pareekshit kee mrtyu - mahabharat story
pareekshit kee mrtyu - mahabharat story

परीक्षित अपने नीच कार्य पर दुःखी थे, लेकिन जब उन्हें मुनि कुमार के शाप देने की बात ज्ञात हुई तो पाप का प्रायश्चितत्त करने के लिए वे निराहार रहकर भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगे। तभी भगवान की प्रेरणा से महर्षि शुकदेव वहां पधारे। परीक्षित ने उनसे मोक्ष का उपाय पूछा। शुकदेवजी ने उन्हें श्रीमद्भागवत की महिमा बताई। परीक्षित ने उनसे कथा सुनाने की प्रार्थना की। तब महर्षि शुकदेव उन्हें श्रीमद्भागवत की कथा सुनाने लगे।

शुकदेव मुनि द्वारा श्रीमद्भागवत की कथा सुनने के बाद परीक्षित का व्याकुल मन शांत हो गया। कथा-समाप्ति पर उन्होंने प्रेमपूर्वक शुकदेवजी की पूजा-उपासना की। इसके बाद महर्षि शुकदेव वहां से प्रस्थान कर गए। परीक्षित के सभी संदेह समाप्त हो चुके थे, अतः उन्होंने चिंतन द्वारा स्वयं को परमात्मा के चरणों में ध्यानमग्न कर लिया।

मंत्रिगण को अपने राजा की बड़ी चिंता थी। उन्होंने राजा परीक्षित की सुरक्षा के लिए कुछ ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति की, जो मणि और मंत्रों के ज्ञाता थे। इसके अतिरिक्त महल के द्वार पर अनेक नवयुवक सिपाहियों और कुमारों को नियुक्त कर दिया गया। इनका कार्य किसी को भी भवन में प्रवेश करने से रोकना था। इतना सुदृढ़ प्रबंध किया गया था कि बिना अनुमति के वायु का एक झोंका भी अंदर नहीं जा सकता था।

कश्यप के लौटने के बाद तक्षक नाग हस्तिनापुर की ओर चल पड़ा। महल के निकट पहुंचने पर उसने देखा कि चारों ओर कड़ी सुरक्षा-व्यवस्था की गई है। विभिन्न मणि, मंत्रों और औषधियों की सहायता से राजा की सुरक्षा की व्यवस्था की गई थी। यह देखकर तक्षक नाग चिंतित हो गया। वह सोचने लगा-‘यदि मैं राजा परीक्षित को नहीं डस सका तो शृंगी ऋषि का शाप मिथ्या हो जाएगा और वे क्रोधित होकर मुझे शाप दे देंगे। यह राजा कितना मूर्ख है, जो इस तथ्य को नहीं जानता कि मृत्यु को कभी टाला नहीं जा सकता। यदि मृत्यु निश्चित है तो वह सात दरवाजे तोड़कर भी आ जाती है।’

तत्पश्चात् तक्षक नाग यह विचार करने लगा कि राजा परीक्षित तक किस प्रकार पहुंचा जाए, जिससे ऋषि का शाप सत्य सिद्ध हो सके। कुछ समय तक सोचने के बाद उसने अपने सेवक नागों का आह्वान किया। आह्वान करते ही वहां चारों ओर अनेक सर्प प्रकट हो गए। तक्षक नाग ने उन्हें तपस्वी रूप धारण करके, एक दिव्य फल के साथ राजा परीक्षित के पास जाने का निर्देश दिया और वह स्वयं छोटा कीड़ा बनकर उस फल के बीच में बैठ गया। सभी सर्प तपस्वी का रूप धारण कर महल के द्वार पर पहुंचे।

द्वारपालों ने तपस्वियों को द्वार पर रोककर उनके आने का प्रयोजन पूछा। तब तपस्वी बने सर्पों ने कहा-हे द्वारपाल! हम महाराज के दर्शन करने के लिए वन से आए हैं। महाराज परीक्षित को तक्षक नाग से भयभीत नहीं होना चाहिए। हम अथर्ववेद के मंत्रों के ज्ञाता हैं। इनके प्रयोग से हम उन्हें दीर्घजीवी बना देंगे। आप केवल महाराज को सूचित कर दें कि उनसे मिलने कुछ तपस्वी आए हैं। उनसे मिलकर उन्हें वह दिव्य फल प्रदान कर हम वापस लौट जाएंगे।”

तपस्वियों की बात सुनकर द्वारपाल बोले-“मुनिवरो! आज महाराज से भेंट होना असंभव है। आप कल आने का कष्ट करें। महाराज कल आपसे अवश्य मिलेंगे।”

तब तपस्वियों ने द्वारपाल को वह फल देते हुए कहा-“द्वारपाल! यदि आज महाराज से मिलना संभव नहीं है तो कृपया यह दिव्य फल ही उन तक पहुंचा दें। यह दिव्य फल तक्षक नाग से राजा परीक्षित की रक्षा अवश्य करेगा।”

राजा परीक्षित को तपस्वियों के बारे में बताते हुए द्वारपालों ने वह दिव्य फल उन्हें दे दिया। जब राजा परीक्षित ने उस फल को खाने के लिए चीरा तो उसके मध्य से कीड़ा बना तक्षक नाग निकल आया। उस कीड़े को देखते ही परीक्षित का सत्य से साक्षात्कार हो गया और उन्होंने मंत्रियों से कहा-“अब मुझे मृत्यु से किसी प्रकार का भय नहीं है। मैं ऋषि के शाप को शिरोधार्य करता हूं। यह कीड़ा मुझे काट ले।”

इतना कहने के बाद परीक्षित ने उस कीड़े को अपने गले से लगा लिया। सूर्यास्त होते ही तक्षक नाग अपने वास्तविक रूप में आ गया। तक्षक नाग की आकृति बड़ी भयंकर थी। उसे देखते ही सभी मंत्रिगण और सैनिक भय से थरथर कांपने लगे। तक्षक नाग ने परीक्षित के शरीर को जकड़ा और भयंकर विषाग्नि उगलते हुए डस लिया। राजा परीक्षित की तत्काल मृत्यु हो गई।