Toddlers Child Care: अक्सर माना जाता है कि किसी व्यक्ति के खुशहाल जीवन की नींव उसके बचपन पर निर्भर करती है चाहें वह शारीरिक स्तर पर हो या मानसिक स्तर पर। बच्चों में यह नींव डालने के पीछे मुख्य हाथ होता है उनके माता-पिता और घर के माहौल का। जन्म से लेकर बड़े होने तक माता-पिता बच्चों की अच्छे से देखभाल करते हैं और उन्हें एक स्वस्थ जीवन देने का हर प्रयास करते हैं। माता पिता बच्चे के व्यक्तित्व के समुचित विकास में एक शिक्षक, काउंसलर, दोस्त और प्रेरणास्त्रोत साबित होते हैं। इनमें भी सबसे अहम भूमिका एक मां की होती है। दुनिया में लाने वाली मां के स्पर्श को बच्चा जन्म से पहचानता है, वही उसे दूसरे लोगों से परिचित कराती है, परवरिश करती है, अच्छे संस्कार देती है और जीने के मूल मंत्रों से अवगत कराती है।
शिशु के लिए मां का दूध है अमृत

वैज्ञानिकों ने साबित किया है कि पहले दो वर्षों में बच्चे का जितना विकास होता है, उतना पूरी ज़िंदगी नहीं होता। जिसके लिए सबसे जरुरी है, शिशु को कम से कम 6 महीने तक स्तनपान कराना। कुछ माताएं दो से ढ़ाई वर्ष तक भी अपने बच्चों को स्तनपान कराती हैं। बच्चे के जन्म के तुरंत बाद निकलने वाला गाढ़ा पीला दूध ‘कोलस्ट्रम’ बच्चे के लिए अमृत सामान होता है। इसमें मौजूद कार्बोहाइड्रेट, विटामिन्स, मिनरल्स, वसा जैसे पोषक तत्व जहां शिशु के विकास में सहायक होते हैं, वहींइम्युनोग्लोबुलिन ए, लिंफोसाइट, लैक्टोफेरिन, बाइफीडिस जैसे एंटीऑक्सीडेंट तत्व उसके लिए लाइफ लाइन का काम करते हैं। ये तत्व शिशु के इम्यून सिस्टम को 90 फीसदी तक मजबूत बनाते हैं और कई संक्रामक बीमारियों से भी बचाते हैं। मां का दूध बच्चे के शारीरिक-मानसिक विकास के लिए भी महत्वपूर्ण है। ब्रेस्ट फीड करने वाले बच्चे का ब्रेन वॉल्यूम ज्यादा बढ़ा होता है यानी वे दूसरे बच्चे के मुकाबले ज्यादा बुद्धिमान होते हैं।
पौष्टिक खाने की आदत

6 महीने के बाद शिशु को टाॅप फार्मूला मिल्क या अर्द्ध-ठोस आहार देना शुरू कर दिया जाता है। इस उम्र में बच्चे की डाइट-हैबिट्स पड़ रही होती हैं जो ताउम्र बनी रहती हैं। माता-पिता को उन्हें अलग-अलग तरह चीज़ें खाने के लिए देनी चाहिए। इस उम्र में दिया गया देसी घी उनके विकास में सहायक होता है उन्हें मैश किया केला, सेब, कस्टर्ड, जूस, दाल का पानी, कम मसाले वाली गली हुई दाल, खिचड़ी और सब्जियों का जूस आदि दिया जा सकता है। छुटपन से ही पौष्टिक खाने की आदत पड़ने पर बच्चे बड़े होकर खाने की गलत आदतों में कम ही पड़ते हैं। हालांकि आजकल छोटे-बड़े सभी में फास्ट फूड और रेडी टू ईट चीजों का क्रेज बढ़ता जा रहा है जो मोटापा, बढ़ते कोलेस्ट्रॉल, ब्लड प्रेशर, शुगर जैसी बिमारियों का कारण माना जाता है। इसे देखते हुए पेरेंट्स को सप्ताह में एकाध बार या रिवार्ड के तौर पर खाने देने की नियत करना चाहिए।
मानसिक विकास

