रमन बहुत खुश था। उसका प्रोजेक्ट पास हो गया था। इस खुशी में उसने अपनी सहकर्मी को पार्टी देने का मन बना रखा था। उसी की मेहनत का नतीजा था कि वह इतना अच्छा प्रस्तुतिकरण दे सका। इसलिए उसने बेकरी की दुकान से केक खरीदा और होटल के कमरे के अंदर घुसा। ‘अरे काव्या! तुमने तो पार्टी का इंतजाम पहले ही कर रखा है,’ उसने आदमकद शीशे के पास रखी बीयर की बॉटल और नाश्ते की प्लेट की ओर देख कर कहा।

‘सर, आज खुशी का दिन है। इसे सेलिब्रेट किए बिना कैसे रह सकते हैं।’ वह अपने काले मोहक गाऊन को कंधे की ओर खींचते हुए बोली, ‘चलो, कुछ हो जाए।’ कहते हए वह मुस्करा दी। रमन के लिए यह खुला निमंत्रण था। ‘जी, उसका जोश काफूर हो गया। ‘यह लो, पहले केक काटते हैं,’ रमन ने टेबल पर केक रख कर हाथ में चाकू उठा लिया। ‘क्यों नहीं सर,’ कहते हुए काव्या ने केक काटा। फिर रमन की ओर बढ़ी। उसके एक हाथ में केक था दूसरा हाथ रमन के गले पर पहुंच गया था। वह उसके ऊपर झूमते हुए केक खिलाने लगी। गोरा सुंदर चेहरा व उस पर लहराते बालों के बीच उसकी मोहक मुस्कान रमन को घायल कर रही थी। इसलिए वह तुरंत संभला, ‘काव्या, पहले तुम बैठो,’ उसने काव्या का हाथ पकड़ कर बिस्तर पर बैठाया।

‘आखिर तुम चाहती क्या हो?’ रमन के पूछने के पहले ही काव्या ने जवाब दिया, ‘आज की रात सेलिब्रेट करना।’ फिर वह रमन को अपनी ओर खींचने लगी। ‘मगर, मैं ऐसा नहीं चाहता हूं,’ रमन ने दूर हटते हुए दृढ़ता से कहा, ‘औरत-मर्द के बीच यही एक रिश्ता हो, यह जरूरी तो नहीं।’ सुन कर काव्या मौन रह गई। आज उसे पहली बार यह वाक्य सुनने को मिला था। अन्यथा हर सहकर्मी उसे भोगने को तैयार रहता था। उसने कइयों को अपने शरीर में पल रही संपत्ति की वसीयत दी थी। आज रमन की बारी थी। मगर, यह तो नदी के किनारे बैठे हुए भी प्यासा रहना चाहता था। यह सोच कर वह हैरान थी। ‘और कौन सा रिश्ता हो सकता है?’ काव्या ने ‘हूं’ करते हुए अपनी गरदन को झटका दिया। ‘दोस्ती का, इनसानियत का, मानवता का।’ ‘यह किताबों में ही अच्छे लगते हैं साहब।’ वह मायूस होते हुए बोली। रमन ने उसकी योजना पर पानी फेर दिया था। वह चाहती थी कि रमन उसके साथ हमबिस्तरी करे। सुबह आ रहे उसके बॉस के बेटे को भी उसके साथ हमबिस्तरी करने के लिए लाए।

