और आखिर मिर्ची रानी ने लिखा वह नाटक, जिसकी चर्चा बैंगन राजा ने की थी, और इतनी खूबसूरती से लिखा कि उसका कोई जवाब नहीं। पर उसके लिए कितनी मेहनत उन्हें करनी पड़ी, इसे तो वे ही जानती हैं। या फिर उनके प्यारे दोस्त और सहयोगी मि. करौंदाकुमार और चुकंदरसिंह इसके बारे में बता सकते हैं, जो मिर्ची रानी के कहने पर रात हो या दिन, हर वक्त दौड़-भाग करने के लिए तैयार रहते हैं।
इस नाटक में भी उन्हें इतनी भागदौड़ करनी पड़ी कि आज तक उनकी थकान नहीं मिट पाई।
यों यह नाटक लिखने से पहले मिर्ची रानी ने बैंगन राजा और आलूराम के सारे मित्रों और सहयोगियों के इंटरव्यू लिए, ताकि अंदर की बात पता चल सके। फिर खुद जाकर बैंगन राजा और आलूराम से मिलीं।
इस बारे में आम जनता के क्या विचार हैं, यह जानने की ड्यूटी उन्होंने लगाई अपने खास सहयोगियों करौंदाकुमार और चुकंदरसिंह की। और सचमुच उन्होंने घर-घर जाकर लोगों से मिलकर बात की और बहुत कुछ जान लिया। उन्होंने सबसे यह सवाल पूछा, “आपने इतने समय तक सब कुछ देखा है। बताइए कि दोनों में से किसकी गलती है और किसे आप ठीक समझते हैं?”
इस पर ज्यादातर लोगों ने बेखटके कहा, “देखो जी, आलू का सिर थोड़ा फिर गया है। इसीलिए यह सारा गड़बड़झाला हुआ। वरना तो हमारे बैंगन राजा इतने अच्छे हैं कि कुछ पूछो ही मत।”
हालाँकि कुछ लोगों ने आलूराम की भी तारीफ की। बोले, “आलूराम ने इतनी मदद की है बैंगन राजा की कि उसी के कारण सब्जीपुर में सारी व्यवस्था और कामकाज ठीक चल रहा है। पर इधर लगता है, कुछ लोगों ने उसे जरूरत से ज्यादा भड़का दिया। इसी का नतीजा है कि उसका सिर फिर गया और वह भूल गया कि सब्जीपुर की जनता अपने प्यारे बैंगन राजा पर किस कदर जान छिड़कती है।”
परवलचंद ने थोड़ा तैश में आकर कहा, “इसके लिए साफ तौर से बैंगन राजा की सिधाई और ढिलाई जिम्मेदार है। उन्हें शुरू से ही आलू दा पर लगाम कसनी चाहिए थी। तब उन्हें यह दिन न देखना पड़ता।”
और मिर्ची रानी इतनी होशियार कि उन्होंने लोगों की हर बात को डायरी में नोट किया और फिर नाटक में जगह-जगह ऐसा काँटे का इस्तेमाल किया कि लोग फड़क उठे।
बीच-बीच में वे पुदीना दीदी की संगीतशाला में अपने नाटक के कुछ हिस्से सुनातीं। सुनकर लोग खूब तारीफ करते, “वाह-वाह मिर्ची रानी, तुमने तो अपनी साहित्य-कला का पूरा रस निचोड़ दिया।”
यहाँ तक कि एक बार तो पुदीना दीदी ने आलू-बैंगन दोनों को विशेष मेहमान के रूप में बुलाकर मिर्ची रानी के नाटक के कुछ खास हिस्सों को बड़े संगीतमय ढंग से प्रस्तुत किया। मजे की बात यह है कि दोनों ने ही नाटक का खूब आनंद लिया। मानो यह नाटक उनके नहीं, किसी और के झगड़े-टंटे के बारे में लिखा गया हो।
अब तो नाटक को संगीत में ढालने की पुदीना दीदी की मुहिम पूरे जोरों पर थी। इस बीच बहुत सी नई-नई बातें उन्हें पता चलीं, और उन्हें भी पुदीना दीदी ने बड़े खूबसूरत अंदाज में नाटक में पिरो लिया।
फिर एक दिन सब्जीपुर के एक बूढ़े शख्स दादा कंदमूल बिहारी ने मिर्ची रानी को सुनाई एक पुरानी, बहुत पुरानी कहानी। बोले, “सुनो मिर्ची बिटिया, अब तुम जानना ही चाहती हो, तो मैं बताता हूँ तुम्हें कि आलूराम हमारे सब्जीपुर में कब और कैसे आए?”
