Hindi Poem: एक स्त्री की वसीयत
हाँ मर रही थी
वो अंदर ही खाट पर
दुनिया बाहर
उसकी वसीयत पूछ रही थी
वसीयत तो लिखी हुई थी
आकाश पर
दर्द की स्याही से
बचपन उसका
नीम के पेड़ पर बना झूला ही
देख पाया
जवानी कमरें
की दहलीज़ ही देख पाई
उसके खुबानी गालो की
रंगत बढ़ने से पहले ही वो ब्याह दी गई
प्रेम का व्याकरण अधूरा ही रह गया
उसे दूसरे की छत का चाँद बना दिया
उसकी शाहतुती उंगलियो को मसालों की खुशबू से रंग दिया
अब वो सम्पूर्ण स्त्री बनने की और अग्रसर हो गई
लोग कहते थे अब
वो रहस्यमयी औरत बन गई
क्योंकि वो हँसते -हँसते
रोने लगती है और रोते रोते हसने
वो जानती थी पूरा आसमाँ भी उसके दर्द को नहीं लिख पाता
सब कुछ छोड़
एक दिन चली गई
फिर भी उसके घर मे उसकी वसीयत खोजी जा रही है
पीढ़ी दर पीढ़ी…
Also read: कैसी होती है न औरतें-गृहलक्ष्मी की कविता
