vridh ki yuva patni, hitopadesh ki kahani
vridh ki yuva patni, hitopadesh ki kahani

Hitopadesh ki Kahani : गौड़ देश में कौशाम्बी नाम की एक नगरी थी। उसमें चन्दन दास नाम का एक बहुत धनी महाजन रहता था। उसने कामुकता वश और अपने धन के मद में अपनी वृद्धावस्था “में लीलावती नाम की एक निर्धन कन्या से विवाह किया। कुछ ही वर्ष में वह कन्या युवती हो गई। किन्तु महाजन वृद्ध होने के कारण उसको सन्तुष्ट करने में असमर्थ था ।

जिस प्रकार ठंड से व्याकुल मनुष्य को चन्द्रमा और गर्मी से व्याकुल मनुष्य को सूर्य नहीं भाता ठीक उसी प्रकार वृद्धावस्था के कारण जिसकी इन्द्रियां शिथिल हो गई हैं, उस पति में पत्नी का मन नहीं रमता ।

जब पुरुष के बाल पक जाएं तो ऐसी अवस्था में जो पुरूष कामवासना की इच्छा करता है वह उसके भाग्य की विडम्बना ही समझनी चाहिए। क्योंकि ऐसी स्त्रियां, जिनका मन किसी अन्य पुरुष पर रम जाये वे पके बाल वाले पुरुषों को औषधि के समान कडुवा समझती हैं।

लीलावती का पति यद्यपि वृद्ध हो गया था किन्तु वह अपनी पत्नी को बहुत अधिक प्यार किया करता था ।

क्योंकि यह संसार भर के प्राणियों का स्वभाव है कि उनके धन और जीवन की आशा सर्वदा बढ़ती ही जाती है। और वृद्ध पुरुष को तो तरुणी पत्नी प्राणों से भी प्रिय होती है ।

जो पुरुष वृद्धावस्था में कामना के वशीभूत होता है न तो वह उन विषयों का उपभोग ही कर पाता है और न उनको त्याग ही सकता है। उसकी दशा उस कुत्ते के समान हो जाती है जिसके दांत टूट जाने पर वह मांस या हड्डी को जीभ से चाटकर ही सन्तोष करने का यत्न करता है।

इसी प्रकार लीलावती भी अपने पड़ोसी किसी तरुण वणिक्पुत्र के प्रति आसक्त होकर यौवन के आवेग में अपनी कुल-मर्यादा का परित्याग कर उससे प्रेमक्रीड़ा करने लगी ।

पिता के घर में स्वतंत्र रहना, हाट-बाजार, मेले-तमाशे में जाना, पुरुषों में विशेष उठना- बैठना, किसी भी नियम का पालन न करना, विदेश में रहना, कुलटा स्त्रियों के साथ रहना, अपने व्यवसाय की ओर ध्यान न देना, पति का वृद्ध होना, पति का ईर्ष्यालु प्रकृति का होना, पति का परदेश में अधिक रहना ये सब स्त्रियों के विनाश के कारण होते हैं। ऐसी स्थिति में स्त्रियां बिगड़ जाया करती हैं।

मद्यपान करना, दुर्जनों के साथ रहना, पति का वियोग, घूमना-फिरना, सोना, दूसरे के घर पर सोना, दूसरे के घर पर रहना, स्त्रियों के ये छः दोष गिनाये गये हैं।

जिन्हें उपयुक्त स्थान नहीं मिलता, अवसर का अभाव रहता है, अपनी चाह का पुरुष नहीं मिलता ऐसी स्त्रियों का ही सतीत्व बचा रह सकता है।

स्त्रियों का न तो कोई विशेष प्रेमी होता है और न विशेष द्वेषी ही । जिस प्रकार गायें वन में नई-नई घास खोजती रहती हैं उसी प्रकार ऐसी नारियां भी नये पुरुष को खोजती रहती हैं।

स्त्री को घृत के घड़े के समान माना गया है और पुरुष को जलता अंगारा । इसलिए समझदार व्यक्ति को चाहिए कि घृत और आग को एक स्थान पर न रहने दे।

न तो लज्जा, न विनम्रता, न चतुराई और न भय- इनमें से कोई भी गुण स्त्रियों के सतीत्व को नहीं बचा सकता। यदि वे बची रहती हैं तो केवल इस कारण कि उनको कोई चाहने वाला नहीं मिलता।

