ओशो शब्दों के सम्राट हैं: Osho Life
Osho Life Journey

Osho Life: पहली बात तो ओशो एक विचारक हैं, महान विचारक। जो किसी धर्म से नहीं विचारों से जुड़ा रहा। विचारों से जुड़ने का मतलब है सत्य से जुड़ना। जो सत्य से जुड़ता है सब उसके दुश्मन हो जाते हैं, यही कारण था कि ओशो के इतने दुश्मन पैदा हुए। ओशो के साथ बस एक दिक्कत रही कि 99 प्रतिशत वह लोग उनके खिलाफ रहे जिन्होंने उन्हें न कभी सुना है, न ही कभी पढ़ा है।
ओशो को मैं एक ‘सफाई कर्मचारी’ कहूंगा जो बाहर की नहीं भीतर की गंदगी को साफ करता है। एक काम किया है ओशो ने व्यक्ति को खाली किया है। एक रीतापन व्यक्ति के अंदर पैदा किया है। यह रीतापन बहुत जरूरी है क्योंकि जो भरा हुआ था, वह कचरा भरा हुआ था।
आज पूरा समाज और शिक्षा व्यक्ति को सिखाने में लगा है, पढ़ाने में लगा है। इस पढ़ाने की प्रक्रिया में हमने जो कुछ कूड़ा-कचरा बच्चों के अंदर भर दिया है वह एक दिन भी काम नहीं आया। तो ओशो ने शिक्षा का सारा कचरा हटाकर एक खालीपन भर दिया है। और स्मरण शक्ति के मामले में लगता है पढ़ते वक्त जैसे ओशो किताब को स्केन कर लेते होंगे। मेरा सौभाग्य है कि मेरी चार कविताओं को उन्होंने अपने प्रवचनों में शामिल किया।
यह इस देश का दुर्भाग्य है कि वह उन्हें पहचाना नहीं। जिसे पच्चीस से ज्यादा देशों ने घुसने नहीं दिया हो और जिसके लिए सेना तैनात कर दी हो उस ओशो के पास सिर्फ शब्द की ताकत थी, इतनी बड़ी ताकत की परमाणु से बड़ी हो गई थी और संपन्न देश भी उनसे घबराने लगे थे। मैं तो ‘शब्द’ का एक छोटा सा सिपाही हूं। मैं उस शब्द के सम्राट को सलाम करता हूं। ओशो के शब्द काव्य हैं और उनका काव्य कोई साधारण काव्य नहीं हैं, यह काव्य एक ऋषि का काव्य है जो जीवन को रूपांतरित कर देता है।
ओशो ने हर व्यक्ति को यह एहसास करा दिया है कि वह संपूर्ण नहीं है, रीता हुआ है। शिक्षा के परिवेश में, धर्म के परिवेश में हम कई मान्यताओं को भीतर लेकर बैठे थे। इन मान्यताओं को हमने सूर्य की तरह सत्य मान लिया था। बैठे थे हम अंधकार में और मानते थे कि हम प्रकाश में हैं। इस गांठ को ओशो ने तोड़ा। उस अंधकार को ओशो ने छांटा।
ओशो का जितना भी लेखन है वह बुद्धि का नहीं है, हृदय का है। लेखन जिस तल का होता है उसी तल तक पहुंचता है। हृदय का जो आवेग उमड़ता रहा वह शब्दों के रूप में उसे बहाते रहे। ओशो ने कभी लिखा नहीं, जो बोला वह लिखा गया। इसलिए उन्होंने न शब्दों का आडंबर रचा, न शिल्प की फिक्र की। एक सहज, सरल धारा सी बहती है।
उनके प्रवचन कभी भी उबाऊ नहीं लगते क्योंकि उनमें रस परिवर्तन होता है। उसमें कहानियां भी हैं, कविताएं भी हैं, चुटकुले भी हैं, हास्य भी हैं। ये सब पढ़ने वालों की उत्सुकता बनाए रखते हैं। वे एकमात्र बुद्ध पुरुष हैं जिन्होंने अध्यात्म को हास्य की चाशनी में लपेटकर खिलाया है। हास्य के द्वारा गहरी से गहरी बात बड़ी आसानी से आम आदमी भी समझ जाता है। और यह सारा उनसे ‘बिल्ट इन’ निकला है। इसके लिए उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया है। ओशो ने मजाक अपने प्रवचन में फिट नहीं किए हैं। वे एक खास संदर्भ में आते हैं।
दूसरी और भी कठिन बात है, उनकी ऊंचाई पर खड़े होकर पहली-दूसरी कक्षा के विद्यार्थियों को पढ़ाना। बच्चों की एक कविता लिखना सबसे कठिन काम है क्योंकि अपनी मानसिकता को उस तल पर लाना पड़ता है। यह काम ओशो ने किया है। उन्होंने हमारे तल पर उतरकर, हमारी समझ के अनुसार अपने ज्ञान को प्रवाहित किया है। इससे बड़ी देन और क्या हो सकती है?
ओशो ने जहां कहीं भी हास्य के माध्यम से मुल्ला नसरुद्दीन को पात्र बनाकर जो भी कहा, जो गहन करुणा का अनुभव किया और उनके हास्य में जो भी बात वे प्रवचन के साथ जोड़ते हैं उसका अर्थ कहीं सोचने पर विवश करता है। ऐसा नहीं कि उन्होंने बीच-बीच में वैसे ही टुकड़े डाले। वे जो बात कहना चाहते हैं उसमें हास्य की चाशनी लगाई उन्होंने। अभी तक धर्म की, गुरु की कल्पना थी- बड़ा सा उदासीन लंबा चेहरा, उसको बहुत अच्छे सलीके से ओशो ने तोड़ा। पहली बार लोगों को यह महसूस कराया कि नहीं, हंसता-खिलखिलाता, मुस्कुराता चेहरा और यह आनंद बिखेरता हुआ चेहरा अपनत्व तक ले जाएगा।