ek mutthi chawal
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

उत्तर प्रदेश के एक जनपद गाजीपुर के चंदनपुर गांव में एक गरीब विधवा की टूटी-फूटी झोंपडी थी। गाँव की सड़कें ऊबड़-खाबड़ थीं, बरसों से ग्राम पंचायत ने भी इन सड़कों को दरुस्त कराने के लिए सरकार से नहीं कहा, क्योंकि सरपंच को सरकार के दलालों से मुहँ बंद रखने के लिए पैसा मिल जाता था। गांव में अच्छे स्कूल भी नहीं थे, इसलिए दलित और गरीबों के बच्चे ज्यादा पढ़ नहीं सके।

दलित गरीब तबके के होने के कारण उनका हर कोई शोषण करता था और गांव के जमींदार ठेकेदार और महाजन इस समाज के बच्चों को अपने घर के काम के लिए अकसर बुला लेते थे। उनसे कुँए से पानी भरवाते, घर आंगन की साफ-सफाई करवाते। अपने घर का मल-मैल भी साफ करवाते। इतना अत्याचार करते फिर भी इस समुदाय के लोग असहाय थे क्योंकि दूसरे उच्च जाति के लोगों का बोलबाला था।

विधवा की उस झोंपड़ी में वह और उसकी पोती लीला रहती थी। विधवा रामदुलारी के पति प्यारेलाल का निधन गाँव में फैली हैजे की बीमारी से बरसों पहले हो गया था। क्योंकि गांव में कोई बड़ा अस्पताल नहीं था, जहां उसके पति का इलाज हो सके और शहर गांव से दूर था। शहर के बड़े अस्पताल में जाकर उसका इलाज करा पाना उसके बस में नहीं था। वह बहुत गरीब दलित वर्ग से थी। इसलिए गाँव में अपनी छोटी सी जमीन जो सरकार ने उनके हालात को देखते हुए दी थी, उस पर खेती कर अपना और अपनी पोती का पालन-पोषण करती थी। उसके एकमात्र बेटे राधेलाल और उसकी पत्नी गौरी की भी गांव में आयी महामारी में मौत हो गई थी। अब विधवा के साथ उसकी पोती लीला ही थी जो उसका एकमात्र सहारा था। लीला अब यौवन की दहलीज पर थी। विधवा को उसकी बड़ी फिक्र रहती थी। उस गांव में दलित वर्ग के लोग कम संख्या में थे और उनका गांव के ठेकेदारों, सामंतों, ठाकुरों और जमींदारों द्वारा बहुत शोषण होता था। दलित समुदाय की भूमि पर उपजाए गेहूँ, दाल, तिलहन, गन्ने, सबजयाँ आदि को गांव के जमींदार और महाजन बड़े ही सस्ते दामों में डरा-धमका कर खरीद लेते थे।

एक दिन लीला दादी से कहती है- “दादी तुम दिन-रात खेत में मेहनत कर फसल उगाती हो और महाजन सब ले जाता है। हम कब इससे छुटकारा पाएगें?” दादी का जवाब सदा की तरह एक ही होता- “बेटी वो बलवान है,उनकी ऊँची जात है और पैसे के बल पर वो कुछ भी कर सकते हैं” -विधवा केवल आह भर कर रह जाती। वह अपनी पोती को समझा नहीं पाती थी।

लीला अब धीरे-धीरे इस जातीय फर्क को समझने लगी थी और उसका यौवन गांव के महाजन और जमीदार की आँखों को ललचा रहा था। वे किसी न किसी बहाने से लीला को अपने घर बुलाते और उसे धन-माल का प्रलोभन देते। लीला कभी-कभी आवेश में आकर गांव के जमीदार से कहती- “हम गरीब और लाचार है इसमें हमारा क्या कसूर है? जमींदार उसकी हँसी उड़ाते हुए कहता- “तुम नीच जात हो, तुम्हारा काम ही दूसरो की सेवा करना है और यही तुम्हारी नियति है”

यह सब सुन लीला मन मसोसकर रह जाती।

काम के वक्त जब उसे भूख-प्यास लगती तो ठाकुर के घर के लोग उसे अलग थाली में खाना परोसते और अलग गिलास में पानी देते। गाँव के इन ऊँची जाति के घरों में काम करने वालों के साथ यह अलग थाली और अलग गिलास की रीति थी। उनके खाए बरतन भी घर के किसी कोने में अलग ही रखे जाते। गांव में कोई भी उत्सव या त्योहार हो तो इन लोगों को आमंत्रित नहीं किया जाता था केवल जूठन की पत्तल उठाने के लिए उन्हें बुलाया जाता था और जो बचा-खुचा भोजन होता, वही इनके नसीब में होता। कार्यक्रम के आयोजक कहते- “अरे लीला, नीला, नीलू, शामा आकर इस जगह की सफाई कर दो और तब जो बचेगा खा लेना”