बचपन में स्त्री की रक्षा उसका पिता करता है, युवा होने पर विवाह कर दिया जाता है तब उसका पति उसकी रक्षा करता है। वृद्ध होने पर उसका पुत्र उसकी रक्षा करता है । इस प्रकार स्त्री को कभी भी स्वतन्त्र नहीं रहने दिया जाता ।

एक दिन की बात है कि वह लीलावती सुन्दर विछौनेवाला गुदगुदे पलंग पर अपने प्रेमी के साथ बैठी वार्तालाप कर रही थी कि तभी उसका पति वहां पर आ गया । उसे देखकर सहसा लीलावती अपने प्रेमी के पास से उठी और अपने पति के समीप जाकर उसके बाल पकड़कर उसके शरीर से लिपट गई और बार-बार उसको चूमने लगी। इस बीच अवसर पाकर उसका प्रेमी वहाँ से भाग गया। उसको लीलावती के वृद्ध पति ने देखा नहीं था ।

जिस शास्त्र को शुक्राचार्य और जिस शास्त्र को बृहस्पित जानते हैं, वह शास्त्र स्त्रियों की बुद्धि में स्वाभाविक रहता है। कहने का तात्पर्य है कि स्त्रियां कूटनीति में निपुण होती हैं।

लीलावती की पड़ोसिन ने जब उसको इस प्रकार अपने पति से लिपटते देखा तो वह सोचने लगी कि आज इस लीलावती को क्या हो गया है जो यह अपने पति को इस प्रकार चूम रही है ?

पड़ोसिन को चैन कहां? किसी प्रकार उसने इसका कारण जान ही लिया और फिर उसके पति से उसकी शिकायत कर उसको दण्ड भी दिलवा दिया।

यह कथा सुनाकर वीणाकर्ण कहने लगा, “इसीलिए मैं कहता हूं कि बिना कारण के इस प्रकार की घटनाएं होना सम्भव नहीं है। इस चूहे में इतना बल होने का कारण अवश्य है । “

वीणाकर्ण स्वयं ही इस बात पर विचार करता रहा और फिर बोला, “धन ही इसका कारण हो सकता है।

“संसार में धनवान मनुष्य सदा से बलवान रहते आए हैं। धन ही प्रभुता का मूल होता । राजाओं की प्रभुता का कारण भी धन ही तो होता है। “

इस प्रकार विचार कर उसने कुदाली ली और अपने साथी को साथ लेकर मेरे बिल को खोद डाला। वहां उसको मेरा चिर संचित धन मिल गया । वह सारा उसने ले लिया और मुझे इस प्रकार निर्बल कर दिया ।

उसी दिन से मैं शक्ति और उत्साहहीन होकर भोजन जुटाने में भी असमर्थ हो गया हूं। मैं नित्य वहां जाता था और छलांग भी लगाता था किन्तु उस पात्र तक नहीं पहुंच पाता था। वहां से निराश होकर में लौट आया करता था ।

इस प्रकार एक दिन जब भयभीत – सा मैं वहां से लौट रहा था तो चूड़ाकर्ण मुझे उस अवस्था में देखकर कहने लगा, “मनुष्य धन से ही इस संसार में बलवान् होता है और धन से ही वह पंडित बनता है। तनिक इस पापी चूहे को तो देखो, धन के चले जाने पर यह अब अपनी जाति वालों जैसा ही भीरु हो गया है। “

जिस व्यक्ति के पास धन नहीं होता और जिस व्यक्ति की बुद्धि मन्द होती है उसके सारे क्रिया कलाप समाप्त हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कि गरमी में छोटी- छोटी नदियां सूख जाया करती हैं।

जिसके पास धन होता है उसके ही मित्र हुआ करते हैं। जिसके पास धन होता है बन्धु- बान्धव भी उसके पास ही रहा करते हैं। संसार में उसी को पुरुष माना जाता है जिसके पास धन है और उसको ही पंडित माना जाता है जिसके पास धन होता है।

पुत्र के अभाव में और अच्छा मित्र न होने पर घर सूना माना जाता है। मूर्ख के लिए सभी दिशाएं शून्य के समान हैं किन्तु दरिद्र अथवा निर्धन मनुष्य के लिए सारा संसार ही शून्य है।

