आत्म निरीक्षण की प्रक्रिया से गुजरो- स्वामी चिन्मयानंद: Spiritual Learnings
Spiritual Learnings by Swami Chinmayananda

Spiritual Learnings: शुभस्य शीघ्रम। आज से ही आरंभ करो। आगामी कल की प्रतीक्षा व्यर्थ है, वह शायद कभी न आए। संभव है कि प्रारंभ में आत्म-विश्लेषण का यह कार्य अत्यंत असंतोषरूप में चले। प्रारंभिक दिनों की आत्म-विश्लेषण कथा कदाचित् किसी देव पुरुष के आदर्श जीवन जैसी मालूम पड़ेगी। फिर भी अभ्यास जारी रखो। प्रत्येक दिन के संपूर्ण कार्यकलाप में कमजोरी, गलती तथा पशु तुल्य व्यवहार खोज निकालने की कोशिश करो। यही आत्म-दोष की दर्शन प्रक्रिया है।

अन्तरात्म निरीक्षण, आत्म दोष दर्शन दोष परिमार्जन तथा दोषस्थाने गुण-प्रतिष्ठा – इन सबको लेकर ही आध्यात्मिक साधन के शुद्धीकरण का प्रारम्भिक कार्य पूर्ण होता है। ऐसे परिपक्व बनाने वाले साधन के बिना कोई भी साधक आध्यात्मिक विकास के तनाव और तप को अपनाने के लायक नहीं बनता। दिव्य जीवन की इस आवश्यक तैयारी को पूर्ण न करने के कारण ही अनेक उत्साही साधक नैराश्य भूमि पर आ गिरे हैं। उनमें से अनेक इस प्रकार की सामान्य शिकायत करते हैं – ‘वर्षानुवर्ष मैंने नित्य साधना की है, परन्तु मुझे तो वह सुख शान्ति नहीं मिली जिसका आश्वासन धर्मशास्त्रों में दिया गया है।

यदि दर्पण तेल से गंदा हो गया हो तो उसके अन्दर पड़ने वाला मुख का प्रतिबिम्ब भी धुंधला दिखेगा। चेहरे को साफ करने का कोई भी प्रयास असफल सिद्ध होगा, जब तक कि दर्पण गन्दा रहता है। इसी प्रकार यदि शास्त्रों के आश्वासन साधक के अन्दर पूर्ण नहीं हो पाते तो इसमें धर्मशास्त्रों का दोष नहीं है। जब तक साधक सुचिता की सम्पूर्ण आवश्यक प्रक्रिया से होकर नहीं गुजरता, तब तक प्रगति सर्वदा बाधित रहेगी।

द्रव अपनी सतह को पा लेता है। यह एक असन्दिग्ध वैज्ञानिक सत्य सिद्ध हो चुका है। फिर भी दो भिन्न बर्तनों में अलग-अलग रखा हुआ पानी समान सतह पर नहीं आ सकता। यह अत्यन्त आवश्यक है कि दोनों बर्तन किसी नली से जुड़े हुए हों, तभी इस सिद्ध वैज्ञानिक सत्य का प्रदर्शन हो सकता है। इसी तरह जब तक साधक ईश्वर से तादात्म्य नहीं स्थापित करता तब तक उसके अन्दर कोई भी दिव्यता प्रवाहित नहीं हो सकती। यही सम्पर्क वह आवश्यक स्थिति है जिसके पूरा होने पर ही आध्यात्मिक प्रगति संभव है। यह संपर्क दिव्य जीवन जीने पर ही स्थापित हो सकता है और इतने पर भी यह शक्तिशाली दिव्यता आध्यात्मिक साधक के मन को पूर्णतया आप्लावित नहीं कर सकती, यदि वह पहले से ही अत्यन्त मलिन है।

‘अपने को रिक्त करो, मैं तुम्हें परिपूर्ण करूंगा, यह एक अमर आश्वासन है। अन्तरात्मनिरीक्षण से इसका श्रीगणेश होता है और आत्मदोष दर्शन तथा दोष परिमार्जन की प्रक्रियाओं से यह प्रभावी बनता है। गुण प्रतिष्ठा ही दिव्य शान्ति के आह्वान का मूलमन्त्र है।

जो व्यक्ति अपनी साधना को नित्य सावधानीपूर्वक आत्म-निरीक्षण द्वारा आरम्भ करता है, वह स्वयं को निराश एवं असफलता के समस्त भावी दु:खों से मुक्त कर लेता है। उन लोगों को भी अविलम्ब आत्मनिरीक्षण प्रारम्भ कर देना चाहिये जो साधना के मार्ग पर तो हैं किन्तु इस विषादपूर्ण एवं भयावह विचार से आक्रान्त हैं कि हे प्रभु मैंने जीवन के इतने अधिक वर्ष व्यर्थ गवा दिये हैं। कुछ ही दिनों में साधक स्वयं स्वीकार करेगा कि उसने पुन: अप्रत्याशित प्रगति करनी आरम्भ कर दी है। आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया उन साधकों की प्रगति को भी तीव्र गति प्रदान करेगी जो पहले से ही जीवन के लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में पर्याप्त अग्रसर हो चुके हैं।

अत: नित्य अन्तरात्मनिरीक्षण करो, प्रयासपूर्वक दोषों को ढूंढ निकालो, कठोरतापूर्वक दोषों का परित्याग करो, विवेकपूर्वक गुणों की प्रतिष्ठा करो, दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ो, और प्रसन्न रहो। मुक्त बनो एवं अमरत्व प्राप्त करो अर्थात् देव पुरुष बनो।