Hitopadesh ki Kahani : उत्तर दिशा में एक सुन्दर पर्वत है। उसकी गिरि कन्दरा में दुर्दान्त नाम का एक सिंह रहा करता था। वह सिंह नित्य प्रति मनमाने पशुओं का संहार किया करता था। इससे उस वन के सभी पशु सदा उसके डर के कारण दुखी रहते थे। किसी को क्या पता कि वह कब किसकी गर्दन दबोच ले ।
अन्त में उनमें से किसी को सुबुद्धि आई। उसने एक उपाय सुझाया और तब सब पशुओं ने मिलकर निश्चय किया कि सिंह के पास जाकर उससे निवेदन किया जाये । . इस प्रकार उन सभी वन्य प्राणियों का एक प्रतिनिधि मंडल सिंह से मिलने के लिए गया। सिंह उन सबको आता देखकर विस्मय तो कर रहा था, फिर भी वह उनके अपने समीप आने की प्रतीक्षा करता रहा ।
जब सारे प्राणी समीप आ गये तो उसने प्रश्न-भरी दृष्टि से उनकी ओर देखा । सबने मिल कर उसको प्रणाम किया और फिर जिसको उन्होंने अपना मुखिया बनाया था उसने सिंह से हाथ जोड़कर निवेदन किया, “महाराज! आप इस वन के राजा हैं। आपके बिना हमारा जीवन असुरक्षित है। यद्यपि हम सब आपके भोज्य हैं तदपि आपके भय के कारण नगरवासी हमारा वध करने के लिए इस वन में घुसने का साहस नहीं कर सकते ।
” किन्तु महाराज ! हम आपसे भी एक विनती करने आये हैं। “
“हां, हां कहो, क्या कहना चाहते हो?”
“महाराज ! हमारी विनती यही है कि आप एक दिन में अनेक पशुओं का वध कर लेते हैं। जबकि आपका पेट एक से ही भर जाता है। “
“तो?” सिंह ने गरज कर कहा ।
तो महाराज हमारा निवेदन है कि हम प्रति दिन आपके भोजन के लिए एक पशु आपकी सेवा में भेज देंगे। इससे न तो हम को किसी प्रकार का भय रहेगा और न आपको ही परिश्रम करना पड़ेगा। आपका भोजन नित्य प्रति आपकी सेवा में उपस्थित हो जायेगा ।” सिंह ने यह सुना तो वह गम्भीर विचार में डूब गया । फिर कुछ क्षण विचार कर उसने कहा,
“यदि तुम लोगों की ऐसी ही इच्छा है तो ठीक है । किन्तु इस बात का ध्यान रहे कि इस नियम में किसी प्रकार की ढिलाई नहीं होनी चाहिये । यदि ऐसा हुआ तो मैं तुम सबको एक बार में ही यमलोक भेज दूंगा।”
मुखिया बोला, “नहीं महाराज! इसमें किसी प्रकार का प्रमाद नहीं होगा ।”
बस उस दिन से नित्य नियम से एक पशु बारी-बारी से सिंह की सेवा में भेज दिया जाता। इससे सिंह का आतंक तो समाप्त हो गया किन्तु जिसको जिस दिन भोज्य बनना होता था उसके प्राण पहले ही सूख जाया करते थे ।
इस प्रकार करते हुए एक दिन एक खरगोश की बारी आ गई।
खरगोश मन-ही-मन सोचने लगा कि जीवित रहने की आशा से ही किसी से विनती की जाती है। जब मेरी मृत्यु सिंह द्वारा निश्चित ही है तो फिर मैं उसको मनाने की अथवा प्रसन्न रखने की चेष्टा ही क्यों करूं?
यह विचार कर वह मन्द मन्द चलने लगा। उसका परिणाम यह हुआ कि खरगोश को सिंह के पास पहुंचने में बहुत विलम्ब हो गया। उधर खरगोश को धीरे-धीरे चलते और विचार करते हुए एक उपाय भी सूझ गया।
खरगोश जब सिंह के पास पहुंचा तो तब तक सिंह भूख के मारे तड़प रहा था । सिंह ने उससे गरज कर पूछा, “एक तो इतना छोटा-सा खरगोश और वह भी इतनी देर से ! बता तूने इतनी देर क्यों कर दी ?”
खरगोश बनावटी भय से कांपता हुआ कहने लगा, “महाराज इसमें मेरा कोई दोष नहीं है । “
सिंह को क्रोध आ रहा था। बोला, “तो फिर मेरा है?”
