अनंत सुख का वरण करो: Spiritual Thoughts
Spiritual Thoughts

Spiritual Thoughts: इस दिव्य जीवन को जिओ। इस दिव्य जीवन के क्षेत्र में प्रवेश करो। यहीं पर दु:ख समाप्त होता है, समस्त बंधन टूटते हैं, सारा अज्ञान निवृत्त होता है और यहीं असीम संतोष एवं आनंद उस सिद्घ योगी की परिपूर्णावस्था के अद्वितीय आत्मसाक्षात्कार में चार चांद लगाते हैं।

विचार या चिंतन सृजानात्मक होता है। हमारी प्रत्येक इच्छा की पूर्ति कालचक्र में अवश्य होती है। पूर्व जीवन में हमने जो जो इच्छाएं की थीं। उनमें से कुछ वर्तमान जीवन में आकर पूरी हुई हैं। सीमित देश एवं निश्चित कालावधि के भीतर इन सभी इच्छापूर्तियों तथा अनुभवों के कुल योग को ही हम जीवन कहते हैं। मानसिक स्तर पर अभिव्यक्त इच्छा को विचार कहा जाता है। यदि इच्छाएं न हों तो विचार भी न उठें। इसी प्रकार जहां विचारों का प्रवाह अवरुद्घ हो गया है, वहां इच्छाओं की भी उत्पत्ति नहीं होती। सभी कामनाओं का त्याग कर दो, विचारों का विस्तार मिट जाएगा। इसलिए अपने जीवन-लक्ष्य की ओर अपना सारा ध्यान केंद्रित करते हुए विचारों की गति प्रवाह को रोको। इनमें से किसी भी उपाय के द्वारा मन की समाप्ति हो जाती है। इस मनोदशा की क्रिया का अभ्यास करते हुए जो जीवन जिया जाता है, वही दिव्य जीवन है।

अपने अनवरत प्रवाह में ये विचार ही मन की ठोस कल्पना का निर्माण कर देते हैं, जो माया का एक अदृश्य उपकरण है और जीवन के लिए दुस्तर एवं भयावह है। इस विचार-दुर्ग के भीतर स्मृति, आशा, स्वार्थ और अभिमान की चहारदीवारी से घिरा हुआ अहंकार रूपी क्षुद्र राजा बैठा है, जो मानों एक उन्मत्त आत्मकेंद्रित और विलासी तानाशाह बन कर अपने दु:खों के काल्पनिक साम्राज्य पर शासन करता है।

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वृत्ति प्रवाह को रोक दो, और फिर तो विचारों का यह किला भी अपने महाराजा (अहंकार के भूलुंठित स्वप्न महल) के साथ ढह पड़ेगा। जब तक इस दु:ख साम्राज्य को नष्ट करने के लिए अंतिम विस्फोट की तैयारी पूरी नहीं हो जाती, तब तक अपने विचार चिंतन प्रवाह को नियंत्रित करने एवं तद्रूप आचरण करने की साधना के द्वारा ही दिव्य जीवन की नींव पड़ती है।

दिव्य जीवन भगवान का ही साम्राज्य है। भगवान की सत्ता आए, इससे पहले आवश्यक है कि जीव की सत्ता जाए। यह भगवत्साम्राज्य वास्तव में हमारा ही साम्राज्य है, था। यह परम ज्ञान का अनुभव समाधि अवस्था में प्राप्त किया जा सकता है। स्वयं के लिए स्वयं ही यही पुनर्गवेषणा समस्त सत्प्रयासों की पराकाष्ठा अर्थात परम पुरुषार्थ है जो हमको समस्त दु:खों, परिच्छिन्नताओं, अज्ञान और अंधकार से हटाकर आनन्द, शांति, ज्ञान और प्रकाश की ओर ले जाता है वही अंतिम लक्ष्य है जिसे आत्मसाक्षात्कार का नाम दिया गया है।

इस दिव्य जीवन को जिओ। इस दिव्य जीवन के क्षेत्र में प्रवेश करो। यहीं पर दु:ख समाप्त होता है, समस्त बंधन टूटते हैं, सारा अज्ञान निवृत्त होता है और यहीं असीम संतोष एवं आनंद उस सिद्घ योगी की परिपूर्णावस्था के अद्वितीय आत्मसाक्षात्कार में चार चांद लगाते हैं। भगवत्स्वरूप को प्राप्त करके वह योगी अनिर्वचनीय परमानंद में ‘शिवोहम, शिवोहम’ की गर्जना करता है। यही ईश्वर दर्शन है। प्रत्येक व्यक्ति यहीं और इसी जीवन में इसका अनुभव प्राप्त कर सकता है।

जहां कहीं भी रहो इस दिव्य जीवन को जिओ। इसके लिए तुम्हें अपने जीवन में पद-त्याग करने की कोई जरूरत नहीं है, व्यापार, परिवार अथवा अधिकार भी छोड़ने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है। जीवन विषयक अपने दृष्टिïकोण में ही थोड़ा परिवर्तन कर लेना पर्याप्त होगा।

इस वृत्ति के स्थान पर परम प्रभु के प्रति ही सर्व समर्पण का भाव जुटाओ और फिर तो इस प्रकार के सुरक्षित एवं दृढ़ विश्वास का आश्रय लेकर जीवन पर्यन्त प्रसन्नतापूर्वक घूमो कि ‘वह ही परम सत्य है, उसका ही काम पूरा हो, मैं केवल निमित्त मात्र ही बनूं और इस शरीर के माध्यम से निरंतर प्रभु कार्य ही सम्पादित हो।

दिव्य जीवन की साधना करो और दिव्य अलौकिक अमरत्व प्राप्त करो। पूर्णानन्द और शाश्वत तृप्ति पर तुम्हारा ही अधिकार होगा। यदि सांसारिक जीवन में फंसोगे तो मरणोन्मुख कष्टमय जीवन भोगना पड़ेगा, जहां सुख के केवल अपूर्ण क्षण होंगे, संतोष की केवल चंचल छाया दिखेगी, दुखद यातनाओं तथा मृत्यु के कारण दम घुटेगा। यहां चयन की स्वतंत्रता है, अपने लिए अनन्त सुख का वरण करो। सभी कालों में सभी सद्गुरुओं के माध्यम से सर्वत्र जो उपदेश होता है, वह सब तुम्हारी ही आत्मा की वाणी है।