पांडवों के स्वर्ग जाने के पश्चात् परीक्षित ऋषि-मुनियों के आदेशानुसार धर्मपूर्वक शासन करने लगे। उनके जन्म के समय ज्योतिषियों ने जिन गुणों का वर्णन किया था, वे समस्त गुण उनमें विद्यमान थे। उनका विवाह राजा उत्तर की कन्या इरावती से हुआ। उससे उन्हें जनमेजय आदि चार पुत्र प्राप्त हुए। इस प्रकार वे समस्त ऐश्वर्य भोग रहे थे।
एक बार दिग्विजय करते हुए परीक्षित सरस्वती नदी के तट पर पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि एक राजवेषधारी शूद्र हाथ में डंडा लिए एक पैर वाले वृषभ (बैल) और एक अति दुर्बल गाय को निर्दयता से पीट रहा है। वह वृषभ भय से कांपता हुआ एक पैर पर खड़ा था और गाय उस शूद्र के पांवों के पास गिरकर उसकी ठोकरें खा रही थी।
यह वीभत्स दृश्य देख परीक्षित क्रोधित होते हुए बोले-“ठहर जा दुष्ट! तू कौन है, जो इन निर्दोष और दुर्बल प्राणियों पर अत्याचार कर रहा है? यद्यपि तूने राजा का वेष धारण कर रखा है, किंतु तेरा कर्म तेरे शूद्र होने की बात कह रहा है। तूने मेरे राज्य में यह कार्य कर घोर अपराध किया है। इसलिए तेरा वध ही तेरे लिए उचित दंड है।”
तभी एक दिव्य आकाशवाणी हुई-“महाराज! राजवेषधारी यह शूद्र वास्तव में कलियुग है और उसके हाथों वृषभ-रूप में धर्म तथा गाय-रूप में पृथ्वी कष्ट भोग रहे हैं। सतयुग में धर्म के‒पवित्रता, तप, दया और सत्य‒ये चार चरण थे, किंतु कलियुग में गर्व, मोह और मद के कारण इसके तीन चरण नष्ट हो गए हैं। अब यह सत्य नामक चरण पर ही स्थिर है। भगवान श्रीकृष्ण के जाने के साथ ही पृथ्वी पर कलियुग का आगमन हो गया था। इस युग में सभी प्राणी पापाचार में लिप्त हो जाएंगे। यही सोचकर पृथ्वी अत्यंत दुःखी है। अब आप इनके कष्टों का निवारण कीजिए।”
परीक्षित ने धर्म और पृथ्वी को सांत्वना दी और म्यान से तलवार निकालकर आगे बढ़े। कलियुग ने देखा कि अब परीक्षित उसे मार ही डालेंगे तो उसने अपना राजसी वेश त्याग दिया और भय से व्याकुल होकर उनके चरणों में मस्तक झुका दिया। राजा परीक्षित परम दयालु थे। जब उन्होंने कलियुग को अपनी शरण में देखा तो उनका मन दया से भर गया।
वे द्रवित भाव से बोले-“कलियुग ! अब जब तुम मेरी शरण में आ गए हो तो तुम्हारा वध करना व्यर्थ है, किंतु तुम धर्म के सहायक हो। तुम्हारे ही कारण मनुष्यों में लोभ, झूठ, चोरी, स्वार्थ, मद, दरिद्रता, मोह, दंभ और अन्य पापों की वृद्धि हो रही है। अतः मैं तुम्हें एक क्षण भी अपने राज्य में नहीं रहने दूंगा। यहां धर्म का वास है। ऋषि-मुनि यज्ञ द्वारा भगवान की आराधना करते हैं। यहां चारों ओर धर्म, पवित्रता, दया, तप, प्रेम और सहिष्णुता का शासन है। यदि तुम अपने प्राण बचाना चाहते हो तो तत्काल यह स्थान छोड़कर कहीं और चले जाओ।”
परीक्षित की बात सुनकर कलियुग के शरीर में भय से कंपकंपी छूट गई। हाथ में तलवार लिए वे साक्षात् यमराज प्रतीत होते थे। तब कलियुग भयभीत होकर बोला-“राजन! मैं आपकी शरण में हूं और शरणागत की रक्षा करना आपका परम कर्त्तव्य है। महाराज ! संपूर्ण पृथ्वी पर आपका ही राज्य है। मैं जहां भी निवास करने का विचार करता हूं, वहीं आप धनुष किए दिखाई देते हैं। आप ही मुझे वह स्थान बताएं, जहां आपकी आज्ञा का पालन करते हुए मैं स्थिर होकर रह सकूं। अब आप जो भी स्थान मेरे लिए निश्चित करेंगे, मैं वहीं निवास करूंगा।”
तब परम दयालु परीक्षित बोले-“कलियुग ! मैं तुम्हें मद्यपान, स्त्री-प्रसंग, द्यूत, हिंसा और स्वर्ण‒ये पांच स्थान प्रदान करता हूं। इन स्थानों में असत्य, मद, मोह और निर्दयता वास करते हैं, इसलिए तुम सदा यहां निवास करोगे।”
परीक्षित द्वारा स्थान दिए जाने से कलियुग बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने उन्हें प्रणाम किया और वहां से चला गया। इस प्रकार पृथ्वी पर कलियुग का आगमन हो गया। तत्पश्चात् परीक्षित ने वृषभ-रूपी धर्म के तीनों पांव-तप, पवित्रता और दया पुनः जोड़ दिए। इसके बाद पृथ्वी को बल प्रदान कर वे अपने महल की ओर लौट गए।
