Importance of Youth: किसी देश का युवा ही उस राष्ट्र की रीढ़ होता है। सचमुच कोई देश तभी जागता है जब उस देश का युवा जगता है, युवा वर्ग में जो उत्साह एवं ऊर्जा होती है वह किसी अन्य वर्ग में नहीं होती, परन्तु इस ऊर्जा का सार्थक एवं सकारात्मक प्रयोग युवा कैसे करे यह बड़ा ही गूढ़ प्रश्न है हमारे भारतवर्ष और विश्व में युवाओं ने कितने ही कीॢत स्तंभ स्थापित किए हैं। जो उपलब्धि कई हजार वर्षों में भी उपलब्ध नहीं हो पाती, हमारे देश के युवाओं ने कुछ ही समय में हासिल कर ली।
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अंग्रेजी के महान कवि जॉन कीट्स जीवन के महज छब्बीस बसन्त ही देख सके लेकिन उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में जो योगदान दिया वह अतुल्नीय एवं अद्वितीय है। आज कहीं न कहीं युवा वर्ग में भटकाव आ गया है लेकिन वह क्यों भटका है? इसका कारण वह स्वयं नहीं जानता है। क्योंकि आज जो शिक्षा दी जा रही है, वह विचारों और व्यवहार में न उतरकर सिर्फ डिग्रियों और क्षुद्र स्वार्थ में ही निहित हो गई है। स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं को शिक्षा देने के संबंध में कहा था- तुमको कार्य के प्रत्येक क्षेत्र में व्यवहारिक बनना पड़ेगा। संपूर्ण देश का सिद्धान्तों के ढेरों ने विनाश कर दिया है।
(ङ्घशह्व 2द्बद्यद्य द्धड्ड1द्ग ह्लश ड्ढद्ग श्चह्म्ड्डष्ह्लद्बष्ड्डद्य द्बठ्ठ ड्डद्यद्य ह्यश्चद्धद्गह्म्द्गह्य शद्घ 2शह्म्द्म. ञ्जद्धद्ग 2द्धशद्यद्ग ष्शह्वठ्ठह्लह्म्4 द्धड्डह्य ड्ढद्गद्गठ्ठ ह्म्ह्वद्बठ्ठद्गस्र ड्ढ4 द्वड्डह्यह्य ह्लद्धद्गशह्म्द्बद्गह्य)
सचमुच स्वामी जी पारखी थे जो उन्होंने उसी समय सचेत होने को कहा पर अफसोस हम संभले नहीं आज भी हम भारतीयों के ऊपर लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति हावी है, रंग-रूप तो भारतीय है पर स्वभावत: हम अंग्रेज हो गए हैं।
हममें पाश्चात्य सभ्यता की वासना समा गई है, किसी से सीखना कुछ गलत नहीं है अगर वह सकारात्मक है।
यजुर्वेद में कहा गया है-
‘आ नो भद्रा: क्रतव: यन्तु विश्वत:
अच्छे विचार कहीं से भी आएं उन्हें आने दो। परन्तु हम तो बुराइयां ले रहे हैं, अपनी जड़ों को हम खोखला बना रहे हैं। इससे क्या भविष्य में हमारी पहचान पर प्रश्न चिह्न न लगेगा? महात्मा गांधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर के जीवन का एक प्रसंग है।
एक बार गांधी जी ने रवीन्द्रनाथ टैगोर से कहा ‘हमें अपनी खिड़कियां खुली रखनी चाहिए। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा ‘जब घर रहेगा तभी न खिड़की खोलेंगे।
बात सही है फूल सभी अच्छे लगते हैं लेकिन जड़ अपनी ही होनी चाहिए। सही बात है जड़ से ही किसी वृक्ष का सृजन होता है।
चाहे आध्यात्मिक रूप से हो या सामाजिक या राष्ट्रीय, युवाओं ने महती भूमिका अदा की है, जगद्ïगुरु शंकराचार्य ने महज 32 वर्ष की उम्र पाई लेकिन उन्होंने इतने कम समय में जो उपलब्धि हासिल की वह 32 हजार वर्षों मे शायद ही कोई प्राप्त कर पाए।
