neelkanth by gulshan nanda
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आकाश और अंधकार वियोग के आँसू बहा रहे थे। पौ फटने में चंद ही क्षण शेष थे। ठंडी हवा खिड़की के पर्दों से खेलती हुई कमरे में प्रवेश कर रही थी।

बेला को जागे हुए समय हो गया था। दिन-रात लेटे रहना, भूख का अभाव तो नींद क्या करे-वह कब से उजाले और अंधेरे का खेल देख रही थी-उजाले के आंगन की प्रतीक्षा करते-करते उसकी आँखें पथरा गई थीं और उजाला था कि धीरे-धीरे अठखेलियाँ लेता हुआ आ रहा था।

नीलकंठ नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

उसने दृष्टि घुमाकर बराबर वाले पलंग पर देखा। आनन्द अभी तक मीठी निद्रा में सो रहा था। साथ वाले कमरे में संध्या के गुनगुनाने की आवाज आ रही थी। आज न जाने दीदी की आवाज उसे इतनी मीठी क्यों लग रही थी, जैसे उसके कानों में कोई शहद की बूँदें टपका रहा हो।

गुनगुनाहट समीप आई और बेला ने जान-बूझकर आँखें बंद कर लीं। वह जानती थी कि रोज की भांति अब वह उसके कमरे में आएगी, इतने में संध्या ने गुनगुनाते हुए प्रवेश किया-प्रभात की सुगंधित मस्त पवन के समान।

बेला चोर-दृष्टि से उसे देखने लगी। आते ही उसने कमरे की खिड़की खोल दी, जिससे उजाला हो गया। वह आनन्द के तकिए के पास आकर खड़ी हो गई। बेला के मन में एक चुभन-सी अनुभव हुई। दीदी की यही बात उसे भाती न थी। वह उसे आनन्द की ओर झुके देखकर खौलने-सी लगती, डाह जागृत हो उठती।

आनन्द के सिर पर झुककर उसके बालों को खुजलाते हुए संध्या ने कहा-‘उठिए, सवेरा कब का हो चुका।’

‘उहूं-ओह!’ आँखें मलते हुए आनन्द ने जम्हाई ली और अंगड़ाई लेते हुए बोला-‘तुम घर में हो तो घड़ी के अलार्म की आवश्यकता नहीं।’ दोनों ने सामने रखी घड़ी को देखा, जो ठीक छह बजा रही थी। हर दिन सवेरे छह बजे संध्या आनन्द को बिस्तर छोड़ने का आदेश सुनाने आती और वह झट उठ बैठता था।

आनन्द ने मुँह फेरकर बेला की ओर देखा। उसने झट से आँखें बंद कर लीं, मानो गहरी नींद में सो रही हो।

‘तुम्हारी लाड़ली अभी तक सो रही है क्या?’ आनन्द ने हँसते हुए संध्या से पूछा।

‘जी, बेचारी के यही दिन तो सोने के हैं। नन्हें राजा आ गए तो रात-भर की नींद हराम हो जाएगी। लाड़ली को कभी च्याऊँ-कभी म्याऊँ-कभी दूध तो कभी आधी रात को गोद में उठाकर चहलकदमी करवाएगा।’

संध्या की बात सुनकर आनन्द खिलखिलाकर हँस पड़ा और उसे हँसते देखकर संध्या भी हँस दी। दोनों की हँसी बेला को अच्छी न लगी और उसने नाक सिकोड़कर पहलू बदल लिया।

आनन्द ने उसे पहलू बदलते देखा तो झट से बोला-‘कट गई रैन अभी, पहलू बदल-बदल।’ बेला ने फिर करवट ली।

‘तो मेम साहिबा कबूतर के समान आँखें बंद करके हमारी बातें सुन रही थीं।’ आनन्द ने उसकी ओर देखकर छेड़ते हुए कहा।

‘जी कबूतरी के समान, आपके समान बगुला भगत तो नहीं।’ बेला आँखें मलते हुए बोली।

‘सवेरे-सवेरे की नोक-झोक।’ संध्या आनन्द पर बिगड़ते हुए बोली, ‘जाइए, तैयार हो जाइए।’

नाश्ता तैयार करके आनन्द कारखाने चला गया। जाते समय वह एक मिनट के लिए बेला के पास रुका और ‘अच्छा, बाय-बाय बेला, शाम को मिलेंगे।’ कहकर बिना उत्तर लिए काम पर चल दिया। संध्या उसे छोड़ने के लिए बरामदे तक आई।