“नहीं महाराज! मैं यह कैसे कह सकता हूं। हम दो खरगोश थे। मार्ग में हमें एक सिंह मिल गया था ।”
“फिर?”
“उसने हमें पकड़ लिया और ज्यों ही उसने मेरी गर्दन मरोड़नी चाही तो मैंने उससे कहा कि यदि तुमने मुझे मार दिया तो हमारे महाराज तुम पर रुष्ट होकर तुम्हारे प्राण हर लेंगे।
“वह बोला कि कौन है तुम्हारा महाराज ? तो मैंने कह दिया कि इस वन में निवास करने वाले दुर्दान्त नाम के सिंहराज हमारे महाराज हैं। आज हम व्यवस्थानुसार उनके पास भोजन के लिए जा रहे हैं।
“उसने कहा, “नहीं, तुम झूठ बोलते हो। यह तुम्हारा बचने का बहाना है।” तब मैंने कहा, “नहीं, यह सत्य है, यदि तुम इसे बहाना समझते हो तो इस मेरे साथी को बन्धक रख लो। मैं अपने महाराज को लेकर तुम्हारे पास आता हूं। तब तुम देख लेना कि हमारे महाराज में कितना बल है। आते ही वे तुम्हारी गर्दन मरोड़ कर रख देंगे।
“सो महाराज ! अब आप जो उचित समझें वह कीजिए । “
“चलो, तुरन्त
यह सुनकर सिंह का क्रोध और भी बढ़ गया। उसने गरम हो कर कहा, “चलो, चलकर मुझे दिखाओ कि वह दुष्ट कहां है?”
खरगोश ने मार्ग पर चलते हुए एक गहरा कुआं देख लिया था। उस कुएं की जगत पर बैठकर उसने काफी विश्राम भी किया था । खरगोश उस सिंह को उस कुएं के पास ले गया। कुएं के पास पहुंचकर खरगोश ने कहा, “महाराज ! ऐसा भास होता है कि आपको आते देखकर वह अपने दुर्ग में घुस गया है।”
“कहां है उसका दर्ग ?”
“महाराज, यह रहा । “
यह कहकर खरगोश ने सिंह को गहरा कुआं दिखा दिया। खरगोश स्वयं कुएं की जगत पर खड़ा हो गया । जब सिंह भी जगत पर खड़ा हुआ तो खरगोश ने देखा कि उन दोनों का प्रतिविम्ब कुएं में पड़ रहा है। उसने सिंह से कहा, “देखिए महाराज । वह रहा मेरा साथी, और वह उसके बराबर में आपका शत्रु बैठा है । “
सिंह ने भी दोनों को देखा। उनको देख कर तो सिंह के क्रोध का पारावार न रहा । सिंह ने भीषण गर्जना की। उसका गर्जन द्विगुणित रूप में गूंजकर कुएं से बाहर आया । बस फिर क्या था । सिंह ने आव देखा न ताव । उस सिंह को दबोचने के लिए उसने कुएं में छलांग लगा ही दी ।
इस प्रकार उसकी अपनी मूर्खता से उसका प्राणान्त हो गया । खरगोश ने लौट कर जब अपने साथियों को इसकी सूचना दी तो उसकी बुद्धि की भूरि-भूरि प्रशंसा होने लगी। यह कथा सुनाकर कौआ बोला, “जिसके पास बुद्धि होती है समझो कि उसके पास ही बल भी है।
उसकी पत्नी ने कहा, “यह तो मैंने सुन लिया। अब आप बताइये कि आप क्या करने का विचार कर रहे हैं?”
कौआ बोला, “यहां समीप ही एक सरोवर है। प्रतिदिन उस सरोवर में यहां का राजकुमार स्नान के लिए आया करता है। स्नान करने से पूर्व वह अपने वस्त्र उतार कर रख देता है। उसके साथ ही वह अपने गले का हार तथा अन्य इसी प्रकार के आभूषण
भी उतार कर रख देता है, तैरने में जिनके निकल जाने की सम्भावना है। “
“तो फिर ?”