सुनते ही मिर्ची रानी तो मारे खुशी के जैसे उछल पड़ीं। बोलीं, “बताइए, बताइए!”
“अजी, हमें तो अच्छी तरह याद है। तब हम छोटे से थे, उन्हीं दिनों की बात है यह।”
बूढ़े बाबा कंदमूल बिहारी सुना रहे थे कहानी। और कहानी भी ऐसी कि उसके हर तार में से तार निकलते थे। मिर्ची रानी ठोड़ी पर हाथ रखकर सुन रही थीं बूढ़े पुरनिया बाबा की यह कहानी—
पुराने समय की बात है, सब्जीपुर के महान राजा बैंगनुल्ला शाह का दरबार लगा हुआ था। सभा में सब्जीपुर की भलाई के लिए नई-नई योजनाएँ बनाने के लिए चर्चा हो रही थी। तभी एक गोरे-गोरे से गोल-मोल आलू ने राजा के दरबार में आकर कहा कि मैं सब्जीपुर में आना चाहता हूँ।
“तुम कौन हो जी और क्यों आना चाहते हो?” राजा बैंगनुल्ला शाह ने विचित्र शक्ल वाले उस मेहमान को देखकर अचरज से पूछा।
“बात यह है महाराज कि मैं अलूनीपुर का निवासी हूँ। पर अलूनी राज्य में मेरी कद्र नहीं है, इसलिए मेरा जी वहाँ से उचट गया। दुखी होकर मैं वहाँ से चल दिया, ताकि जंगल में कहीं एक कोने में बैठकर गुजारा कर लूँ। पर चलते-चलते अचानक बीच में सब्जीपुर आ गया। और इस सब्जीपुर में कदम पड़े, तो खुद-ब-खुद ठहर से गए। सच में महाराज, आपका सब्जीपुर इतना सुंदर और हरा-भरा है कि जी चाहता है कि हमेशा के लिए यहाँ रहूँ।”
“ठीक है, आलू भाई, तुम यहाँ रह सकते हो, मगर सब्जीपुर के लोग तुम्हें स्वीकार करें तो!”
“कैसे नहीं करेंगे, महाराज? आप राजा हैं तो प्रजा की भला क्या मजाल जो कि…?” आलू को हैरानी हुई।
“नहीं भाई आलूराम, आप गलती कर रहे हैं। आपको शायद गलतफहमी हुई है कि सब्जीपुर को मैं चलाता हूँ। कतई नहीं, आलू भाई, कतई नहीं। तुम सब्जीपुर को समझे नहीं। यहाँ तो लोकतंत्र है, यानी जनता का शासन। सब्जीपुर का राजा मैं नहीं, यहाँ की जनता है। मैं तो बस तभी तक हूँ, जब तक यहाँ की जनता मानती है। नहीं तो मैं एक पल के लिए भी राजा नहीं रह सकता और न रहना ही चाहूँगा।”
सुनते ही आलू आँखें मलने लगा। ऐसी अनोखी बात उसने पूरी जिंदगी में शायद पहली बार ही सुनी थी।
“तो…?” आलू ने चिंतित होकर कहा, “फिर मेरा क्या होगा?”
“वही जो कि जनता चाहेगी।” राजा बैंगनुल्ला शाह मुसकराकर बोले।
“और जनता ने नहीं चाहा तो…?”
“तो फिर नहीं। सब्जीपुर में आपको ठिकाना नहीं मिलेगा।”
“ओह!” कहते हुए आलू ने लंबी साँस ली और कहा, “भला जनता मुझे क्यों चाहेगी?”
“क्यों जी, भला जनता तुम्हें क्यों नहीं चाहेगी?” बैंगनुल्ला शाह ने उलटकर पूछ लिया।
“इसलिए मैं औरों से इतना अलग जो हूँ। वे मुझे अपने बीच का भाई-बंधु समझेंगे ही नहीं। और फिर वे कैसे जानेंगे कि मुझमें क्या-क्या गुण और खासियतें हैं?” आलू ने बुझे हुए चेहरे से कहा।
“तो तुम हमें बताओ अपने गुण और सारी खासियतें। हम तुम्हारे गुणों की पूरी फेहरिस्त जनता को पढ़कर सुनाएँगे। फिर पूछेंगे कि इन आलू जी को सब्जीपुर में बसने की इजाजत दी जाए कि नहीं?”
