paandavon ka svargaarohan - mahabharat story
paandavon ka svargaarohan - mahabharat story

एक बार भगवान श्रीकृष्ण से मिलने की इच्छा से अर्जुन द्वारिका गए। जब वे कई दिनों तक नहीं लौटे तो युधिष्ठिर को भयंकर अपशकुन दिखाई देने लगे। लोग अत्यंत क्रोधी, लोभी, असत्यप्रिय और दुराचारी हो गए थे। उनका व्यवहार कपटपूर्ण हो गया था। पिता, माता, पति, पत्नी में वैर-विरोध रहने लगा। यह सब देख युधिष्ठिर बड़े चिंतित हो उठे।

एक दिन युधिष्ठिर अपने महल में बैठे थे। भीम, नकुल और सहदेव उनके निकट ही खड़े होकर वार्तालाप कर रहे थे। उसी समय अर्जुन द्वारिका से लौटे। वे अत्यंत दुःखी और आतुर दिखाई दे रहे थे। सिर नीचे झुका हुआ था। आंखों से आंसू बह रहे थे। शरीर की कांति समाप्त हो गई थी। वे युधिष्ठिर के चरणों में बैठ गए।

अर्जुन की यह दशा देख युधिष्ठिर घबराकर बोले-“अर्जुन ! इतने चिंतित क्यों हो? सब कुशल तो है न द्वारिका में? तुमने इतने दिन क्यों लगा दिए? वहां किसी ने तुम्हारा अपमान तो नहीं किया अथवा तुम किसी कार्य में असफल तो नहीं हो गए? अर्जुन ! शीघ्र अपने दुःख का कारण बताओ। तुम्हारी यह दशा हमारे लिए असहनीय है।”

अर्जुन बड़ी कठिनाई से अपने दुःख के आवेग को रोकते हुए बोले-

“महाराज ! जिनके पराक्रम के सामने समस्त देवता नतमस्तक रहते थे, जो द्रौपदी के स्मरण करते ही दौड़े चले आते थे, महाभारत के युद्ध में जो हमारी विजय के सूत्रधार रहे, वे भगवान श्रीकृष्ण हम सबको अकेला छोड़कर बलरामजी के साथ परलोक सिधार गए हैं। उनके बिना द्वारिका सूनी पड़ी है। भ्राताश्री ! ब्राह्मणों के शाप के कारण बुद्धि भ्रष्ट होने से यदुवंशी आपस में ही लड़कर समाप्त हो गए हैं। अब केवल चार-पांच यदुवंशी शेष बचे हैं। मैं भगवान की पत्नियों को द्वारिका से अपने साथ ला रहा था, किंतु दुष्ट गोपों ने मुझे पराजित कर दिया। ये वही गांडीव और बाण थे, जो पल-भर में शत्रु को बेधकर मृत्यु का ग्रास बना देते थे, लेकिन श्रीकृष्ण के बिना ये प्रभाहीन हो गए हैं। भगवान श्रीकृष्ण मेरे प्रिय सखा थे। उन्होंने सदा मेरे अपराधों को क्षमा किया। उनके बिना मैं स्वयं को बलहीन अनुभव कर रहा हूं। ऐसा लगता है मानो किसी ने मेरे प्राण ही निकाल लिए हों। अब उनके बिना यह जीवन निरर्थक लगता है।” यह कहकर अर्जुन पुनः बिलखने लगे।

श्रीकृष्ण के स्वर्गारोहण और यदुवंशी के विनाश का वृत्तांत सुनकर कुंती ने अपना ध्यान संसाररूपी मोह-माया से हटाकर श्रीकृष्ण के चरणों में लगा लिया। पांडवों ने भी सब कुछ त्यागकर हिमालय पर्वत पर जाने का निश्चय कर लिया।

युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर में परीक्षित का और मथुरा में अनिरुद्ध (प्रद्युम्न के पुत्र और श्रीकृष्ण के पौत्र) के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक किया। तत्पश्चात् अपने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ हिमालय की ओर चल पड़े। वहां एक-एक कर वे भगवान श्रीकृष्ण के परम-धाम को प्राप्त हुए। इधर विदुरजी भी पितरों के साथ अपने लोक (यमलोक) लौट गए।

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