Living in Bliss: संसार के त्याग अथवा भौतिक जीवन में डूबने की दोनों पराकाष्ठïाओं से बचने के लिए, मानव को अपने मन को निरन्तर ध्यान के द्वारा इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि अपने दैनिक जीवन के आवश्यक कर्तव्य-कार्यों को कर सके और साथ ही अन्तर में ईश्वर की चेतना को भी बनाए रख सके।
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि स्वर्ग के साम्राज्य को पाने के लिए वास्तव में मनुष्य को केवल कर्मों के फलों को त्यागने की आवश्यकता है। ईश्वर ने मनुष्य को इस जीवन में भूख और इच्छाओं के साथ ऐसी परिस्थितियों में भेजा है कि उसे कर्म करना ही पड़ेगा। कार्य के बिना मानव सभ्यता रोग, अकाल और अव्यवस्था का जंगल बन जाएगी। यदि संसार के सभी लोग अपनी भौतिक सभ्यता त्याग कर जंगलों में रहें, तो जंगलों को शहरों में बदलना पड़ेगा, अन्यथा वहां के निवासी स्वच्छता की कमी के कारण मर जाएंगे। दूसरी ओर भौतिक सभ्यता अपूर्णताओं और दु:खों से भरी पड़ी है। तो किस सम्भव उपाय का समर्थन किया गया?
भगवान श्री कृष्ण का जीवन उनके इस दर्शन को दर्शाता है कि भौतिक जीवन के उत्तरदायित्वों से भागने की कोई आवश्यकता नहीं है। ईश्वर ने जहां हमें रखा है वहीं पर उन्हें ले आने से समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। परिवेश चाहे कैसा भी हो, जिस मन में ईश्वर सम्पर्क है, वहां स्वर्ग को आना ही पड़ता है।
‘हे प्रभु, मुझे ऐसा कोई स्वर्ग नहीं चाहिए, जहां आप न हों! मैं किसी उद्योगशाला में भी कार्य करना पसंद करूंगा, यदि मशीनों के शोर में मैं आप की वाणी सुन सकूं। आप के बिना भौतिक जीवन, मेरे प्रभु, केवल शारीरिक दु:ख, रोग, अपराध, अज्ञान और अप्रसन्नता का स्रोत है।’
संसार के त्याग अथवा भौतिक जीवन में डूबने की दोनों पराकाष्ठाओं से बचने के लिए, मानव को अपने मन को निरन्तर ध्यान के द्वारा इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि अपने दैनिक जीवन के आवश्यक कर्तव्य-कार्यों को कर सके और साथ ही अन्तर में ईश्वर की चेतना को भी बनाए रख सके। सभी स्त्रियों और पुरुषों को यह स्मरण रखना चाहिए कि यदि वे जीवन की अपनी दैनिक दिनचर्या में गहन ध्यान को जोड़ लें, तो उनका सांसारिक जीवन अन्तहीन भौतिक एवं मानसिक व्याधियों से मुक्त हो सकता है। कर्म के फलों के प्रति आसक्ति से रहित, ध्यान एवं क्रियाशीलता से संतुलित जीवन, भगवान कृष्ण के जीवन का उदाहरण है।
भगवद्ïगीता में भगवान श्री कृष्ण का संदेश अनेक चिंताओं से घिरे हमारे आधुनिक व्यस्त जीवन के लिए सर्वोत्तम उपयुक्त सिद्धांत है। ईश्वर की शांति के बिना कार्य करना नर्क के समान है। आप जहां कहीं भी जाते हैं, आपकी आत्मा में ईश्वर के आनन्द के सदा उठते हुए बुलबुलों के साथ कार्य करना, अन्तर में एक चलता-फिरता स्वर्ग रखने के समान है। सुखद वातावरण में भी सदा चिन्तित रहना नर्क में रहने के समान है, जर्जर झोपड़ी में रहकर भी आंतरिक असीम आत्म-आनंद में रहना वास्तविक स्वर्ग है। चाहे एक महल में रहें अथवा एक पेड़ के नीचे, इस आन्तरिक स्वर्ग को हमें सदा अपने साथ रखना चाहिए।

यदि आप संसार में रहते हैं और इसके प्रति कोई आसक्ति नहीं है, तो आप एक सच्चे योगी हैं। मिश्री के भंडार में रहते हुए मिश्री को न छूना एक सच्चा त्याग है। तथापि दूध पानी पर तब तक किसी भी तरह से नहीं तैरेगा जब तक कि आप उसका मक्खन न बना दें। ईश्वर की खोज और उनके नियमों के अनुसार जीवन बिताना ही प्रसन्नता एवं मोक्ष का एक मात्र मार्ग है। जीसस ने कहा था ‘यदि आपका हाथ बाधा डाले, तो उसे काट दो।’ इस प्रकार के दृढ़ निश्चय की आवश्यकता है। आपको अपने हृदय में और आत्मा में इस सत्य को अनुभव कर लेना चाहिए ‘प्रभु एकमात्र आप ही मेरे हैं। मैं यहां केवल आपको प्रसन्न करने के लिए हूं।’