महारानी लक्ष्मीबाई, चन्द्रशेखर आजाद, महॢष अरविन्द न जाने कितने युवाओं के दृष्टान्त हैं, जिन्होंने अपनी शक्ति के सकारात्मक दृष्टिकोण को पहचाना और उसका सार्थक सदुपयोग किया।
आपका अन्त:करण ही वाह््य को परिवॢतत करता है।
यह वाक्य कितने गूढ़ रहस्य को प्रस्फुटित करता है। सचमुच मनुष्य का अन्त:करण जगेगा तभी तो वाह्य परिवॢतत होगा।
आज हमारे अन्त:करण में पाश्चात्य प्रवृत्ति हावी है।
मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था-
‘हम क्या थे, क्या हैं, क्या होंगे अभी यही दृष्टिकोण युवाओं को सकारात्मक लक्ष्य की तरफ मोड़ेगा, भाव छलकेंगे, साहस मचलेगा, विषमताओं में उत्साह मिलेगा, समस्याओं के संवेदन से नवीन ऊर्जा का संचार होगा, आत्मा का परम तेज ही युवाओं की आध्यात्मिक शक्ति को निखारेगा, तभी तो स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-
‘अपने अन्दर जाओ और उपनिषदों को अपने में से बाहर निकालो, तुम सबसे महान पुस्तक हो जो कभी थी अथवा होगी जब तक अन्तरात्मा नहीं खुलती समस्त बाह्य शिक्षण व्यर्थ है।
युवाओं में आज ओछे आकर्षण के प्रति ललक है। सूक्ष्म सौन्दर्य के आकर्षण से वह वंचित है। स्वामी जी ने कहा था-‘क्चद्ग ्रठ्ठस्र रूड्डद्मद्ग’ अर्थात् ‘बनो और बनाओ।
यह वचन महामंत्र है। हम स्वयं बनेंगे और दूसरों को बनने के लिए प्रेरित करेंगे। कुछ भी असंभव नहीं होता अगर चाहा जाए, आम्रपाली जैसी वेश्या साध्वी बन गई, रत्नाकर बाल्मीकि हो गए, जिन्होंने इन्हें बनाया वे पहले स्वयं बनें।
चाहे सिद्धार्थ हों या वर्द्धमान सबने अपने ओछे आकर्षण को त्यागा, सूक्ष्म सत्ता को पहचाना और जीवन में नए इतिहास की रचना की।
गीता में कृष्ण ने बहके, भटके दुखी अर्जुन को उपदेश दिया-
कैल्ब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप॥
‘हे पार्थ निर्वीय मत बनो, तुझमें ये उचित नहीं जान पड़ती है। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।
यही है यह भावगीत इसे प्रत्येक युवा को समझना होगा, बुरे आचरण का महाभारत जो हमारे देश में पनप रहा है हमें उससे युद्ध करना होगा, तभी तो एक नवीन राष्ट्र का निर्माण होगा।
हम सबमें कोई परशुराम है, कोई वेद व्यास, कोई सिद्धार्थ, लेकिन हम अपने को पहचान नहीं पाते। यदि हम यौवन शक्ति का सार्थक सदुपयोग करें तो ये सारे व्यक्तित्व हममें प्रस्फुटित होने लगेंगे लेकिन प्रारंभ में जो रत्नाकर है वह तो मरा-मरा ही बोलेगा, फिर बाद में राम होगा। युवा हारे नहीं, मनोबल हमेशा मजबूत हो तो युवा अपने भाग्य का निर्माण स्वयं कर लेगा, इससे हमारी भारत माता का आंचल महक उठेगा।
हम सबमें कोई परशुराम है, कोई वेद व्यास, कोई सिद्धार्थ, लेकिन हम अपने को पहचान नहीं पाते। यदि हम यौवन शक्ति का सार्थक सदुपयोग करें तो ये सारे व्यक्तित्व हममें प्रस्फुटित होने लगेंगे।
