Hindi Katha: राजा बनने के बाद एकवीर कुशलपूर्वक राज्य का शासन चला रहा था। कुशल मंत्रियों के सहयोग से उसके राज्य में चारों ओर सुख-शांति व्याप्त थी। अपनी प्रजा से वह पिता की भाँति प्रेम करता था। वह स्वयं प्रजा के कष्टों को सुनता और उन्हें दूर करने का हरसम्भव प्रयास करता था। उसके राज्य में कोई भी व्यक्ति दुष्ट, पापी और व्यभिचारी नहीं था। सभी सुखमय जीवन व्यतीत करते थे।
एकवीर के निकट के एक राज्य में रैभ्य नाम का एक धार्मिक राजा शासन करता था। उसकी पत्नी का नाम रुक्मरेखा था। रानी रुक्मरेखा सुंदर, कार्यकुशल, पतिव्रता और सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से सम्पन्न थी। लेकिन उसके कोई संतान नहीं थी। संतान के अभाव से दुःखी होकर उसने राजा रैभ्य से पुत्रेष्टि यज्ञ करवाने की प्रार्थना की। रुक्मरेखा की प्रेरणा से राजा रैभ्य पुत्रेष्टि यज्ञ करवाने के लिए तैयार हो गया । उसने यज्ञ के विशेषज्ञ ब्राह्मणों को बुलवाया और विधिपूर्वक यज्ञ आरम्भ करवा दिया। यज्ञ पूर्ण होने पर यज्ञ – वेदी से एक सुंदर कन्या प्रकट हुई।
तब यज्ञ-पुरोहित ने राजा रैभ्य से कहा ” राजन ! इस कन्या को स्वीकार करें। यह सभी शुभ लक्षणों से युक्त है । अग्नि से इसकी उत्पत्ति हुई है । जगत् में यह कन्या एकावली नाम से प्रसिद्ध होगी । तुम्हें यह कन्या यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु ने प्रदान की है। “
राजा रैभ्य ने उस सुंदर कन्या को पत्नी रुक्मरेखा को सौंप दिया। पुत्री पाकर रानी प्रसन्न हो गई। इस उपलक्ष्य में राजा रैभ्य ने एक विशाल उत्सव का आयोजन किया। ब्राह्मणों को दान में धन और गायें दी गईं।
एकावली चन्द्रमा की कलाओं की भाँति बढ़ती चली गई। एक दिन एकावली अपनी प्रिय सखी यशोवती के साथ स्नान के लिए गंगा नदी के तट पर गई। उसी समय कालकेतु नामक एक भयंकर दैत्य अपने सेवकों के साथ वहाँ आ पहुँचा। एकावली का रूप-सौंदर्य देखकर कालकेतु उस पर मोहित हो गया । वह एकावली के पास पहुँचा और उससे प्रेम-निवेदन करते हुए बोला “सुंदरी ! मैं इस पृथ्वी का सबसे शक्तिशाली और पराक्रमी दैत्य हूँ। कोई भी मुझे युद्ध में पराजित नहीं कर सकता। किंतु मैं तुम्हारे रूप – बाण के सामने पराजित हो गया हूँ। तुम मुझसे विवाह करके अपने जीवन को धन्य करो। “
एकावली ने अपने सैनिकों को उसे बंदी बना लेने के लिए कहा। दोनों पक्षों में युद्ध आरम्भ हो गया। अंत में राजसैनिकों को युद्ध में पराजित करके कालकेतु एकावली और यशोवती को उठाकर ले गया। उसने एकावली और यशोवती को एक महल में कैद कर दिया।
यशोवती बचपन से ही भगवती जगदम्बा के बीजमंत्र का निरंतर जप करती थी। कालकेतु के बंदीगृह में यशोवती ने समाधि लगाकर भगवती का चिंतन आरम्भ कर दिया। एक महीने तक निरंतर उपासना करने से देवी भगवती उस पर प्रसन्न हो गईं और उसके स्वप्न में आकर बोलीं- ” पुत्री ! तुम अभी गंगा के पावन तट पर चली जाओ। वहाँ तुम्हारी भेंट एकवीर नामक राजा से होगी। वह मेरा अनन्य भक्त है। वह तुम्हारा रक्षक बनकर दुराचारी कालकेतु से तुम्हारी रक्षा करेगा। उसके साथ ही एकावली का विवाह होना निश्चित है । ‘
