ ली। कभी-कभी वह कैन्टीन ले जाकर उसे आग्रह कर-कर के चाट, समोसे आदि खिलाता, कभी अपनी मम्मी से बनवा कर उसके पसंदीदा खाने ले आता और कहता, ‘पढ़ते पढ़ते तुम अपना ख्याल रखना भूल जाती हो, मैं तुम्हारा ख्याल नहीं रखूंगा तो कौन रखेगा? शुचि को सहसा किसी की नजरों में इतना महत्वपूर्ण हो जाना अच्छा लगा। वह उस पर उत्तरोत्तर अधिक, और अधिक निर्भर
करती गई और उसके सारे दिनानुदिन के छोटे-मोटे कामों, समस्याओं को सुलझाने में अमन की भूमिका बढ़ती गई। साल खत्म होते-होते शुचि का प्लेसमेंट एक कम्पनी में लगभग दस लाख सालाना के पैकेज पर हो गया तो अमन ने उसे तुरंत वह ऑफर स्वीकार करने की सलाह दी और यह भी जोर डाला कि इससे पहले कि शुचि के
पापा विघ्न डालें, वे उन्हें बताए बिना शादी कर लें।
शुचि को पता ही था कि पापा को सारी बातें बताना एक तूफान को न्यौता देना ही होता इसलिए अपनी बहनों के माध्यम से उन्हें खबर भिजवाकर, उसने आर्य-समाज मंदिर में विवाह कर लिया।

उसके बाद इसी शहर में रहते हुए भी कई लम्बे वर्षों तक शुचि परिवार से कटी रही। केवल कमला-अमला उससे फोन पर हाल- चाल लेने की कभी-कभी कोशिश करतीं, पर वह उखड़ी-उखड़ी-सी दो-चार बातें कर
फोन रख देती। इस बीच उसका एक शिशु भी दुनिया में आया। उसने कमला को खबर तो दी पर अपने घर आने से उसे मना कर दिया। दो-तीन वर्षों बाद जब एक बार कमला और अमला एक साथ मायके आई थीं, तो बहुत उदास थी उनकी मां ने उनसे कहा कि उनके पापा के एक मित्र को कहीं से खबर मिली है कि शुचिता के ससुराल वाले उससे अच्छा व्यवहार नहीं करते। मां ने आग्रह किया कि इस बार किसी तरह वे शुचिता से मिलकर असली बात पता करें। दोनों ने साठ-पैंसठ किलोमीटर दूर अवस्थित उसके कार्यालय जाकर उससे मिलने का फैसला किया। यद्यपि दोनों कार्यालय जाने में हिचकती थीं कि वहां व्यक्तिगत बातें कैसे
होंगी, परन्तु उसके घर जाने से भी सबने, खुद शुचि ने मना कर रखा था। जब वे दोनों किसी तरह पूछ-ताछ करते उसके केबिन में पहुंच गईं तो शुचि के चेहरे पर उन्हें देखकर इस बार कोई उद्धत भाव नहीं था। कई वर्षों में पहली बार उसने उनकी उपेक्षा करने की कोशिश नहीं की। अपने बॉस को सूचित कर उसने दो
घंटे की छुट्टी ली और बहनों के साथ मार्केट की ओर निकल गई। दोनों ने शुचि के लिए एक सूट खरीदा।
फिर पूछा, खुद कमाने के बाद भी वह इतने साधारण कपड़ों में क्यों थी? जबकि आजकल ऑफिसों में लड़कियों का व्यक्तित्व इतना स्मार्ट और अपटूडेट होता है। शुचि बिल्कुल बुझी-बुझी सी लग रही थी। उसकी
आंखें भर आईं तो बहनों का दिल दु:खी हो गया।

