मैं कुछ नहीं करती-21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां मध्यप्रदेश: Women Story
Mein Kuch Nhi Karti

भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

Women Story: स्नेहा के गेट खोलते ही आंगन की जो हालत देखी मानो कह रही हो, आपके जाने का मुझे बहुत दु:ख है। पिछले एक हफ्ते से सहेली की बेटी की शादी में गयी थी। बचपन की सहेली की बेटी की शादी थी, काफी आग्रह था। बचपन के दोस्तों से मिलने का मोह वह भी छोड न सकी, दूरी काफी थी पर दिल की नजदीकी के आगे कहाँ लगती। एक हफ्ते से घर के दूर अपने बचपन के दोस्तों के साथ ऐसा लगा, मानों फिर से बचपन आ गया हो। पूरी रात का सफर कर अल्प सुबह अपने घर आयी स्नेहा ने आंगन में देखा गमले सूख रहे थे। लगता दो-चार दिन से पानी नहीं दिया। जूते-चप्पल स्टैंड के आसपास बिखरे पडे थे। उसने अपनी चाबी से दरवाजा खोला। बच्चे, पतिदेव सोये थे, उसे आया देख पति महाशय जागे पर उठे नहीं।

सफर से थकी स्नेहा ने सोचा पहले एक कप चाय पीते हैं, फिर सब काम करते हैं। दूध निकालने के लिए फ्रीज खोला तो यह क्या धनिया, पालक बिन तोड़े ही जाली पर रखे थे। थोड़ा-थोड़ा दूध दो-तीन दिन का अलग-अलग बर्तनों में रखा था। पूरा फ्रीज भरा था। दूध निकालकर मटके से पानी निकालने लगी तो उस पर ढकी प्लेट व बेसिन दोनों के धब्बे बता रहे थे कि उसके जाने के बाद उन्हें साफ नहीं किया गया। चाय के लिए पानी चढ़ाया, गैस स्टोव भी अपनी दास्तां इसी प्रकार बयां कर रहा था। गैस स्टोव के पीछे दीवाल पर मसालों के धब्बे ऐसे लगे थे, मानो कोई बच्चा यहाँ रंगोली सीखने की प्रैक्टिस कर रहा हो। चाय-शक्कर के डिब्बे निकले तो देखा अलमारी के सारे डिब्बे उच्छृखल बच्चों की तरह एक पंक्ति में नहीं हैं। हर डिब्बे पर मसाले, बेसन, आटे के हाथ लगे देख कोई अजनबी भी समझ जाये कि कौन-सा सामान किस डिब्बे में है।

चाय बनाने लगी कि पतिदेव की आवाज आयी कि मेरी भी चाय बना लेना। कितना फर्क है ना पति के घर आने में और जाने में। पतिदेव के घर आते ही सारी ड्यूटी खत्म। चाय पानी सब हाथ में छुट्टे मोजे भी वही उठाकर रखती है, आज वह भी तो 15 घंटे का सफर कर आई है। चाय पीकर बिना धुले कपड़े वाशिंग मशीन में डालने गयी तो यह क्या वह तो पहले से ही हफ्ते भर के कपड़ों से भरी पड़ी थी। घर का कोना-कोना उसकी अनुपस्थिति को बयां कर रहा था।

जल्दी से सबके लिए नाश्ता तैयार करने लगी। घर की सफाई में, कब दो बज गये पता भी नहीं चला। भूख के साथ थकान भी महसूस हो रही थी। रात को ट्रेन में नींद भी कहाँ पूरी हो पाई। खाना खाकर अब एक-दो घंटे आराम करती हूँ, पर यह क्या खाना खाने बैठी ही थी कि गाँव वाले चाचा जी का फोन आया कह रहे थे, “चाची को हॉस्पिटल दिखाने लाये थे, सुबह फोन करना भूल गए, घर आ रहे हैं खाना वहीं खायेंगे।”