मनुष्य की इन्द्रियां अथवा शरीर के अंग वही रहते हैं, नाम वही रहता है, वही अप्रतिहत बुद्धि रहती है, पर जब धन की कमी होती है तो सब कुछ ही बदल जाया करता है। यह कितनी विचित्र बात है। उस चूड़ाकर्ण से यह सब सुनकर मैंने विचार किया कि मेरा अब वहां रहना उचित नहीं है। यह भी मैंने उचित नहीं समझा कि जन-जन को अपनी व्यथा- कथा सुनाता फिरूं। मैंने किसी से इस सम्बन्ध में कुछ कहा ही नहीं ।

क्योंकि बुद्धिमत्ता इसी में है कि अपने धन का नाश, मन का संताप, घर में होने वाला दुराचार, किसी के द्वारा ठगा जाना, किसी के द्वारा अपमानित होना, ये सब बातें किसी दूसरे को कहनी ही नहीं चाहिए ।

अपनी आयु, अपना धन, घर की दुर्बलता, मन्त्रविद्या, मैथुन की बात, औषधि, तप और दान की बात, तथा अपमान इन नौ चीजों को मनुष्य यत्नपूर्वक छिपाए रखें। इनको किसी के भी सम्मुख प्रकट नहीं करना चाहिए ।

क्योंकि कहा गया है कि जिसका विधाता टेढ़ा हो गया हो, जिसका परिश्रम और पुरुषार्थ भी काम न आया हो, ऐसे मनस्वी किन्तु दरिद्र मनुष्य को वन के अतिरिक्त अन्यत्र कहां सुख मिल सकता है ?

स्वाभिमानी मनुष्य मर मिटता है किन्तु किसी के सम्मुख हीन नहीं बनता । ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि बुझती हुई आग भी गर्म ही रहती है ठंडी नहीं होती।

मनस्वी पुरुष के लिए तो इस संसार में दो ही मार्ग रह जाते हैं. या तो फूलों के गुच्छे के समान वह मनुष्य के सिर पर रहता है या फिर वन में ही खिलता है । मनस्वी पुरुष या तो सम्मान से सबसे ऊंचा रहेगा या फिर वनवास ले लेगा ।

मैंने सोचा कि भी मांग कर जीवन यापन करना तो बड़ा हेय कर्म है, वह मैं नहीं कर सकता ।

क्योंकि कहा भी गया है कि धनहीन हो जाने पर यदि प्राणी स्वयं को अग्नि के समर्पित कर दे तो वही उत्तम है । किन्तु निरुपाय होकर किसी कृपण से मांगना उचित नहीं ।

मनुष्य जब दरिद्र हो जाता है तो उसका लज्जा आने लगती है। मनुष्य को जब लज्जा का भास होने लगे तो उसको पुरुषार्थ नष्ट हो जाता है। जब मनुष्य में पुरुषार्थ नहीं रहता तो वह सर्वत्र अपमानित होने लगता है। उस अपमान के कारण उसके मन में ग्लानि होने लगती है । ग्लानि जब होती है तो शोक होना स्वाभाविक है। जो व्यक्ति निरन्तर शोकग्रस्त रहे उसकी बुद्धि विनष्ट हो जाया करती है। और जहां मनुष्य की बुद्धि नष्ट हुई कि वह स्वयं ही विनष्ट हो जाया करता है।

अहो, दरिद्रता अथवा निर्धनता सब विपत्तियों की मूल है। मनुष्य भले ही चुप रहे किन्तु वह झूठ न बोले । मनुष्य को नपुंसक कहलाना श्रेष्ठ है किन्तु परस्त्री गमन उचित नहीं । मनुष्य मर भले ही जाये परन्तु चुगलखोरों के बहकावे में कभी न आये। भले ही मनुष्य को भीख पर जीवित रहना पड़ जाये किन्तु दूसरे की कमाई पर मौज मनाना उचित नहीं है । अपनी गोशाला भले ही खाली रहे, किन्तु उसमें मरखना, कामचोर बैल रहना उचित नहीं। भले ही पत्नी वेश्या हो, किन्तु उसका कर्कशा होना उचित नहीं । नागरिक को भले ही वनमें रहना पड़े, किन्तु वह किसी अविवेकी राजा के राज्य में न रहे। मनुष्य, भले ही प्राण त्याग दे, किन्तु अधम् पुरुषों में रहना उचित नहीं है।

जिस प्रकार सेवा मान को, खिली चन्द्रिका अन्धकार को, बुढ़ापा सौन्दर्य को, और विष्णु तथा शिव की कथा पाप को हर लेती है। ठीक उसी प्रकार याचकता मनुष्य के सैकड़ों गुणों को हर लेती है