मगर, यहां तो उलटा हो रहा था। वह खुद उससे दूर भाग रहा था। अगर, यही हाल रहा तो वह अपनी वसीयत उसके वारिस के पास कैसे पहुंचा पाएगी। यह सोच कर काव्या चिंतित थी। ‘किसने कहा? यह रिश्ता किताबों में अच्छा लगता है?’ रमन ने काव्या से पूछा, ‘तुम्हारी मां का और तुम्हारा रिश्ता कौन सा था? क्या वह मानवता का नहीं था। हम यहां क्यों बैठे हैं, मानवता के नाते।’ ‘नहीं,’ काव्या ने प्रतिकार किया, ‘मैं आपकी सहकर्मी हूं। आपको मुझसे काम था, इसलिए मुझे लाए हैं। आप अपना काम करिए। इन रिश्तों में क्या रखा है। मैं चाहती हूं कि आप मेरे साथ रहें, इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है। फिर आपको आपत्ति कैसे हो सकती है।’ ‘क्योंकि मैं अपनी पत्नी के साथ बंधा हुआ हूं। उसके साथ बेवफाई नहीं कर सकता हूं।’ यह सुनते ही काव्या रोने लगी। आज पहली बार किसी ने उसके दिल पर चोट की थी। ‘क्या हुआ काव्या?’ ‘कुछ नहीं साहब, आज पहली बार किसी ने मेरे सिद्धांत को चोट पहुंचाई है। अन्यथा सभी लोग मुझे भोगने के लिए ही यहां लाते हैं। ऐसे लोगों से मुझे सख्त नफरत है। वे अपनी पत्नी से बेवफाई करते हैं।’ ‘तुम्हारे साथ ऐसा क्या हुआ?’ रमन ने बड़े

प्यार से पूछा, ‘यदि तुम चाहो तो मुझे बता सकती हो।’ आज पहली बार किसी ने नि:स्वार्थ भाव से पूछा था। उसके मन में बंधा भावना का बांध टूट पड़ा।

 ‘मेरी मां बहुत गरीब थी। पिता बचपन में मर गए थे। मां ने बड़े साहब के यहां चौके-चूल्हे का काम करके मुझे पढ़ाया था।’ काव्या बताने लगी, ‘मगर नियति को कुछ और मंजूर था।’ ‘मां को टीबी हो गई। वह काम करने लायक नहीं रही। मां का इलाज करवाना था। मैं बड़े साहब से मिली, उन्होंने कहा कि वे मेरी मदद कर सकते हैं। बदले में उसे काम करना पड़ेगा।’ ‘क्या काम है साहब?’ मैंने बड़े साहब से पूछा। ‘तुम्हें तुम्हारी मां की जगह काम करना पड़ेगा।’

‘जी साहब।’ ‘मगर साहब, मुझे कुछ रुपये एडवांस में चाहिए। मेरी मां बीमार है, उनका इलाज करवाना है। ‘तो आओ, ले जाओ। मगर, एक काम दोगी तो ठीक रहेगा। मेरा शरीर बहुत दुख रहा है, तुम मालिश कर दो तो अच्छा रहेगा।’ वे तत्काल बोले, ‘यह जबरदस्ती नहीं है, यदि तुम न चाहो तो न करो।’ मैं असमंजस में पड़ गई। क्या करूं, क्या न करूं। तब साहब बोले, ‘अरे! इसमें चिंता की कौन सी बात है। तुम यह पैसे लो और जाओ। यह काम मैं रामू से करवा लूंगा।’ उन्होंने सहज भाव से कहा। धीरे-धीरे साहब की ऐसी बातों ने मेरा दिल जीत लिया। मैं उनके यहां काम करने लगी। साहब मुझे अच्छा रखते थे। सब चीजें देते थे, मैं अब उनसे घुलमिल गई थी। उन्होंने मुझे हर चीज, खाने पीने की आजादी दे रखी थी।

एक दिन मेरा जी घबरा रहा था। फ्रिज में शीतल पेय की बोतलें रखी थीं। मैं उसमें से एक निकाल कर पी गई। मुझे नशा हो गया। संभल नहीं पाई, वहीं गिर गई। साहब ने उठा कर बिस्तर पर सुला दिया। मैं उठी तो रात के 12 बज रहे थे। मुझे घर  जाना था साहब को उठाया, वे नशे में थे। नहीं उठे, मैंने झकझोरा तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैंने छुड़ाना चाहा, मगर उन्होंने नहीं छोड़ा। फिर सब कुछ हो गया, जो नहीं होना था। सुबह मैं घर गई। मां की तबीयत ज्यादा खराब हो गई थी। वह चली गई, मैं अकेली रह गई। इस गम में मेरी भी तबीयत खराब हो गई। डॉक्टर के पास गई, उन्होंने खून की जांच लिख दी, जिससे पता चला कि मुझे एचआईवी पॉजिटिव है, सुनकर मेरी दुनिया उजड़ गई। यह साहब की दी हुई वसीयत थी। उन्होंने अपनी बीवी के साथ धोखा किया। उनके रहते हुए मुझसे संबंध बनाए। ‘मुझे भी बीमारी दे दी।’ कहते हुए काव्या रुकी।