स्नेहा का मन भी खिन्न हो गया। मुझसे तो ऑफिस में काम करने वाली महिलाएं अच्छी हैं, कम-से-कम लंच टाइम तो उनका अपना होता है। खाना बनाने की तैयारी में जुटी स्नेहा के हाथ के साथ-साथ अब दिमाग में कई तरह के सवाल-जवाब चल रहे थे, इतना करने के बाद भी मैं घरेलू महिला, काम-काजी नहीं कहलाती। कोई बच्चों से, पति से पूछता, मैं क्या करती हूं? जवाब होता कुछ नहीं, हाउस वाइफ है। सुबह सबसे पहले जाने वाले सदस्य से भी जल्दी उठना। पतिदेव सुबह 10 बजे जाते, 6 बजे आते इनकी ड्यूटी खत्म, इसी तरह बच्चे भी अलग-अलग समय जाते-आते पर घर आते ही सबकी ड्यूटी पूरी हो जाती। पर मैं तो आखिरी सदस्य के आने के बाद तक ड्यूटी देती हूँ। क्यों मुझे और मेरे काम को कोई दर्जा नहीं? क्या सिर्फ, पैसों के लिए काम करना ही कामकाजी कहलाता है।

मुझे अब अपने काम को पहचान देना चाहिए, मन ने ठाना पर क्या ज्यादा डिग्री भी तो नहीं है कि बाहर जाकर काम कर सके, पर उसके हाथ के बने खाने की सब तारीफ करते हैं। पति व बच्चों के दोस्तों से वह बेहद तारीफ पाती हैं। पास में पढ़ने वाले बच्चे रहते हैं। कई बार अच्छा खाना ना मिलने का रोना रोते हैं और स्नेहा के हाथ के खाने में उन्हें माँ के हाथ का स्वाद आता है, वह फौरन पड़ोस में उन बच्चों को हाँ कहने गयी जो कई बार उससे मंथली खाना खाने का बोल चुके थे। अब सबसे पहले तो परिवार वालों की आदत सुधारनी होगी, इन लोगों के जाने के बाद एक घंटा घर व्यवस्थित करने में लगता है।

शाम को उसने अपना निर्णय सुनाया, कुछ विरोध हुआ पर उसके दृढ़ निश्चय के आगे सबको हाँ करनी पड़ी। शुरूआत चार बच्चों के खाने से की और जहाँ चाह है, वहाँ राह है। बच्चों के दोस्त फिर उनके दोस्त कारवां बढ़ने लगा। अब कार्यभार उठाना उसके अकेले के बस का नहीं था, न ही उसके छोटे से किचन में इतनी जगह थी। पास का ही एक फ्लैट किराये पर ले लिया और अपनी मदद के लिए सहायिका लगाती गयी, अब वह दूसरों को भी रोजगार देने लगी। इंसान में आत्मविश्वास हो, कर्म के प्रति ईमानदारी, लगन हो तो सफलताएं बढ़ती ही जाती हैं। स्नेहा भी पूर्ण लगन और मेहनत से अपने कर्म को कर रही थी और सफलता के दरवाजे खुल रहे थे। वह थाली के साथ जो पापड़-अचार देती थी, वह स्वनिर्मित था जिसकी अलग से डिमांड आने लगी।

अब उसने अपनी सहायिकाओं की एक अलग टीम बनायीं जो पापड़-अचार, बड़ी, आंवला-कैंडी इत्यादि बनाने वाली गृह उद्योग के रूप में कार्य करने लगीं। इसके लिए जो भी मशीनों की आवश्यकता थी, उसने बैंक से लोन लेकर खरीदी और समय पर बैंक की किश्त भी देती।

आज वह सफल उद्यमी के रूप में खड़ी थी। उसके थोड़े से साहस ने उस जैसी कई महिलाओं को रोजगार दिया। पति और बच्चे भी गर्व से उसकी उपलब्धि बताते हैं। जब वह हाथ से घर का सारा काम करती थी, तब कामकाजी नहीं कहलाती थी और आज अधिकतर कार्य का सुपरविजन करती है तो कामकाजी है। क्या सिर्फ पैसा कमाना कामकाजी की परिभाषा है? नारी का परिवार की सेवा, त्याग, समर्पण इसके अंतर्गत नहीं आता।

आखिर कैसी मानसिकता है हमारे समाज की, महिलाओं को दो श्रेणियों में बांटा ही क्यों गया? “घरेलू और कामकाजी”, क्या घरेलू महिला कामकाजी नहीं होती या जो कामकाजी महिला होती है वह घरेलू नहीं होती?

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’