इस प्रकार यशोवती को स्वप्न देकर भगवती माता अन्तर्धान हो गईं। यशोवती ने स्वप्न की घटना राजकुमारी एकावली को सुनाई। माता भगवती के स्वप्न की बात सुनकर एकावली बड़ी प्रसन्न हुई और उसने यशोवती को उसी क्षण गंगा के तट पर जाने की आज्ञा दे दी।
दैत्य कालकेतु के सैनिकों को भगवती माता की माया से भ्रमित करके यशोवती महल से निकली और गंगा नदी के तट की ओर चल पड़ी। गंगा नदी के तट के चारों ओर भयानक पशुओं और विषैले साँपों से भरा हुआ वन था । यशोवती भगवती माता का स्मरण करती हुई गंगा के तट पर पहुँची और एकवीर की प्रतीक्षा करने लगी। किंतु रात्रि व्यतीत हो जाने के बाद भी एकवीर वहाँ नहीं आया। तब भय से व्याकुल होकर यशोवती रोने लगी।
प्रात:काल राजा एकवीर मंत्रिकुमारों के साथ गंगा के तट पर आया । वहाँ फलों और फूलों से लदे अनेक उद्यान सुशोभित थे । कोयल की सुरीली बोली और भौंरों की गुनगुनाहट से वहाँ का वातावरण गुंजायमान हो रहा था। वहाँ मुनियों के अनेक दिव्य आश्रम थे। वेद मंत्रों की ध्वनि कानों में रस घोल रही थी। हवन के धुएँ वायु सुंगधित हो रही थी।
तभी एकवीर की दृष्टि यशोवती पर पड़ी। उस निर्जन वन में वह शोक में डूबकर रो रही थी। जब एकवीर उसके निकट पहुँचा, तब उसने रोना बंद कर दिया और प्रसन्न होते हुए बोली – “हे देव ! क्या आप भगवती माता के अनन्य भक्त राजा एकवीर हैं?” यशोवती के इस प्रश्न से एकवीर आश्चर्यचकित होते हुए बोला” हे सुंदरी ! मैं ही एकवीर हूँ। किंतु तुम कौन हो और इस निर्जन वन में क्या कर रही हो? तुम मेरा नाम कैसे जानती हो ? इस वन में अकेली कैसे आ गई? कृपया सारी बात बताओ। *
यशोवती ने एकवीर को अपना परिचय दिया और उसे एकावली तथा उसके अपहरण की बात बताते हुए माता भगवती के वर देने की बात भी बताई। राजा एकवीर ने दैत्यराज कालकेतु को मारकर राजकुमारी एकावली को मुक्त कराने की प्रतिज्ञा की ।
तब यशोवती बोली – “हे राजन ! दैत्यराज कालकेतु एक पराक्रमी और शक्तिशाली दैत्य है। बलवान दैत्यों की विशाल सेना उसके अधीन है। उसे पराजित करने के लिए सर्वप्रथम आपको माता भगवती के बीजमंत्र की दीक्षा लेनी चाहिए। भगवती का बीजमंत्र सिद्धि प्रदान करने वाला है। इस मंत्र के जप से आप पर माता जगदम्बा की विशेष कृपा बनी रहेगी और दैत्य आपका अहित नहीं कर पाएँगे। तत्पश्चात् मैं आपको दैत्यराज कालकेतु की नगरी की ओर ले चलूँगी । ‘
भगवती माता की माया से उसी समय दत्तात्रेय ऋषि वहाँ आ पहुँचे। उन्हें ऋषि-मुनियों में श्रेष्ठ माना जाता था । यशोवती के परामर्श से एकवीर ने उसी क्षण भगवान् दत्तात्रेय जी से भगवती माता के महामंत्र की दीक्षा ली। भगवती के इस मंत्र को ‘त्रिलोकी का तिलक’ कहते हैं। भगवती के महामंत्र के प्रभाव से एकवीर को सबकुछ जानने और सर्वत्र जाने की योग्यता प्राप्त हो गई।