और फिर जैसा राजा बैंगनुल्ला शाह ने कहा था, वैसा ही हुआ। आलू के सारे गुणों की फेहरिस्त पढ़ी गई एक विशाल सभा में। उसमें खुद राजा बैंगनुल्ला शाह मौजूद थे। हालाँकि आलू को देखकर पहली दफा में तो सब्जीपुर के निवासियों का करीब-करीब वही रवैया रहा, जिसके बारे में आलू कह चुका था।
लोगों ने आलू का चेहरा अच्छी तरह गौर से देखा। उसके बारे में जो कहा गया, वह भी ध्यान से सुना। पर किसी ने कुछ कहा नहीं। थोड़ी देर तक बस चुप्पी ही छाई रही। फिर एक-एक कर लोग बोले, “अजब है, बड़ा ही अजीबोगरीब!”
“यह बेचारा सब्जी तो कहीं से लगता ही नहीं।” टिंडामल आँखें सिकोड़कर गौर से आलू को देखते हुए बोल रहे थे। टमाटरलाल का भी यही कहना था।
और गाजरदेवी, मिर्ची रानी और धनिया चाची तो बस उसे देख-देखकर हँस रही थीं। उनकी हँसी बंद होने में ही नहीं आ रही थी।
“तो अब क्या किया जाए? बताइए आप लोग। क्या इन्हें सब्जीपुर से वापस भेज दिया जाए?” राजा बैंगनुल्ला शाह ने पूछा।
इस पर फिर फुस-फुस शुरू हो गई। बूढ़े कटहल दादा ने उठकर कहा, “हम सबके प्यारे शाह, मैं तो बचपन से यही सुनता आया हूँ कि सब्जीपुर तो खाली सब्जियों के लिए है। अगर यह आलू भी सब्जी होता, तो इसे हम जरूर साथ रखते।”
“पर मैं तो सब्जी ही हूँ। हर हाल में हूँ। औरों से भले ही अलग होऊँ, पर हूँ तो सब्जी ही।” आलू ने बड़ी दीनता से कहा।
“पर हमें तो नहीं लगता।” कई लोगों ने एक साथ मिलकर ऊँची आवाज में उनकी बातों का विरोध किया।
“हाँ-हाँ, देखने से तो नहीं लगता।” सब्जीपुर के बड़े-बुजुर्ग भी गरदन हिलाकर यही बात दोहरा रहे थे।
“तो चलो, हम अपने शाकपाती वाले से कहेंगे कि वह इस आलू को इनसानों की बस्ती में ले जाए। देखें, आदमी लोग भी इसे सब्जी मानते हैं या नहीं?”
“लेकिन अगर लोगों ने इनकार कर दिया तो?” आलू ने बहुत डरकर घिघियाते हुए कहा।
“ठीक है, वह भी देखेंगे।” राजा बैंगनुल्ला शाह मुसकराते हुए बोले।
और फिर सचमुच एक दिन जब शाकपाती वाला सब्जियों को आदमी लोगों की बस्ती में ले गया, तो उसके ठेले पर और सब्जियों के साथ-साथ एक कोने में दबा-झिझका आलू भी पड़ा था।
पर उसे देखते ही लोगों ने नाक-भौंह सिकोड़ना शुरू कर दिया।
“ना-ना, यह क्या ले आए? सब्जी होती तो ले लेते।” लोग अपनी खीज प्रकट करते हुए कह रहे थे।
“इसमें गुण बहुत हैं, बड़ी ताकत भी है।” शाकपाती वाला बता रहा था।
“यह सब तो बाद की चीज है भाई। पर पहले यह सब्जी जैसा हो तो। यह तो कहीं से भी सब्जी नहीं लगता।” ऊँचे जूड़े वाली एक स्त्री ने साफ-साफ कह दिया।
इस पर पास खड़ी दूसरी स्त्री बोली, मुझे तो इसकी शक्ल ही पसंद नहीं है। देखो तो, ऊपर से नीचे तक बस गोलमोल है।
सुनकर ठेले के आसपास खड़ी सब स्त्रियाँ हँसने लगीं।
बात राजा बैंगनुल्ला शाह तक भी पहुँची। सुनकर वे थोड़े दुखी हुए। अति उत्साही और खुशदिल आलू को अब वे पसंद करने लगे थे और उसे सब्जीपुर में बसाने का उन्होंने पूरी तरह मन बना लिया था। पर बिना प्रजा की मर्जी के भला वे क्या करें? ऐसा तो वे सोच भी नहीं सकते थे। पर इस बीच एक अच्छी बात यह हुई कि धीरे-धीरे आलू की दोस्ती और सब्जियों के साथ होने लगी थी। खासकर कटहलराम और टमाटरलाल ने उसे खासा पसंद किया था। आलू के और गुण भी अब धीरे-धीरे लोगों को पता चलने लगे थे। मिल-जुलकर रहने में ही फायदा है, यह भी उन्हें पता चल गया था।