तब मैं विचार करने लगा कि क्या अब मैं दूसरों के टुकड़ों पर अपना जीवन यापन करूं? यह तो बड़े कष्ट की बात है। इससे तो मृत्यु भली ।

क्योंकि कहा गया है कि थोड़े से अध्ययन से पाण्डित्य, पैसे देकर किया गया मैथुन, पराधीन होकर भोजन करना पुरुषों के लिए ये तीन महान् विडम्बनाएं हैं।

रोगी, बहुत समय तक परदेश में ही रहने वाला, दूसरे के आश्रित होकर भोजन करने वाला, दूसरे के घर पर सोने वाला मनुष्य यदि जीता है तो वह मरण के समान है और यदि वह मर जाता है तो वह मरण उसके लिए विश्राम के समान है।

ऐसा विचार करने के उपरान्त फिर तो मैंने लोभ के वश भी उस धन को पुनः लेने की चेष्टा नहीं की । है,

क्योंकि लोभ से बुद्धि चंचल हो जाती है, लोभ के कारण मनुष्य में तृष्णा बढ़ने लगती तृष्णा के बढ़ जाने पर मनुष्य इस लोक में और परलोक में भी दुखी रहता है।

उस दिन मैं इस प्रकार सोचता हुआ धीरे-धीरे जा रहा था कि उसी वीणाकर्ण ने, जिसने मेरा धन लूट लिया था, मुझ पर लाठी का प्रहार किया ।

यह देखकर मैं सोचने लगा कि जो धन का लोभी होता है, जो असन्तोषी होता है, जिसका चित्त चंचल होता है, जिसकी इन्द्रियां अपने वश में नहीं होतीं, और जिस मनुष्य को कभी संतोष नहीं होता ऐसे मनुष्य को सब विपत्तियां घेर लिया करती हैं।

इसके विपरीत जिसका मन सन्तुष्ट रहता है उसके पास सब सम्पदाएं विद्यमान रहती हैं। जिस प्रकार जूता पहने हुए मनुष्य के लिए मानो सारी पृथ्वी ही चमड़े से ढकी हुई के समान होती है।

शान्त चित्त और सन्तोषरूपी अमृत से जिनका चित्त तृप्त हो गया है ऐसे मनुष्य को जो सुख प्राप्त होता है धन के लोभ से इधर-उधर ठोकर खाने वाले मनुष्य को वह सुख कहां से प्राप्त हो सकता है ?

जिस मनुष्य ने आशा का परित्याग कर निराशा का आश्रय ले लिया हो समझिये कि वह जीवित होते हुए भी एक मृतक के समान है।

जिसने कभी किसी स्वामी की सेवा नहीं की, जिसको कभी किसी प्रकार के वियोग का कष्ट नहीं सहन करना पड़ा, जिसने कभी दीन बनकर किसी को नपुंसकता का परिचय नहीं दिया, ऐसे पुरुष का ही जीवन धन्य है । किन्तु ऐसे भाग्यवान पुरुष तो इस संसार में बिरले ही हुआ करते हैं ।

जिसको तृष्णा ने घेर लिया है ऐसे मनुष्य के लिए तो सौ योजन की दूरी भी कोई दूरी नहीं होती। किन्तु जो सन्तोषी है उसके हाथ में भी यदि धन आ जाये तो उसके प्रति उसके मन में किसी प्रकार का आदर नहीं होता ।

इसलिए उस समय मैंने सोचा कि जो परिस्थिति उत्पन्न हो गई है उसके अनुसार ही कार्य विचार किया जाये तो अच्छा है। धर्म किसे कहते हैं? प्राणी मात्र के प्रति दयाभाव । सुख क्या है? इस जगत् में रोग रहित जीवन । स्नेह क्या होता है? सबके प्रति सद्भाव । और पांडित्य क्या है ? विचार करके कार्य करना ।

यदि किसी पर विपत्ति आ ही जाये तो विचारपूर्वक कार्य करना ही पांडित्य कहलाता है । जो लोग बिना विचारे कार्य कर लेते हैं उनको पग-पग पर विपत्ति का सामना करना पड़ता है। यह नीति का वचन है कि कुल के कल्याण के लिए एक व्यक्ति का त्याग कर देना चाहिए। यदि ग्राम के कल्याण की बात हो तो ऐसे अवसर पर कुल का परित्याग कर देना चाहिए। यदि जनपद के कल्याण का अवसर उत्पन्न हो जाये तो उसके लिए ग्राम का परित्याग कर देना चाहिए और आत्मा के कल्याण के लिए तो पृथ्वी का ही त्याग कर देना चाहिए ।