कमरे में फिर निस्तब्धता छा गई। संध्या अपने काम में लग गई। बाहर से ठंडी हवा के झोंके आते रहे, कारखाना चलने लगा और मशीनों की गड़गड़ाहट का शोर होने लगा। हल्की-सी मटमैली कुहर के लच्छे शून्य में लटके हुए थे।

प्रतिदिन एक ही कार्यक्रम-आज पूरे चार महीने से एक ही कमरे में बैठे-बैठे बेला का जी उकता गया था। उसके जीवन में कोई परिवर्तन न था-वही लोग-वही आवाजें-वही नियम में बंधा घुटा-घुटा जीवन-वही द्वेष और डाह की जलन, जिसे सहते-सहते वह अनुभव की शक्ति खोए जा रही थी। अब वह इन सबकी अभ्यस्त हो गई थी।

उसका शरीर दिन-प्रतिदिन भद्दा होता जा रहा था। पेट और हाथ-पाँव में सूजन बढ़ती जा रही थी। कभी-कभी जब वह अपने चेहरे को दर्पण में देख लेती तो कांप जाती और इस आपत्ति से छुटकारा पाने को बेचैन हो उठती। प्रकृति के सम्मुख वह बेबस थी।

उसकी फिल्म सपेरन एक महीने से देश भर में बड़ी सफलता से दिखाई जा रही थी। पत्रिकाओं में अपनी प्रशंसा देखकर उसका मन बल्लियों उछलने लगता। उसने उसे देखने के लिए अनुरोध किया, परंतु डॉक्टर ने आज्ञा न दी।

डॉक्टर तो शायद अनुमति दे देता, परंतु ये लोग बेला का कहीं भी जाना पसंद नहीं करते थे। उसे धैर्य, सहनशीलता की शिक्षा देना चाहते थे।

एक दिन मिलने वालों में सेठ साहब भी आए। वह बेला के कारण लाखों रुपये कमा रहे थे और उन्होंने दस हजार का एक चेक उपहार में बेला को दिया। सेठ साहब ने अपनी दूसरी फिल्म का कांट्रेक्ट भी पेश किया। बेला ने आनन्द की ओर देखा। आनन्द के भावों से प्रकट हो रहा था कि वह इसके पक्ष में नहीं। बेला ने परिस्थितियों को देखते हुए सेठ साहब की बात रखते हुए कहा-

‘कल क्या होगा कौन जाने, यदि जीवित रही तो आपकी सेवा करूँगी।’

‘वचन रहा।’-सेठ साहब झट बोले।

‘वचन…अभी नहीं, जीवित रही तो बात करूँगी। अभी से क्या कह सकती हूँ।’

‘तुम बच्चों की-सी बातें करती हो, यह कोई बड़ी आपत्ति तो नहीं। सेठानी को ही देखो, दस बच्चे होते हुए भी जी नहीं भरा।’

सेठ जी की यह बात सुनकर सब जोर से हँसने लगे। बेला ने लज्जा से आँखें नीची कर लीं।

सबके चले जाने पर फिर कमरे में सन्नाटा छा गया। अकेले में अपने भविष्य के विषय में सोचने लगी-एक ओर रंगीन दुनिया, झंकार पर नाचते पांव, नाम, धन और प्रशंसा-और दूसरी ओर केवल आनन्द का प्रेम, घर-गृहस्थी के झगड़े, बच्चे की चिन्ता और फिर आनन्द तथा संध्या का लगाव; संध्या उसके जीवन के साथ घुन के समान लगी हुई; जब से संध्या ने अपना काम-काज उसके सुपुर्द किया; वह सदा के लिए उसके उपकारों के नीचे दब गया था।

सत्य भी यही था। संध्या के बिना आनन्द का जीवन दूभर हो जाता। उसने फिर उसे मानवता के मार्ग पर ला खड़ा किया था। उसे बेला पर दया आती, जो वास्तविकता को न समझते हुए उससे दूर थी। वह संध्या से क्यों नहीं सीखती, अपना स्वभाव बदलने का प्रयत्न क्यों नहीं करती, ये बातें उसे प्रायः दुखी करतीं।

संध्या भीतर आई और बेला को दवाई देने लगी। बेला ने कड़ी दृष्टि से उसे यों देखा, जैसे कैदी जेलर को देखता है, उससे घृणा करता है, फिर भी उसका कहा मानता है।

संध्या ने बेला की भावनाओं को पढ़ने का प्रयत्न करते हुए कहा-‘कड़वी दवा का असर मीठा होता है।’

