भारत के गौरव को पुनर्प्रतिष्ठित करने वाले संत स्वामी विवेकानंद: Swami Vivekananda
Swami Vivekananda

Swami Vivekananda: स्वामी विवेकानंद की प्रतिभा सर्वोत्तोन्मुखी थी। ये योगी, तत्त्वदर्शी, गुरु, नेता, ज्ञानी, धर्म प्रचारक और एक महान राष्ट्र निर्माता थे। इन्होंने पाश्चात्य देशों में वहां के निवासियों के समक्ष भारतीय धर्म का खजाना खोलकर देश का सिर ऊंचा किया। ऐसे स्वामी विवेकानंद को प्रत्येक युवा भारतीय अपना आदर्श मानने लगे।
महापुरुषों के पत्रों से उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं के दर्शन होते हैं, इस सृष्टि से स्वामी विवेकानंद के पत्र उनके सर्वत्तोन्मुखी प्रतिभा संपन्न दिव्य जीवन पर प्रकाश डालते हैं। उन्होंने अपने पत्रों के द्वारा भारतीय संस्कृति और धर्म के कलेवर में नव चैतन्य का संचार किया था। स्वामीजी ने अपने अल्प जीवन में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र और प्रगतिशील समाज की परिकल्पना की थी।
विवेकानन्द का जन्म कोलकता महानगर में 12 जनवरी 1863 को एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त एवं माता का नाम भुवेनश्वरी देवी था। उनके बचपन का नाम नरेंद्र था। पिता विश्वनाथ दत्त बुद्धिवादी एवं प्रगतिशील विचारों वाले व्यक्ति थे। भुवेनश्वरी देवी धर्मनिष्ठ महिला थीं। बचपन से ही नरेन्द्र अत्यंत चंचल एवं जिद्दी स्वभाव के थे। 1885 ई. में रामकृष्ण गले के कैंसर रोग से पीड़ित हुए। नरेन्द्र नाथ ने अनन्य श्रद्धा एवं भक्ति से उनकी सेवा की। अध्यापन का कार्य भी छोड़ दिया। इससे प्रसन्न होकर रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें संन्यास की दीक्षा दी।
संन्यास ग्रहण के पश्चात् नरेन्द्र नाथ को अब विवेकानन्द का नया नाम मिल गया था। गुरु ने शक्तिपात कर अपनी सम्पूर्ण शक्तियां अपने नवसंन्यासी शिष्य को सौंप दीं ताकि वह विश्व कल्याण कर भारत का नाम गौरवान्वित कर सके। स्वामी जी ने देखा कि लोगों में धर्म के प्रति अनुराग की कमी नहीं है पर समाज में स्वाभाविक गतिशीलता नहीं है। वे कन्याकुमारी पहुंचे। वहां मन्दिर के पास शिला पर बैठकर उन्हें भारतमाता के भावरूप में दर्शन हुए और उस दिन से उन्होंने भारतमाता के पुरातन गौरव को पुनर्प्रतिष्ठित करने का संकल्प लिया।

विवेकानन्द के बहुमूल्य वचन

ज्ञान मनुष्य के अन्तर्निहित है। कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता। सभी कुछ हमारे भीतर है।
उठो! जागो! और तब तक न रुको, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। जब तक तुम कोई काम करो तब तक अन्य किसी बात का विचार ही मत करो; उसे एक उपासना मानो बड़ी से बड़ी उपासना की भांति करो और जब तक पूरी न हो जाए उस समय तक के लिए उसमें अपना सारा तन-मन लगा दो।
कौन सा धर्मग्रंथ यह कहता है कि महिलाएं ज्ञान और आस्था के लिए सक्षम नहीं हैं! अत: उनका आदर करो।

एक विचार को अपने मन में बांध लो। उसी विचार को अपना जीवन बना लो। उसके बारे में सोचो, उसी के सपने देखो और उसी विचार को जिओ।
हम जो कुछ भी हैं, जो भी करना चाह रहे हैं, उसके लिए हम ही जवाबदेह हैं। हमारे पास उसे पूरा करने की असीम क्षमता है। हम वर्तमान में जो कुछ भी हैं, यह हमारी भूतकाल में की गई कृतियों का परिणाम है।

जाति प्रथा वेदांत के धर्म के सर्वथा विरुद्ध है। जाति एक सामाजिक प्रथा है और सभी महापुरुषों ने उसे तोड़ने का प्रयास किया है। उसकी जगह समरसता में विश्वास करो।
केवल कुछ लोग हैं जो मस्तिष्क की भाषा समझते हैं, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति वह भाषा नहीं समझता है जो दिल से आती है।

प्रेम सभी असंभव दरवाजे खोलता है। प्रेम ब्रह्मïांड के सभी रहस्यों का दरवाजा है। प्रत्येक कदम पर जिसने इस विश्व में नाम कमाया है, वह प्रेम से ही आया है।
अपने प्रति आत्महीनता की भावना न रखें क्योंकि आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है कि पहले हम स्वयं में विश्वास रखें और फिर ईश्वर में! जिसे स्वयं में विश्वास नहीं उसे ईश्वर में कभी भी विश्वास नहीं हो सकता।

दान से बढ़कर और कोई धर्म नहीं है। सबसे छोटा मनुष्य वह है, जिसका हाथ सदा अपनी ओर रहता है-और जो अपने ही लिए सब पदार्थों को लेने में लगा रहता है। और सबसे उत्तम पुरुष वह है, जिसका हाथ बाहर की ओर है तथा जो दूसरों को देने में लगा है।
संसार में उपकार करना अपना ही उपकार करना है। दूसरों के लिए किए गए कार्य का मुख्य फल है- अपनी स्वयं की आत्मशुद्धि। दूसरों के प्रति निरंतर भलाई करते रहने से हम स्वयं को भूलने का प्रयत्न करते रहते हैं। हमें सदैव परोपकार करते ही रहना चाहिए। यदि हम सदैव यह ध्यान रखें कि दूसरों की सहायता करना एक सौभाग्य है तो परोपकार करने की इच्छा एक सर्वोत्तम प्रेरणा-शक्ति है।