अनायास प्राप्त हुआ जल और भय युक्त स्वादिष्ट भोजन ये दोनों ही सुखकर नहीं होते । सुख तो वही है जहां भय का लेश नहीं है। यदि विचार करके देखा जाये तो तथ्य यही है. यों विविध भांति का विचार करके मैं निर्जन वन में आ गया।

क्योंकि कहा भी गया है कि अपने बन्धु बान्धवों में धनहीन जीवन बिताने की अपेक्षा तो भयंकर बाघ और बड़े-बड़े हाथियों वाले वन में रहना ही अच्छा है। घास का बिछौना बना कर सो जाना और पेड़ की छाल के वस्त्र पहन लेना अच्छा है।

मेरे वन में चले जाने पर फिर मेरा भाग्य चेता और मुझे यह लघुपतनक जैसा मित्र मिल गया । यह मेरे पुण्य कर्म ही थे कि लघुपतनक का प्रेम प्राप्त करते ही मुझे आप जैसे भद्रपुरुष का आश्रय मिल गया है। मानो मुझे तो स्वर्ग ही प्राप्त हो गया है।

क्योंकि कहा गया है कि इस संसार रूपी विष वृक्ष के दो ही सरस फल हैं। एक फल तो है काव्य रूपी अमृत का आस्वादन और दूसरा है सज्जनों के साथ निवास ।

यह सुनकर मन्थरक कहने लगा, “धन की धूल के समान है । यौवन पहाड़ी नदी के वेग के समान है। आयु तो जल की बूंद ही की भांति चंचल है। और जीवन तो फेन के समान क्षणभंगुर हैं। एक फूंक में ही समाप्त ।

“इसलिए ऐसी स्थिति में जो क्षुद्रबुद्धि वाला मनुष्य स्वर्ग के द्वार की अर्गला अथवा कुण्डी को हटाने वाला धर्म का कार्य नहीं करता तो वह वृद्धावस्था आने पर पश्चात्ताप करता हुआ शोक रूपी अग्नि में जलता रहता है।

“क्योंकि, आपने अधिक संचय कर लिया था उसका ही दुष्परिणाम आपको भोगना पड़ा ।

“सुनिये, कमाये हुए धन का उचित स्थान पर त्याग कर देना ही उसकी रक्षा करना है । जिस प्रकार जब तक जल बहता रहता है तब तक ही वह पीने योग्य रहता है अन्यथा तालाब या समुद्र के रूप में संचित होने पर फिर वह पेय जल नहीं रह जाता.

“जो कंजूस धन का समुचित उपयोग न करके उसको भूमि के नीचे दबा देता है तो समझ लीजिये की उसने तो उसको रसातल में डालने के लिए स्वयं ही मार्ग बना दिया है ।

“जो कृपण अपने सुख को त्यागकर धन बटोरने की इच्छा करता है उसकी स्थिति तो उस गधे जैसी है जो दूसरे के धन का भार लादता हुआ स्वयं कष्ट पाता है।

“मनुष्य यदि दान और भोग से रहित धन के कारण धनी कहलाता है तो पराये घर में रखे हुए धन से हम भी स्वयं को क्यों न धनी मान लें ?

“कंजूस मनुष्य का धन कभी उसके अपने उपयोग में तो आता नहीं और फिर किसी को यह विदित भी नहीं होता कि उसके पास इतना धन था । जन साधारण को तो उसका ज्ञान तब ही होता है जब वह नष्ट हो जाता है, अथवा चुरा लिया जाता है, और फिर उसके दुख से वह कृपण दुखी होने लगता है।

“मधुर वाणी सहित दान करना, ज्ञान अथवा ज्ञानी का गर्व रहित होना, वीर पुरुष का क्षमाशील होना, और त्यागपूर्ण धन, ये चार बातें संसार में दुर्लभ ही मानी जाती हैं। “यह ठीक है कि मनुष्य को संचय करना चाहिए किन्तु उसको अति-संचय कभी नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार संचय करने वाला एक गीदड़ धनुष से मारा गया । “

उन दोनों ने पूछा, “वह किस प्रकार ?”

मन्थरक बोला, “सुनाता हूं, सुनो। “