vicharpurvak kary karo
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संस्कृत कवि भारवि प्रारम्भ में अत्यन्त निर्धन था। वह बेचारा गौएँ चराकर जैसे-तैसे अपना जीवन-निर्वाह किया करता। एक दिन उसने निम्न श्लोक तैयार किया और उसे एक भोजपत्र पर लिखा-

सहसा विदधीत न क्रियाम् अविवेकः परमापदां पदम्।

वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धा स्वयमेव सम्पदः।।

  • कोई भी कार्य जल्दबाजी में नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि अविचार महती विपदा के लिए कारणीभूत होता है। विचारपूर्वक किये गये कार्य के कर्ता पर गुणलुब्धा लक्ष्मी स्वयं ही प्रसन्न होती हैं।

उक्त श्लोक भारवि की पत्नी को बेहद भाया तथा वह उसे लेकर राजा के पास गयी। राजा ने उसे पढ़कर बदले में एक सौ मुहरें दीं तथा उस भोजपत्र को उसने अपने शयन कक्ष में लगा दिया।

कुछ दिनों पश्चात् एक संध्या को राजा शिकार को गया, किन्तु अस्वस्थता महसूस होने पर वह मध्यरात्रि को ही वापस लौट आया। उसने ज्योंही अपने शयनकक्ष में कदम रखा, तो स्तंभित रह गया। बात यह थी कि रानी पलंग पर सोयी हुई थी तथा समीप के उसके पलंग पर कोई अपरिचित व्यक्ति निद्राधीन था। राजा क्रोध से आगबबूला हो गया। उसने म्यान से तलवार निकाली और रानी तथा उस अपरिचित पर वार करने ही वाला था कि उसकी दृष्टि भोजपत्र पर पड़ी। उसने श्लोक पढ़ा और तलवार यथास्थान रखकर अपनी पत्नी को जगाया तथा उस व्यक्ति के बारे में पूछताछ की। रानी ने जब उसे बताया कि वह उसका खोया हुआ छोटा भाई है, तो राजा बड़ा ही लज्जित हुआ कि उसके हाथ से नाहक ही दो जीवों की हत्या होनेवाली थी। राजा ने दूसरे दिन भारवि को बुलाकर उसे ‘छत्र भारवि’ की उपाधि से विभूषित किया तथा अपार धनराशि उपहार में दी।

ये कहानी ‘ अनमोल प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएंAnmol Prerak Prasang(अनमोल प्रेरक प्रसंग)