शुचि की अवसादग्रस्त दृष्टि किसी शून्य पर टिकी थी जब उसने धीरे-धीरे अपने साथ घटित सब कुछ एक के बाद एक वर्णन करना शुरू किया कि कैसे शादीशुदा जिंदगी का सुख उससे हफ्ते भर में छिन गया जब
पति और सभी ससुरालियों द्वारा उस पर कड़वे बोलों के प्रहार शुरू हो गए। सास और ननदें तो दिन भर घर का काम न जानने का ताना देतीं। उसकी ऊंची पढ़ाई का मजाक बनातीं। शादी होते ही अजनबी बन गया पति
भी बस पैर पर पैर रखे अपने कामों के लिए आदेश जारी करते रहता। कुछ दिनों तक वह समझी ही नहीं वह
किन शिकारियों के जाल में फंसी थी। पहले और मेहनत से काम कर के दिल जीतना चाहा जो व्यर्थ रहा, उनके ताने और बोल, निरन्तर और अपमानजनक होते गए। पर वह तो अपने पीछे सारे पुल तोड़ आई थी। जीवन
में असहाय, निराधार, मित्र-विहीन महसूस होने पर उसने प्रार्थना और पूजा पाठ की शरण ली थी। पर उसके कमरे से उसके ईष्टदेव की मूर्ति पति ने हटा दी और जोर की डांट लगाई क्योंकि यह सब उसकी नजरों में
ढकोसला था और समय की बर्बादी थी। अमला अचरज, दु:ख और क्रोध से भर गई। तीखे स्वर में बोली, ‘और जो तुम अपने घर में हर नापसंद चीज के खिलाफ जोर से बोलती थी, यहां इतने बड़े अपमान के
खिलाफ बोल नहीं पाई? ‘पहले-पहले कोशिश की थी, फिर वह मुझ पर हाथ उठाने लगा। मुझे पता नहीं चला
कहां और किसके पास जाऊं क्योंकि तब मेरा बच्चा आने वाला था और मुझे डर लगने
लगा कि अगर मैं घर छोड़ कर गई तो मेरा बच्चा भी मेरी तरह बिना परिवार के निराश्रय हो जाएगा। मुझे उन चुड़ैलों के पास उसे छोड़ने का दिल नहीं करता पर वही करना पड़ता है क्योंकि वे मुझे न
नौकरी छोड़ने देते हैं, न छुट्टी पर जाने देते हैं। उन्हें पैसों का नुकसान जो हो जाएगा। वे मेरे कहीं आने-जाने, मेरे फोन, सब पर नजर रखते हैं और तुम सबसे मिलने से बिल्कुल मना कर रखा है।दोनों स्तब्ध बैठी शुचि का
चेहरा देख रही थीं। फिर अमला ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘तुम्हें वह घर छोड़ना पड़ेगा। वे तुम्हें
एक इंसान की जिंदगी जीने नहीं देंगे। उन्होंने तुम्हें पालतू भी नहीं, बोझ ढोने वाला जानवर बना डाला है।
‘यह कैसे हो सकता है? मेरे बच्चे का क्या होगा? ‘बच्चे के लिए जीना होता है शुचि, जान दे देने पर बच्चा कैसे जिएगा? जो तुम्हारे हालात हैं, मुझे नहीं लगता वे तुम्हें कभी चैन से जीने देंगे। लौट आओ शुचि, मां तुम्हारा
इंतजार कर रही हैं। पापा भी हमारे सामने कुछ कहते नहीं पर मां बताती हैं कि वे तुम्हारे लिए बहुत दु:खी हैं।
शुचिता झुके सिर के साथ चुप-चाप बैठी रही, फिर अस्फुट स्वरों में बोली, ‘तुम नहीं जानती वे कितने वायलेंट लोग हैं, अगर हम वहां से निकले तो वे जाने क्या करेंगे।

‘जो भी वे करेंगे, हम सब उसका मिल कर प्रतिकार करेंगे। अमला ने कहा। गम्भीर बैठी कमला ने इतनी देर बाद मुंह खोला और धीरे-धीरे एक-एक शब्द मानो तोल कर कहा, ‘तुम नहीं जानती थी शुचि, यह सभ्य समाज एक जंगल से विकसित होकर यहां तक पहुंचा है पर अभी भी जंगल का बहुत अंश इसमें बाकी है। यहां जो अकेला असहाय दिखता है, अपने समूह से बिछड़ा, उसकी ताक में भेडिए और लकड़बग्घे रहते हैं। तुमने खुद ही अपने परिवार से खुद को अलग कर लिया था पर वह आत्मिक मजबूती नहीं दिखा पाई जो अकेले बचने और विकसित होने के लिए जरूरी होता है। बस एक चतुर शिकारी जानवर तुम्हारे जैसी भोली, अकेली, असहाय की ताक में बैठा हुआ तुम्हें फंसा ले गया और अब तुम उसके झुंड का आहार हो। अगर तुम्हें सभ्य समाज और परिवार की ताकत की रत्ती भर पहचान भी अब तक हुई हो तो लौट आओ वापस शुचि। हम सभी मिलकर तुम्हें उनसे छुड़ा लेंगे।’

शुचि ने आशा भरी नजर से उनकी ओर देखा और कहा, ‘पापा मान जाएंगे क्या? ‘वह तुम हम पर छोड़ो। पापा अपना दु:ख कहते नहीं पर हमने देखा है तुम्हारे जाते ही जैसे वे कितने बूढ़े हो गए, झुक गए। अब
हम में से किसी को वह कुछ रोकते-टोकते नहीं। उनको यह अंदेशा है, शायद उन्होंने किसी से कुछ सुना है और उन्होंने ही मां को बताया है कि तुम वहां सुरक्षित नहीं। इसीलिए मां ने हमें तुमसे मिलने को बारबार आग्रह किया। हमारा परिवार कितना भी सामान्य-साधारण हो शुचि, परस्पर प्रेम और मूल्यों के आवगुंठन से बना शरणस्थली है हमारे लिए। उसकी उपेक्षा कर खुद को जंगल के खतरे न डालो। चुपके से अपने बच्चे को, अपने जरूरी सामान-भर के साथ लेकर, मौका देखकर निकल आओ।
शुचि के मन के ताप को मानो प्रेम की एक शीतल सी छाया व्याप गई। बहुत दिनों बाद जी ठंडा हुआ और वह बहनों से लिपट गई। फिर वे सिर जोड़ कर आगे की योजना बनाने में लग गईं। वहां से गुजरते लोगों ने बस यही देखा मानो तीन सहेलियां बहुत दिनों बाद मिली हों। किसे पता था कि किसी ने वह सही निर्णय लेने का मन बना लिया था जिससे परिवार का प्रेम जीतने वाला था और जंगल के अहेरी की चालें मात खाने वाली थीं। अब प्रेम और सुबुद्धि के घेरे में वह सुरक्षित थी।

“उसके कहने का तात्पर्य शायद गोरा रंग और सुंदरता से था। मैंने सिगरेट पीते हुए कहा ऐसी बात नहीं है। सुंदरता का पैमाना सिर्फ गोरा रंग नहीं होता, गांव में भी सुन्दर लड़कियां होती हैं। उसने एक लम्बीसांस लेते हुए कहा ठीक है देखते हैं। घर आने के बाद मैं सोने चला गया पर आज बिस्तर पर नींद नहीं आ रही थी बार-बार उसका ख्याल आ रहा था।”