“फिर यह कि कल जब वह स्नान करने के लिए आये और इस प्रकार अपने आभूषण उतारे तो तुम उसके गले का हार लाकर इस सर्प के कोटर में डाल देना।”
दूसरे दिन निश्चित समय पर राजकुमार अपने सेवकों के साथ स्नान के लिये आया । उसने अपने वस्त्र उतार कर रखे और फिर हार आदि उतार कर रख दिये। अपने सेवकों को सावधान रहने का निर्देश कर राजकुमार स्वयं स्नान के लिए सरोवर में कूद गया।
कौवी अवसर देख रही ती । ज्योंही उसने देखा कि राजकुमार स्नान करने लगा है और उसके सेवक आराम से तालाब के तट पर बैठ कर परस्पर वार्त्तालाप में मग्न हैं तो वह चुपचाप पेड़ से उतर कर हार को उठा लाई ।
राजकुमार के सेवकों ने उसको देख लिया। कौवी समीप के पेड़ पर बैठी थी, उन्होंने उसको देखा तो उसको पकड़ने का उपाय करने लगे। कौवी वहां से उड़कर धीरे-धीरे अपने निवास स्थान पर आ गई। वह जान-बूझ कर मन्द मन्द उड़ रही थी जिससे कि राजकुमार के सेवक यदि उसका पीछा न भी कर पायें तो कम से कम इतना तो जान जाएं कि उनका हार लेकर आखिर वह जा किधर रही है।
हार लाकर उसने सर्प के कोटर में डाल दिया और स्वयं ऊंची चोटी पर जाकर कौतुक देखने लगी ।
राजा के सेवक भाले और लाठियां लेकर उसका पीछा करते हुए उस पेड़ तक पहुंचे और फिर उस कोटर तक चढ़े तो वहीं उनको हार दिखाई दे गया। ज्यों ही एक सेवक नेहार उठाना चाहा कि तत्काल उस काले सांप ने फुफकार मारी। सेवक एक बार तो डर गया किन्तु तुरन्त उसने उस सांप को मार कर निष्प्राण कर दिया और फिर हार लेकर वे सब सरोवर को लौट गये।
यह कथा सुना कर दमनक कहने लगा, “इसीलिए में कहता हूं कि जो काम परिश्रम से नहीं होता वह उपाय से हो जाया करता है । “
करटक बोला, “यदि ऐसा ही है तो जाओ यथेच्छ करो। मैं तुम्हारी सफलता की कामना करता हूं।”
कस्टक द्वारा प्रोत्साहित होकर दमनक अपने राजा पिंगलक के सपीप गया। राजा को प्रणाम कर हाथ जोड़े खड़ा रहा। पिंगलक ने पूछा, “कहो, क्या बात है ?”
“महाराज! मैं आपका पुराना सेवक हूं। मैं अनुभव कर रहा हूं कि आप पर विपत्ति के बादल मंडरा रहे हैं। उसी का विचार कर मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूं।
“कहते हैं कि विपत्ति के समय, दुर्गम मार्ग पर चलते समय कार्यकाल का समय बीतता जान कर जो व्यक्ति बिना पूछे हित की बात कहे वही अपना शुभचिन्तक होता है। ” और भी कहा गया है कि राजा तो एक माता-पिता होता है, कार्य का पात्र नहीं। राजा के कार्य को भ्रष्ट करने वाला मन्त्री ही दोषी होता है।
” और देखिए, मन्त्रियों का यह नियम है कि उनके लिए प्राणों का त्यागना ठीक है, सिर भी कट जाये तो कोई हानि नहीं । किन्तु अपने स्वामी के पद को जो हड़पना चाहता हो उस पुरुष की उपेक्षा न करें।”
यह सुन कर पिंगलक के मन में उसके प्रति जो पहले की भावना थी वह कुछ कम हुई। उसने सोचा, करता तो यह बुद्धि की ही बात है। सिंह ने पूछा। “आखिर तुम कहना क्या चाह रहे हो ?”