2 साल तक बच्चों का मानसिक विकास बहुत तेजी से होता है। पेरेंट्स को उन्हें यथासंभव टाइम देना चाहिए। उनसे बातचीत करनी चाहिए, कहानियां और कविताएं सुनानी एवं सुननी चाहिए। रंगबिरंगी तस्वीरों वाली किताबें देखनी या हल्के म्यूजिक सुनने की आदत डालनी चाहिए। इससे बच्चा जल्दी सीखेगा। कामकाजी माता-पिता के समय की कमी के चलते बच्चों में फोन और टीवी देखने का चलन बहुत बढ़ गया है। इसके चलते बच्चे अक्सर फोन में ही व्यस्त रहते हैं और अंतर्मुखी हो जाते हैं। छोटी उम्र में ही बच्चों की आंखें कमज़ोर हो रही हैं और उनमें हिंसक प्रवृत्ति बढ़ जाती है।ऐसे में जरूरी है कि माता-पिता को शुरुआत से ही मोबाइल फोन का इस्तेमाल और टीवी देखने का समय नियत कर देना चाहिए ताकि बच्चे आगे चलकर फेसबुक, इंस्ट्राग्राम जैसे सोशल मीडिया के चक्कर में अपना समय बर्बाद न करें। बच्चों को खेलने के लिए खिलौने दें जिससे उनकी इन्द्रियों का विकास हो सके। बच्चे के शारीरिक विकास के लिए उसे शाम को पार्क में लेकर जाना चाहिए। कई तरह की शारीरिक गतिविधियों को करने से न सिर्फ मांशपेशियां मजबूत होंगी बल्कि बच्चा बर्हिमुखी और मिलनसार भी होगा।
पर्सनल हाइजीन की ट्रेनिंग

व्यस्त जीवन शैली में नवजात शिशु और छोटे बच्चों को स्पोजेबल डायपर पहनाने का बहुत चलन है। दो से ढाई साल के बच्चों को भी माता-पिता डाइपर पहनाते हैं। ज्यादा लंबे समय तक पहनने या साफ-सफाई का ध्यान नहीं रखने पर बच्चे की त्वचा पर रैशेज और यूटीआई इंफेक्शन की समस्याएं देखी जा सकती है। जलन और खुजली के कारण बच्चा चिड़चिड़ाने लगते हैं। इससे बचने के लिए जरूरी है- पाॅटी ट्रेनिंग। माता-पिता को एक साल का होते ही बच्चों को निजी साफ सफाई की ट्रेनिंग भी देनी जरूरी है। जिसमें दिन में दो बार ब्रश ब्रश करना, रोज नहाना, खाने से पहले और बाद में नियम से हाथ और मुंह धोना, जैसी आदतें बच्चों में जरूर डालनी चाहिए। इससे एक तो उन्हें किसी तरह की शर्मिन्दगी नहीं उठानी पड़ेगी और वो स्वस्थ भी रहेंगे।
घर के माहौल का असर

घर के माहौल का बच्चों पर बेहद असर पड़ता है, फिर वो चाहें सकारात्मक हो या नकारात्मक। माता-पिता के बीच नोकझोंक, घर में अपशब्दों का इस्तेमाल, चीखने और चिल्लाने का सीधा असर बच्चे पर पड़ता है। ऐसे माहौल में पले-बढ़े बच्चे अक्सर खोये-खोये रहते हैं, साथ ही अन्य लोगों के साथ तालमेल नहीं बैठा पाते, माता-पिता को अनदेखा करते हैं और उनका व्यवहार ढ़ीठ और आक्रामक हो जाता है। कभी-कभी तो बच्चे जुवाइनल अपराध की दुनिया तक पहुंच जाते हैं, जिससे न सिर्फ वे खुद को बल्कि दूसरों को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसलिए माता-पिता को बच्चे के दोस्त और उसकी गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए। क्रेच या मेड के भरोसे बच्चों को छोड़ने के बजाए उन्हें उनके दादा-दादी की निगरानी में रखना चाहिए। बच्चे में सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए जरूरी है माता-पिता उसपर अमल करें। किसी भी गलती पर बच्चे को मारने या डांटने की बजाए उन्हें प्यार से समझाते हुए उनकी काउंसलिंग करनी चाहिए। उन्हें सामाजिक और धार्मिक खासकर पैसों की कीमत की जानकारी जरूर देनी चाहिए ताकि वे कभी भी कई गलत कदम उठाकर अपनी जिंदगी खराब करें।
(डॉ मुनीष धवन, एसिस्टेंट प्रोफेसर, बाल रोग विशेषज्ञ, शाहाबाद)