भय का केंद्र बिंदु अहंकार है
Bhay ke Kendra Bindu Ahankar

Life Lesson: जब तुम सबको अपनी बुद्धि से परखना बंद कर देते हो, सबको प्रेम करने लगते हो, तब तुम्हारी आंखें द्वैत रूपी दोष से मुक्त हो जाती हैं। इसमें जागृति आती है। आलस्य, चिंताएं, असंतोष सब लुप्त हो जाते हैं। तुम अपने को ओजस्वी व केंन्द्रित महसूस करते हो।

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उपनिषद! संस्कृत का एक शब्द है उपासना। उपासना का अर्थ है- अति निकट बैठना, दिव्य के निकट बैठना। निकटता भी इतनी कि मैं भी दिव्य हो जाऊं। ऐसा समीप्य घट सके, ऐसा अपनापन हो जाए, दिव्य की दिव्यता का आभास मिल सके। यह हम पर निर्भर करता है। किस विधि से दिव्य का, प्रकृति का, प्रभु का अथवा गुरु का सान्निध्य प्राप्त हो सके, इनसे एकदम अपनापन महसूस हो, यह एकपक्षीय प्रयास है, द्विपक्षीय नहीं। अर्थात साधक की ओर से फैले हाथ। यही पूजा है। उपासना का अर्थ पूजा भी होता है। ऐसी पूजा अथवा प्रार्थना कि तुम्हारे अहं का ‘मैं’ ‘मैं’ ‘तूही’ ‘तूही’ में परिवर्तित होने लगे, तब वही अहं स्वार्थ छोड़कर समर्पित होने लगता है।
भय का केन्द्रबिन्दु अहंकार है। भय अहंकार का द्योतक है। भय से मुक्ति का एकमात्र उपाय पूजा है। चेतना जो अभी तक तुम्हारी मैं की आड़ में सकुचाई खड़ी थी, ‘देह बुद्धि’ में फंसी हुई थी, पूजा की विधि का हाथ पकड़ ‘तू’ तक पहुंचने में सक्षम हो जाती है। जब यह ‘मैं मैं’ के अहं भाव से बाहर निकल कर ‘तू ही तू भाव में आगे बढ़ना शुरू होती है, तब इसमें पूर्णता आ जाती है।

यह क्षुद्र दायरे से बाहर निकलकर क्षुद्रता की सब सीमाएं तोड़ती हुई वृहताकर होकर खिलने लगती है। तब उस समय केवल तुम के सिवाय और कुछ नहीं रहता, तब तुम स्वयं वृहत ‘तुम’ हो जाते हो और फिर यह तो सब मैं ही हूं इस कैवल्य भाव की अनुभूति हो जाती है।
कभी ध्यान दिया कि तुम ‘राधे गोविंद’ ‘शिव शिव’ या कोई और भजन पूरे डूब कर गाते हो तो केवल नाद ही रह जाता है, तुम नहीं होते, तुम तिरोहित हो जाते हो? इसीलिए भजन ‘कीर्तन’ का बड़ा महात्य है। इसी को ही दूसरे शब्दों में प्रार्थना भी कहते हैं। यही उपासना है। यज्ञ का अर्थ जानते हो? क्षुद्रता को पूर्णता के अर्पण कर देना। तुच्छ मन आत्मा की अग्नि में अपनी आहूति दे देता है और विराट उसे अंगीकार कर लेता है। ‘मैं’भी वही ‘तू भी वही। ‘मैं और ‘तू की दुई मिट जाना है। यही यज्ञ है। जल की बूंद सागर अथवा झील से पृथक हो सूख जाती है, परंतु अपने स्त्रोत-सागर, झील, अथवा नदी में मिलते ही शाश्वत हो जाती है। है कि नहीं? अब जरा गहराई से देखो कि बूंद का क्या हुआ? अरे, यह तो सागर की भागीदार बन गई। यदि यह समुद्र से अलग सिर्फ एक बूंद ही रहती, तब बहुत जल्दी इसका अस्तित्व खत्म हो जाता है। यही प्रेम है। प्रेम तुम्हारी तुच्छता को भस्म कर देता है और तुम उसकी विशालता में विलीन हो जाते हो।
उपनिषद्ï से चर्चा आरम्भ हुई थी। ‘मेरे समीप बैठो’ यह है उपनिषद्ï। केवल शरीर से ही नहीं वरन हृदय से भी और मन से भी। जब तुम सबको अपनी बुद्धि से परखना बंद कर देते हो, सबको प्रेम करने लगते हो, तब तुम्हारी आंखें द्वैत रूपी दोष से मुक्त हो जाती हैं। जब भी तुम प्रेम की इस गहराई में उतरते हो, तब कभी तुमने गौर किया कि तुम्हारी चेतना में क्या परिवर्तन आया? इसके गुण में क्या परिवर्तन आया? इसमें जागृति आती है। आलस्य, चिंताएं, असंतोष सब लुप्त हो जाते हैं। तुम अपने को ओजस्वी व केंन्द्रित महसूस करते हो। तुम्हारा आत्मबल बढ़ा होता है। तब तुम मेरे निकट पहुंच ही गए।
भूतकाल के प्रत्येक बुद्ध पुरुष की अपनी-अपनी विलक्षणता रही। बुद्धि का गहन मौन, कृष्ण का नटखटपन, जीसस की सेवा और प्रेम, मीरा और चैतन्य का उन्मुक्त नृत्य आदि। शंकर का ज्ञान और विद्वता। यहां ‘जीवन जीने की कला ने उन सभी विलक्षणताओं को संजो लिया है। इसमें सब रंग पूर्ण हैं, इकरंगापन नहीं है। यह स्वयं में परिपूर्ण है।