फिर मैं एड्स ग्रुप की एक सदस्या के संपर्क में आई। उनका नारा था ‘वसीयत बांटते चलो।’ बस उसी की प्रेरणा से मैं यह वसीयत बांट रही हूं। कह कर काव्या चुप हो गई। रमन कुछ नहीं बोला। वह काव्या की दास्तां सुन कर चकित रह गया। उसने केवल काव्या के सिर पर हाथ रख दिया। उसका कोमल स्नेह पा कर काव्या रो पड़ी। ‘बस उसी का बदला लेने के लिए मैंने कई व्यक्तियों से संपर्क किया, जो जरा सा ललचाता उसे अपना दोस्त बनाती। अपने साथ होटल में लाती। उसके पैसे से ऐश करती और उसे यह उपहार दे देती। वे यह वसीयत पा कर खुश हो जाते।’

पता चला कि मुझे एचआईवी पॉजिटिव है, सुनकर मेरी दुनिया उजड़ गई। यह साहब की दी हुई वसीयत थी। उन्होंने अपनी बीवी के साथ धोखा किया। उनके रहते हुए मुझसे संबंध बनाए। मुझे भी बीमारी दे दी।ज् कहते हुए काव्या रुकी।फिर मैं एड्स ग्रुप की एक सदस्या के संपर्क में आई। उनका नारा था च्वसीयत बांटते चलो।ज् बस उसी की प्रेरणा से मैं यह वसीयत बांट रही हूं। कह कर काव्या चुप हो गई।

‘मगर तुमने ऐसा करके अच्छा नहीं किया है? जानती हो क्यो?’ रमन ने पूछा, जब काव्या ने कोई जवाब नहीं दिया तो रमन ने कहा, ‘तुम्हारी इस हरकत से तुम जैसी न जाने कितनी औरतें तबाह हो रही हैं, शायद तुम्हें यह पता नहीं है?’ यह तथ्य काव्या के लिए चौंकाने वाला था। उसने इस दिशा में कभी सोचा नहीं था। वह तो केवल लालची पुरुषों से संपर्क करती थी, ताकि उन्हें अपनी किए की सजा मिल सके। ‘वह कैसे?’ ‘तुम जानती हो कि जिस आदमी से तुम संपर्क करती हो उसकी बीवी का कोई दोष नहीं होता, लेकिन बाद में वह अपने पति से यह बीमारी ले लेती है। इस तरह तुम अपनी जैसी न जाने कितनी लड़कियों व औरतों की जिंदगी बरबाद कर रही हो।’

सुन कर काव्या सन्न रह गई। उसने तो इस विषय में सोचा भी नहीं था। वह चुप हो गई। कुछ देर बाद उसने कहा,

‘अब बस, मैं कल से यह काम छोड़ दूंगी।’ ‘क्यों?’ रमन ने चौंकते हुए पूछा, ‘आज से क्यों नहीं?’ ‘क्योंकि मुझे सुबह बाप की वसीयत बेटे को सौंपनी है। यह वसीयत असली वारिस के पास पहुंच जाए तो ठीक रहे।’ ‘तुम यह एक और गलती कर रही हो काव्या।’ ‘यह गलती नहीं, परंपरा है। माता-पिता के हर अच्छे-बुरे कर्मों का फल बेटे को भुगतना पड़ता है। यह बात आप अच्छी तरह जानते हैं,’ कहते हुए काव्या होटल के कमरे से बाहर निकल गई। रमन ने उसे रोकना चाहा कि काव्या उसकी बात सुन ले मगर, वह सुनने को तैयार नहीं थी। बस उसकी तो एक ही जिद थी कि उसे अपनी वसीयत असली वारिस तक पहुंचानी है, इसलिए रमन कुछ न कर सका। वह केवल काव्या को जाते हुए देखता रहा।

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