दमनक बोला, “स्वामी! मुझे तो दिखाई दे रहा है कि संजीवक अब आपके प्रतिकूल कार्य कर रहा है। उसने स्वयं हम लोगों के सम्मुख आपकी प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति और उत्साह शक्ति की निन्दा करते हुए आपका राज्य प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की है।” पिंगलक तो यह सुनकर आश्चर्यचकित ही रह गया। मानो उसका सिर चकरा रहा हो ।
चोट पिंगलक के मर्म को बेध गई। उचित अवसर जान कर दमनक ने तुरन्त कहा, “महाराज! आपने सब मन्त्रियों को निरस्त कर एकमात्र उसको सर्वाधिकारी बना दिया है । ऐसा करना उचित नहीं था ।
“क्योंकि कहा गया है कि जो अतिशय रूप से उन्नत मन्त्री हो, अथवा जो राजा हो, लक्ष्मी तो इन दोनों के चरणों में ही लौटती है। स्त्री सुलभ कोमलता के कारण वह अधिक बोझ सहन नहीं कर सकती। इसलिए उन दोनों में से वह एक का परित्याग कर देती है।
“और जब राजा किसी एक मन्त्री पर विश्वास कर उसको अपने समस्त राज्य का अधिकारी बना देता है तो स्वाभाविक है कि उस मन्त्री को अभिमान हो जाये । सत्ता का मद और आलस्य इन दोनों के वशीभूत उसके मन में भेदभाव भी उत्पन्न होने लगता है। और जब भेद उत्पन्न हो गया तो उसके मन में सर्वेसर्वा बनने की भावना जोर पकड़ने लगती है । उसका परिणाम यह होता है कि वह राजा से प्राणघातक द्रोह करने लगता है।
“महाराज! कहा गया है कि विषाक्त अन्न, हिलते हुए दांत और दुष्ट मन्त्री, इन तीनों को जड़ से उखाड़ फेंकने में ही कल्याण है।
“जो राजा अपनी राज्यलक्ष्मी को मन्त्री के अधीन कर देता है तो विपत्ति आने पर वह उस अन्धे की भांति दुखी होता है जिसे कोई मार्ग दिखाने वाला नहीं रहता ।
“उसके परिणाम स्वरूप अन्त में वह मन्त्री सब काम अपने आप ही अपनी इच्छानुसार करने लग जाता है।
“यह मैंने वस्तुस्थिति का वर्णन कर दिया है। इस पर जो आपकी इच्छा हो सो कीजिए । आप यह तो जानते ही है कि संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं होगा जो लक्ष्मी को न चाहे । भला पराई सुन्दरी स्त्री को कौन आदर के साथ नहीं देखता ?”
सिंह ने दमनक की बात पर विचार किया और फिर कहने लगा, “दमनक! आपका कथन भले ही यथार्थ हो किन्तु आप तो जानते हैं कि संजीवक के साथ मेरा कितना स्नेह है।
“देखो, कहा गया है कि जो अपने प्रिय हैं, वह कितना ही अपराध कर डालें तदपि प्रिय ही रहेंगे। अपने शरीर के किसी भी अंग में कितने ही विकार क्यों न उत्पन्न हो जाएं क्या उसको काट कर फेंक दिया जाता है ?
“और भी कहा गया है कि जो अपना प्रिय है यदि वह कोई अप्रिय कार्य कर दे तो फिर भी वह प्रिय रहेगा। अग्नि यद्यपि कितने ही घर जला डालती है किन्तु फिर भी उसका कोई अनादर नहीं करता।”
यह सुन कर फिर दमनक ने कहा, “महाराजा यही तो सबसे बड़ा दोष है। “
“चाहे वह पुत्र हो, मन्त्री हो अथवा कोई भी अन्य क्यों न हो। जिसको राजा एक बार अपनी आंखों पर चढ़ा लेता है, उससे प्रेम करने लगता है, बस वह तो समझो कि लक्ष्मी का पात्र बन ही गया।
“और सुनिये महाराज ! पथ्य भले ही अप्रिय होता हो किन्तु उसका परिणाम तो आनन्ददायक ही होता है। कहा गया है कि जहां अप्रिय पथ्य के वक्ता और श्रोता रहते हैं वहां सब सम्पत्तियां विराजमान रहती हैं।
“महाराज! आपने तो अपने सब पुराने सेवकों को छोड़कर इस नवागन्तुक को बढ़ावा दिया है। यह कार्य भी अनुचित ही हुआ है।
“क्योंकि कहा गया है कि अपने पुराने सेवकों को छोड़ कर आगन्तुक का कभी न सम्मान करें। क्योंकि राज्य में अव्यवस्था उत्पन्न करने वाला इससे बड़ा अन्य कोई दोष नहीं है।”
सिंह कहने लगा, “कितने आश्चर्य की बात है! मैंने ही उसको अभयदान दिया। अपने समीप रखा, उसका पालन-पोषण किया तब वह क्यों मुझसे द्रोह करने लगा है ?”
