Hindi Poem: सुहागन स्त्री के दाह सँस्कार से
लौटे पति के सामने पड़ने से
स्त्री अपने जीवन के लिए
अशुभता से न डरी
मन में उसे शुभत्व मान
अपने लिये उस नारी के जैसी
मृत्यु की कामना की
वहीँ पुरुष के दाह सँस्कार के बाद
समाज ने उसकी पत्नी के
दर्शन से भयभीत हो
अपने अशुभ होने की भावना की
सोचा इस विपदा के बाद भी
जी जाना क्या ज़रूरी था?
मूल में फिर भी स्त्री के ही
मरने की कामना थी
बेटा होता तो बचता ,
कन्या थी,सो जी गयी
वरना….
इस वरना में भी उसके जीवन की
कोई कामना न थी
जन्म से लेकर कई पड़ाव
जीवन के पार करती स्त्री की
आवश्यकता तो सदा ही
पग पग पर रही जग को
पर मूल में वही उसके
जन्म न लेने की भावना रही
पुरुष को जन्म देने वाली
नारी और नर में भेद
इतना ही रह गया
नारी पुरुष की सुरक्षा को
कल्पना में भी डरती रही
और नारी के जीवन की कामना
समाज मे गूलर के फूल सी
दुर्लभ ही रही
नागफ़नी सी जीवन की
गर्म रेत में जीवन्त रही
बेहया के फूल सा
उसका जीवन उपेक्षित रहा
समाज के लिये
पर करती रही बेफिक्री से
धरती का सिंगार
हाँ बेहया धरती की सबसे
जिन्दादिल सन्तान है
नारी की तरह
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