meaning of penance
meaning of penance

Sadhguru Lessons: जब तुम कोई चीज आशा के साथ करना शुरू करते हो, चाहे वह हो या न हो, तुम दोनों तरह से चूक जाओगे। अपनी साधना आनंदपूर्वक करो, उसे पाने की आशा या खोने के भय में मत करो। उसे बस आनंदपूर्वक करो।

तपस्या करने का अर्थ मात्र इतना ही है कि उन सभी चीजों को ना कहना सीखना जो तुम्हारे अंदर नैसर्गिक हैं। अगर तुम अभी भूखे हों, तुम अपने आप से कहो, नहीं, मुझे अपना प्राणायाम करना है। तुम कुछ अच्छा खाना चाहते हो, तुम कहो, नहीं मैं केवल सूखी रोटी खाऊंगा। तुम्हें नींद आ रही है, तुम कहो, नहीं, मैं ध्यान करूंगा। यही नेति-नेति है, अपनी पसंद और नापसंद का अतिक्रमण करने का प्रयास करना- मन को ना, ना कहते जाना। निश्चित रूप से यह मंत्रों और नशीले पदार्थों से कहीं ज्यादा बेहतर है, क्योंकि यह तुम्हारे अंदर एक खास रूपांतरण लाएगा। जब तुम अपने मन को ना कहना जारी रखते हो, मन धीरे-धीरे वश में आने लगता है, यह कम से कम हो जाता है। मन चाहे जो कुछ भी कहता है, तुम ना कहो।

यही अभ्यास है। जब तुम अपने मन के प्रति पूर्णत: ना, ना हो जाते हो तब तुम जीवन के प्रति एक बड़ी हां बन जाते हो। यही तपस्याओं का स्तर है, जिसे किया जा सकता है। यह तुम्हें कुछ रूपांतरण की तरफ ले जाएगा और एक व्यक्ति को चेतना के परम स्तर तक भी ले जा सकता है अगर वह वास्तव में इसमें प्रवेश करता है, अगर वह इससे होकर गुजरने में पर्याप्त सक्षम है। निश्चित रूप से, एक व्यक्ति कृपा के एक खास स्तर को उपलब्ध हो सकता है, लेकिन कोई व्यक्ति जो तपस्या के इस मार्ग में बहुत ज्यादा प्रवेश कर जाता है, उसमें सूख जाने की भी संभावना होती है। लेकिन इस सूखेपन से भ्रमित मत हो जाना, सूखी आत्माएं हमेशा से बहुत प्रज्ञावान आत्माएं रही हैं, लेकिन अगर इसमें कुछ और गुणों का समावेश न हो तो यह सूखापन एक तरह का मृत सूखापन बन जाता है जोकि तुम कई योगियों में देख सकते हो। वे शुष्क हो गए हैं। उनके अंदर करुणा नहीं है। उन लोगों ने चेतनापूर्वक भाव या राग को अस्वीकार किया है, लेकिन अपनी करुणा भी खो दी है।

meaning of penance
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इसके बाद पतंजलि जिस चीज की चर्चा करते हैं। तुम चैतन्य को समाधि के द्वारा भी प्राप्त कर सकते हो। अब जब वे समाधि कहते हैं, वे छेदने की बात कर रहे हैं, समाधि का अर्थ है जो भी बाधक है उसे छेदकर निकल जाना। समाधि समचित्तता की एक अवस्था है। एक मन, जो न तो पसंद है न नापसंद है, न तृष्णा है न विरक्ति है, न इच्छा है न अनिच्छा है, न प्रेम है न घृणा है। जब तुम्हारी साधना आशा और भय पर आधारित है, तुम्हें किसी भी चीज की प्राप्ति नहीं होगी। तुम किसी न किसी तरह से उसे खो दोगे। इस पर मुझे एक मूर्ख नौकर की कहानी याद आ रही है। एक दिन उसके मालिक ने उसे जाकर आटा और नमक लाने को कहा और यह सख्त निर्देश दिया कि वह इन दोनों चीजों को एक में नहीं मिलाएगा। नौकर ने एक थैला लिया और उस दुकान पर जहां आटा बिक रहा था, उसने थैले को आटे से भर लिया। फिर उसने नमक मांगा। अब उसे यह नहीं समझ आ रहा था कि नमक को कहां रखा जाए, तब तक उसे मालिक की बात याद आ गई कि दोनों को एक में नहीं मिलाना है। फिर उसने थैलो को एक झटके के साथ उलटकर और उसमें ऊपर से नमक भर लिया, ऐसा करने से आटा बाहर गिर गया। तब वह नमक लेकर मालिक के पास पहुंचा। मालिक ने पूछा, ठीक है, यह नमक है। आटा कहां है? नौकर ने थैले को उलट दिया और नमक बाहर गिर पड़ा। आशा और भय ठीक इसी तरह हैं। जब तुम कोई चीज आशा के साथ करना शुरू करते हो, चाहे वह हो या न हो, तुम दोनों तरह से चूक जाओगे। अपनी साधना आनंदपूर्वक करो, उसे पाने की आशा या खोने के भय में मत करो। उसे बस आनंदपूर्वक करो।

संसार के त्याग अथवा भौतिक जीवन में डूबने की दोनों पराकाष्ठïाओं से बचने के लिए, मानव को अपने मन को निरन्तर ध्यान के द्वारा इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि अपने दैनिक जीवन के आवश्यक कर्तव्य-कार्यों को कर सके और साथ ही अन्तर में ईश्वर की चेतना को भी बनाए रख सके।

गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि स्वर्ग के साम्राज्य को पाने के लिए वास्तव में मनुष्य को केवल कर्मों के फलों को त्यागने की आवश्यकता है। ईश्वर ने मनुष्य को इस जीवन में भूख और इच्छाओं के साथ ऐसी परिस्थितियों में भेजा है कि उसे कर्म करना ही पड़ेगा। कार्य के बिना मानव सभ्यता रोग, अकाल और अव्यवस्था का जंगल बन जाएगी। यदि संसार के सभी लोग अपनी भौतिक सभ्यता त्याग कर जंगलों में रहें, तो जंगलों को शहरों में बदलना पड़ेगा, अन्यथा वहां के निवासी स्वच्छता की कमी के कारण मर जाएंगे। दूसरी ओर भौतिक सभ्यता अपूर्णताओं और दु:खों से भरी पड़ी है। तो किस सम्भव उपाय का समर्थन किया गया?