माता जगदम्बा का स्मरण करके एकवीर ने एक मंत्री भेजकर अपनी सेना को अस्त्र-शस्त्रों सहित बुलवाया और कालकेतु के नगर की ओर चल पड़ा।
एकवीर की सेना को देखकर दूतों ने शीघ्र ही दैत्यराज कालकेतु को सावधान किया। उस समय कालकेतु एकावली से यशोवती के बारे में पूछ रहा था।
उसी समय एक दूत ने आकर कहा “राजन ! कैद से भागने वाली यशोवती एक राजकुमार और विशाल सेना के साथ वापस आ रही है। ऐसा लगता होता है, मानो इन्द्रपुत्र जयंत या शिवपुत्र कार्त्तिकेय स्वयं पृथ्वी पर उतर आए हों । एक विशाल सेना लेकर बल के अभिमान में चूर हुआ वह सीधा इसी ओर आ रहा है। हे राजन ! सावधान हो जाएँ। युद्ध सिर पर है। इस कमलनयनी से स्नेह छोड़कर युद्ध के लिए तैयार हो जाएँ। “
दूत की बात सुनकर दैत्यराज कालकेतु की आँखें क्रोध से सुलगने लगीं। उसने राक्षसों से कहा – “दैत्यवीरो ! तुम सब अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर शत्रु को पराजित करने के लिए प्रस्थान करो। ध्यान रहे, कोई भी शत्रु बचकर न जा पाए। सारी शत्रुसेना को मच्छरों की तरह मसलकर रख दो ।
दैत्यों के जाने के बाद कालकेतु चिंघाड़ते हुए एकावली से बोला सच बताओ, तुम्हें बचाने के लिए कौन आ रहा है ? तुम्हारा पिता है या कोई ओर? तुम्हारा पिता होगा तो उसे आदर-सत्कार देकर मैं तुम्हारा हाथ माँग लूँगा । और यदि कोई और होगा तो मैं उसके प्राण ले लूँगा । “
कालकेतु एकावली से बातें करने में मग्न था। तभी एक दूत उपस्थित हुआ और भयभीत स्वर में बोला – ” राजन ! शत्रुसेना हमारे दैत्यों का संहार कर रही है। आप शीघ्र ही युद्ध के लिए चलें, वरना शत्रु हमें पराजित कर देंगे ।
“कालकेतु उसी समय एक विशाल रथ पर सवार होकर नगर से बाहर निकला। तभी एकवीर अपने घोड़े पर सवार होकर उसके सामने आ गया। दोनों में भीषण युद्ध छिड़ गया। भाँति-भाँति के दिव्य अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग होने लगा । एकवीर का रौद्र रूप देखकर दैत्य आतंकित हो गए। अंत में पराक्रमी एकवीर ने तलवार के प्रहार से कालकेतु का मस्तक धड़ से अलग कर दिया और कालकेतु निष्प्राण होकर भूमि पर गिर गया। उसके मरते ही सभी दैत्य राज्य छोड़कर भाग खड़े हुए।
एकवीर ने राजकुमारी एकावली को मुक्त करवाया। तत्पश्चात् यशोवती और एकावली को साथ लेकर वह सेनासहित राजा रैभ्य के नगर की ओर चल पड़ा। पुत्री के आने का समाचार सुनकर राजा रैभ्य प्रेमपूर्वक मंत्रियों के साथ उसकी आगवानी के लिए आगे बढ़े। यशोवती ने राजा रैभ्य को सम्पूर्ण घटना सुनाई। रैभ्य उन्हें लेकर अपने महल में आ गया।
फिर शुभ मुहूर्त देखकर उसने एकावली का विवाह एकवीर के साथ कर दिया। विवाह के उपरांत एकवीर एकावली को साथ लेकर अपने राज्य लौट गया। कुछ समय के पश्चात् एकावली के गर्भ से कृतवीर्य नामक एक प्रतापी पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसने हैहय वंश की नींव रखी। कृतवीर्य का पुत्र कार्तवीर्य हुआ जिसने रावण को बंदी बना लिया था।
