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मुर्दाघर की तलाश में – गृहलक्ष्मी कहानियां

उसे लगा कि मैंने उसे पहचान लिया है तो वह दूसरी तरफ सहज भाव से घूम गया, जैसे उसने मुझे देखा ही न हो। फिर तेज कदमों से चलता हुआ सड़क की तरफ पहुंच गया। मैं एक क्षण सोच में पड़ गयी। क्या ये वही है? कहीं मेरी आंखें तो धोखा नहीं खा गई। नहीं ये वही है, लेकिन मुझे देखकर अनदेखा क्यों करके चला गया? मैं तो उसकी दोस्त थी और उसके शहर छोड़ने तक भी थी।

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मेरी पहचान – गृहलक्ष्मी कहानियां

काश, मैं भी इन लोगों की तरह ज्यादा पढ़ लिख लेती तो मैं भी कुछ होती। मेरी भी कोई अपनी पहचान होती। ऐसा मज़ाक न बनता मेरा। पर आगे पढ़ती भी तो कैसे। दसवीं के बाद से ही पिताजी को मेरी शादी की चिंता होने लगी थी। मैं आगे पढ़नी चाहती थी। पर गांव में कोई स्कूल भी तो नहीं था दसवीं के बाद पढ़ने के लिए।

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मुखौटे वाले नहीं नहीं – गृहलक्ष्मी कहानियां

आज उसका मन बल्लियों उछल रहा था। राजकुमार का पलंग झाड़ते हुए उसे एक बहुत अजीब सी अच्छी खुशी महसूस हुई। दोनों तकियों के गिलाफ उतारते और लगाते हुए हालांकि सांस भी चढ़ती जाती थी मगर ऐसी खुशी । ये वही खुशी थी जिसका वो सपना तब से देख रही थी जब से उसे महल की सफाई का जिम्मा मिला था।

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पुकार – गृहलक्ष्मी कहानियां

उस पाॅश काॅलोनी में सबसे खूबसूरत बंगला सविता का ही था। अपनी किस्मत और मेहनत पर गर्व करती सविता सुबह-शाम फुर्सत के लम्हों में पलकों को ऊपर नीचे झपका कर अपना वो खूबसूरत बंगला अक्सर ही निहार लिया करती। कभी लाॅन में बेंत की आराम कुर्सी पर बैठी-बैठी आत्ममुग्ध होती रहती थी। ऐसे ही खुशी और संतोष भरे किसी पल में अचानक एक पत्थर बंगले के गेट पर आकर लगा। चट से उठकर सविता ने यहां-वहां झांका, आखिर कौन हो सकता है।

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मूल्याकंन – गृहलक्ष्मी कहानियां

एक कस्बा था और वहां एक लोकप्रिय नृत्यागंना रहती थी। हालांकि उसका नृत्य उच्च कोटि का तो नहीं था फिर भी होली- दीवाली छठे चैमासे उसको बुलावा आ ही जाता था और वह अपने प्रस्तुति दिया करती थी। नृत्यागंना क्योंकि कस्बे में रहती थी इसलिए उसे हर जगह एक सा ही मानदेय मिलता था। कहीं भी बढ़कर कुछ नहीं।

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घिसटती जिन्दगी – गृहलक्ष्मी कहानियां

गर्मी, सर्दी और बरसात हमेशा उसी रूप में आते रहे जैसे सदियों से चले आ रहे थे मगर सालों से उस औरत की दशा में दिन-प्रतिदिन आए बदलाव को देखकर मैं हैरान रही। हर तीन माह में उसका पागलपन पहले की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता मगर यह कैसा पागलपन था जो सिर्फ तभी दिखाई पड़ता था जब उसके घर में कोई पर्व या उत्सव होता या फिर आसपास के किसी घर में खुशियों का माहौल होता।

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भरवां बैंगन का साहित्य में योगदान – गृहलक्ष्मी कहानियां

अपने यहां व्यंजन साहित्य की बड़ी मांग है और इसमें स्कोप भी बहुत हैं। भरवां बैंगन में किशमिश, काजू और बादाम डाल दो तो शाही भरवां बैंगन हो जाएगा, यानी कि इसी बैंगन से ढ़ाई सौ और बन जाएंगे।

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अगले जन्म मोहे बेटी ही कीजो – गृहलक्ष्मी कहानियां

भला हो सरकार का, सस्ते होने के कारण घर की रजिस्ट्री मेरे नाम, बिजली का मीटर मेरे नाम, बैंक ने गाड़ी के लिए कर्ज दिया तो गाड़ी मेरे नाम।

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दादी की दीदीनुमा हसरत और हरकत – गृहलक्ष्मी कहानियां

पड़ोस वाले घर की दादीजी आजकल नेताओं के मिजाज की मानिंद बदली-बदली सी नजर आ रही हैं। यूं तो जब से उन्हें जाना है, उम्र से दस वर्ष पीछे मगर समय से दस साल आगे की वेशभूषा में नजर आती रही हैं। अभी पिछले ही हफ्ते की बात है। वे गोपगप्पे वाले को अपने दरवाजे […]

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