सबसे पहले परवलचंद ने आगे हाथ बढ़ाते हुए कहा, “वाह, अच्छी दोस्ती हुई। उम्मीद है कि यह लंबी चलेगी।”
कटहलराम ने आलू को हाथों में उठाकर हँसते हुए अपना विचित्र गोल-गोल नाच शुरू किया, तो आलू और कटहल की दोस्ती पर पक्की मुहर लग गई। और फिर आलू की बाकी सब्जियों से दोस्ती का भी रास्ता खुल गया।
तो फिर आलू को सब्जीपुर में बसाने का तरीका क्या हो? उसके दोस्त इस बारे में सोच-विचार करने लगे थे। और यही समस्या राजा बैंगनुल्ला शाह की भी थी। वे चाहते थे कि लोग खुद ब खुद आलू को परखें और उसकी खूबियों को समझें। फिर तो कोई मुश्किल रह नहीं जाएगी।
आखिर कुछ सोचकर राजा बैंगनुल्ला शाह ने आदेश दिया कि उनके विशाल शाही खेत के आधे हिस्से में इस बार सिर्फ आलू बोए जाएँ।
लोगों ने सुना तो उन्हें बड़ा अचंभा हुआ, “अरे, यह क्या? इतने आलू ही आलू। और उस पर राजा बैंगनुल्ला शाह के सैनिकों का इतना सख्त पहरा!”
पर मजे की बात यह है कि जहाँ दिन में इतना सख्त पहरा रहता, वहाँ रात को पहरा बिल्कुल हटा दिया जाता।
“राजा बैंगनुल्ला शाह का क्या है खास राजसी भोजन…?” लोगों में गहरी उत्सुकता थी, “क्या आलू…?”
‘जरूर आलू में कोई न कोई खास बात है!’ लोग सोचते। और जो भी आलू को चखता, वह कहे बगैर न रहता कि “थोड़ा-थोड़ा स्वाद तो है इसमें अजब सा। औरों से अलग है, मगर कुछ है तो।”
तो यों धीरे-धीरे कुछ बात बनी और आलू का रास्ता बनता चला गया।
“ओहो, हमने पहचानने में कितनी भारी गलती की…?” धीरे-धीरे लोग एक-दूसरे से कहने लगे। अब वे जमकर आलू की तारीफ करते। उसके बाद तो आलू चल निकला। और चला क्या, दौड़ने लगा!
आलू की यह दिलचस्प कहानी सुनकर मिर्ची रानी तो रोमांचित थीं ही, उनके पास बैठी पुदीना दीदी मगन होकर बोलीं, “चाहे जो हो, यह तो मैं इस नाटक में जरूर डालूँगी।”
इसी तरह नाटक के और भी हिस्से लिखे जा रहे थे। सदियों से चलती आई बैंगन राजा की राजशाही की भी इसमें बड़ी सुंदर झलक थी। फिर धीरे-धीरे बैंगन राजा की उदारता के भी तमाम किस्से जुड़ते चले गए।
उन रहमदिल और प्यारे इनसानों की भी बात कही गई, जो सब्जियों को प्यार करते हैं और इससे जीवन में हँसी-खुशी के नए रंग भरते हैं। यों आदमी और सब्जीपुर की दोस्ती की लंबी गाथा भी धीरे-धीरे इस अनोखे नाटक का हिस्सा बनती चली गई।
लोग सोच-सोचकर आनंदित थे कि पुदीना दीदी इस सबको अपने सुंदर और मनोरम संगीत में निबद्ध करेंगी, तब सचमुच कितना आनंद आएगा।
फिर फलों का भी किस्सा चला, और वह भी कम दिलचस्प न था। और तब चल निकला किस्से में किस्सा!
ये उपन्यास ‘बच्चों के 7 रोचक उपन्यास’ किताब से ली गई है, इसकी और उपन्यास पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Bachchon Ke Saat Rochak Upanyaas (बच्चों के 7 रोचक उपन्यास)