यह सुन कर दमनक कहने लगा, “देव! दुर्जन मनुष्य की चाहे नित्य सेवा की जाये किन्तु वह फिर भी सीधा नहीं होता । कुत्ते की पूंछ ही देख लीजिये। उस पर कितना ही उबटन अथवा तेल लगा कर उसको सीधा किया जाये किन्तु फिर भी वह सीधी नहीं होती, टेढ़ी ही रहती है।
“कहते हैं कि किसी ने कुत्ते की पूंछ पर खूब तेल की मालिश की और फिर उसको रस्सी के बांध दिया। बारह वर्ष बाद जब उसको खोला गया तो वह फिर वैसी टेढ़ी की ठेढ़ी ही हो गयी।
” और भी कहा गया है कि उन्नति अथवा सम्मान किसी दुष्ट प्रकृति वाले मनुष्य को प्रसन्न नहीं कर सकता। जैसे विषैले वृक्ष को चाहे अमृत से खींचा जाये तो भी उसमें अच्छे फल नहीं लगते।
“इसलिए मैं कहता हूं कि यह सज्जनों का धर्म है कि जिसकी वे विजय चाहते हों उसको हितकारी परामर्श ही देना चाहिये। जो ऐसा नहीं करते उनको भला व्यक्ति नहीं समझा जा सकता ।
” और भी कहा गया है कि अपना वास्तविक स्नेही वही है जो खोटी राह पर चलने से रोके । वही कर्म उत्तम है जो पवित्र हो । वही स्त्री अच्छी है जो पति की आज्ञा का पालन करती हो। वही मनुष्य बुद्धिमान है जिसका सम्मान भले लोग करें। वही धन उत्तम है जिससे अभिमान न हो। वही मित्र उत्तम है जिसके प्रेम में दिखावट न हो ! संसार में उस
व्यक्ति को ही सुखी माना गया है जो इन्द्रियों के आवेश में आकर दुखी नहीं होता ।
“महाराज ! संजीवक के इस प्रकार आपके कार्यों में अनुचित हस्तक्षेप करने पर भी आपका मन उसकी ओर से नहीं फिरता है तो फिर इसमें हम जैसे शुभचिन्तक सेवकों का कोई दोष नहीं है।
“कहा भी है कि कामासक्त होकर राजा भले और बुरे कार्य को नहीं समझ सकता । वह तो मतवाले हाथी की भांति स्वच्छन्द रूप से विचरण करता है। अभिमान से फूल कर जब वह शोक रूपी गढ़े में गिरता है तो अपने सेवकों को ही दोष देता है किन्तु अपनी कुचाल की ओर उसका ध्यान जाता ही नहीं ।”
यह सुन कर पिंगलक मन ही मन सोचने लगे, “दूसरों की शिकायत पर दूसरों को दंड न देकर । पहले स्वयं भलीभांति स्थिति का अध्ययन कर लेना चाहिये। उसके बाद ही अपराधी को कारागार में डालना चाहिये अथवा निर्दोष पाये जाने पर उसका सम्मान करे करना चाहिए ।
“कहा भी है गुण और दोष का निश्चिय किये बिना किसी को अपनाना या त्यागना उचित नहीं है। ऐसा करना तो मानो अभिमान के वश में हो कर अपना नाश करने के लिए सर्प के मुख में हाथ डालना है।”
इतना विचार कर उसने प्रकट में कहा, “तो क्या तुम यह परामर्श देते हो कि संजीवक को निकाल दिया जाये ?”
दमनक बोला, “नहीं महाराज! ऐसा करने से तो भेद खुल जायेगा ।
“कहा गया है कि मन्त्रणारूपी बीज को जिस प्रकार से भी हो, गुप्त ही रखा जाये । इसका रहस्योद्घाटन कदापि नहीं होना चाहिये। बीज यदि फूट जाता है तो फिर वह उगता नहीं है।
“और जो कुछ किसी से लेना-देना है अथवा कोई काम करना है वह यदि तुरन्त नहीं होता हो तो समय उसका रस पी जाता है।
“अतः यह आवश्यक है कि जो कार्य आरम्भ कर दिया हो उसको यत्न से पूर्ण कर ही देना चाहिये ।
“और क्या कहा जाए, मन्त्र तो उतावले योद्धा की भांति कितना ही गुप्त क्यों न रखा जाये वह फूट जाने के भय से अधिक समय तक टिकना ही नहीं चाहता ।
“यदि दोष देख कर भी आप उसके साथ सन्धि करने का विचार करते हों तो वह और भी अनुचित है।”
“क्यों कि एक बार बिगड़े हुए मित्र को जो फिर मिलाना चाहता है वह उसी प्रकार मरता है कि जैसे खच्चरी स्वयं मर मिटने के लिए ही गर्भ धारण करती है।”
यह सुन कर सिंह कहने लगा, “अच्छा, पहले यह तो पता लगाने का यत्न करो कि वह हमारा क्या कर सकता है?”
दमनक बोला, महाराज! किसी का अंग और अंगीभाव जाने बिना उसके सामर्थ्य का निर्णय किस प्रकार किया जा सकता है? क्या आपने सुना नहीं कि एक साधारण-सी टिटिहरी ने विशाल समुद्र को भी व्याकुल कर दिया था ?”
सिंह ने पूछा, “वह किस प्रकार ?”
दमनक बोला, “सुनाता हूं, सुनिये।”