‘रहने दो दीदी, तुम्हारे दिन-रात के भाषण सुन-सुनकर तो मैं पागल हो जाऊँगी।’

‘क्या करूँ, विवश हूँ, बड़ी जो ठहरी। ऐसी दशा में मैं तुम्हारा ध्यान न रखूँ तो कौन रखे।’ होंठों को सिकोड़ते हुए संध्या ने उत्तर दिया।

‘हूँ! बड़ी बूढ़ी जो ठहरीं।’ बेला बड़बड़ाई।

संध्या ने उत्तर नहीं दिया और चुपचाप कमरे की बिखरी चीजों को उनके स्थान पर रखने लगी। नौकर गर्म पानी दे गया। संध्या ने सहारा देकर बेला को बिस्तर पर बिठा दिया और पानी में कोई पाउडर मिलाकर उसके पाँव धोने लगी।

‘दीदी!’

‘हूँ!’ संध्या उसके पाँव धोते हुए बोली।

‘सब दवाइयाँ तो मेज पर रखी हैं, परंतु यह दवाई तुमने अलमारी से क्यों निकाली?’

‘यह दवाई नहीं जहर है, देखो पुड़िया पर लिखा है-Poison not to be taken. कहीं पीने की दवाई में भूल से मिल जाए तो भगवान ही रक्षक है।’

‘तुम्हें क्या, दे भी दो तो प्राण तो रोगी के ही जाएंगे।’

‘हट पगली, कैसी बातें करती है।’

‘सच दीदी, जीना दूभर हो चुका है। सोचती हूँ ऐसी नींद आ जाए कि फिर न उठूँ।’

‘अभी तुम्हें बहुत जीना है, कितनी ही सुहावनी घड़ियाँ तुम दोनों की प्रतीक्षा कर रही हैं।’

‘दीदी!’

‘क्या?’

‘अच्छा, रहने दो।’

‘क्या रहने दो? जो मन में आया है, जबान से कह दो।’

‘एक बात पूछूँ तुमसे।’

‘एक नहीं, दो।’

‘तुम उनसे कितना प्रेम करती हो?’

‘कोई तोल होता तो नाप देती, जबान से क्या कह सकती हूँ।’

‘फिर भी।’

‘तू यों समझ, जितना प्रेम तुम्हें उनसे है, उससे अधिक।’

संध्या ने उत्तर ऐसा दिया, जो बेला के मन को छेद-सा गया। जिसके मन से डाह की गंध अभी न गई थी। संध्या यह भांप गई और मुस्कराते हुए बोली-‘किंतु बहुत अंतर है तुम्हारे और मेरे प्रेम में।’

बेला ने बेचैन दृष्टि से उसकी ओर देखा।

संध्या ने क्षण-भर रुककर स्नेह से उसकी ओर देखते हुए फिर कहना आरंभ किया- ‘तुम्हारे प्रेम में द्वेष, डाह, भ्रम, झूठा सम्मान और वासना है, किंतु मैंने अपने प्रेम की रक्षा के लिए उस फुलवारी को मन के लहू, मान और बलिदान से सींचा है। तुमने अपनी चंचलता से उनका शरीर खरीदा है और मैंने मन का मूल्य पाया है। यदि तुम भी उनके मन पर अधिकार पाना चाहती हो तो प्रेम का यही मार्ग अपनाओ। स्वयं को मिटाकर उनको उठाओ, उन्हीं की उन्नति में तुम्हारा मान है और उनकी अवनति में तुम्हारा अपमान।’

संध्या कहते-कहते एकाएक चुप हो गई, उसके होंठ अभी तक कांप रहे थे, जैसे वह मन में छिपी सब भावनाओं को उजागर कर देना चाहती हो, उसने अधिकार से काम लिया। ऐसी दशा में उसे बेला को चिंतित न करना चाहिए। उसने देखा, बेला के माथे पर पसीना फूट-फूटकर पानी बन रहा था। वह थोड़ा-सा और उसके निकट होकर बड़ी नम्रता से बोली-‘अब लेट जाओ।’

बेला बिस्तर पर लेट गई और संध्या चिलमची का गंदा पानी फेंकने बाहर चली गई। बेला दीदी की इन बातों से जल गई थी। वह उस कमरे की हर वस्तु को घृणा से देखने लगी, जिसके कण-कण में संध्या और आनन्द के प्रेम की कहानी छिपी थी।

नीलकंठ-भाग-34 दिनांक 30 Mar.2022 समय 10:00 बजे रात प्रकाशित होगा ।

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