लीला को ये शब्द ऐसे चुभते, जैसे कान में कोई गरम द्रव्य डाल हो रहा हो। कोई भी इसके विरुद्ध अपनी आवाज नहीं उठा सकता था। गांव के थानेदार और सिपाही के सामने उनकी सुनवाई नहीं होती थी। बेवजह उन्हें चौकी बुलाकर मारा-पीटा जाता था सो अलग।

इस गांव में दलित वर्ग के कई और भी कच्चे घर थे। उन घरों में युवतियां थीं जो इन साहूकारों, ठेकेदारों और ठाकुरों के यहां काम करते थे और उन्हें उनके काम के मुताबिक मजदूरी भी नहीं मिलती थी। कुछ लोग तो काम के बदले केवल एक बोरी धान ही देते थे।

लीला को भी उसकी दादी का इस उम्र में इस तरह खेत में काम करना और फसलों को सस्ते में बेच देना अच्छा नहीं लगता था। एक दिन लीला ने हिम्मत जुटाकर अपनी दादी से कहा, “क्यों न हम इस गांव को छोड़कर किसी दूसरी जगह चले जाएं” इस पर दादी ने बड़ी रूआसीं आवाज में कहा- “बेटी! मेरा भी जी करता है हम यहां से चले जाएं, लेकिन इस गांव की मिट्टी में तुम्हारे दादाजी और माता-पिता का खून-पसीना बहा है, इस झोपड़े में उनकी यादें है उनकी आत्मा बसी है, वही मुझे रोक रही है।”

गाँव के इन दलित पिछड़े और गरीब लोगों की इस पीड़ा को कोई जानते हुए भी नहीं समझना चाहता था क्योंकि उन्हें डर था अगर हम आवाज उठायेगें तो पुलिस वाले हम से बर्बरता करेगें और गांव का तथाकथित सामंत वर्ग हमारा साथ नही देगा। इसी तरह समय बीतता गया, पर गांव की तस्वीर नहीं बदली। सरकारें आयीं और गयी लेकिन इन पिछडे, शोषित और दलित लोगों के भाग्य में हर्ष का सवेरा नहीं हुआ। विधवा रामदुलारी भी इसी बीच वृद्धावस्था की बीमारी और पोती के भविष्य की चिंता करते हुए परलोक सिधार गयी।

लीला अपनी प्यारी दादी को खोने के बाद अब असहाय और अनाथ हो चुकी थी। वह जिस गांव में बरसों अपनी दादी के साये में पली-बढ़ी वह गाँव उसे खाने को दौड़ता। कोई भी उसको इस दु:ख की घड़ी में सहारा नहीं दे रहा था। गाँव के जवान लड़कों, ठाकुर, महाराज और साहूकार की ललचाई दृष्टि उसके यौवन पर टिकी थी। सब मौके की तलाश में थे कि कब वे उसे अपनी हवस का शिकार बनाये।

स्थिति को समझते हुए उसने इरादा किया कि अगर उसे जिंदगी में कुछ करना है या बनना है तो उसे यह गाँव छोड़ना ही होगा। एक दिन अचानक लीला तड़के ही उठकर अनजान डगर की ओर निकल पड़ी। उसने ऐसा कुछ सोचा नहीं था कि वह क्या करेगी और कहाँ जाएगी?

वह एक अनजान सफर के लिए शहर की तरफ निकल पड़ी थी। उसने सुन रखा था और गाँव के अखबार में भी पढ़ा था कि शहरों में कन्या आश्रम होते हैं, जहाँ असहाय और अनाथ कन्याओं की देख-रेख की जाती है। दादी जी ने मरने से पहले थोड़ी बहुत राशि उसके विवाह के लिए जमा कर रखी थी। लीला उन्हीं रुपयों को लेकर शहर को रवाना हो गयी।

शहर की डगर पर उसे एक वृद्धा मिली, उसने उसको अपनी परेशानी बताई और मदद माँगी। वृद्धा को लीला की रामकहानी सुन कर उस पर दया आ गयी- “यहां से कछ ही दरी पर सेठ रामजी मल का ‘शामोदेवी कन्या आश्रम है।” मैं भी वहीं ही रहती हूँ और आश्रम के लिए काम भी करती हूँ, तुम वहां चली जाओ, वे बड़े अच्छे व्यक्ति हैं और तुम जैसी कन्याओं के संरक्षण के लिए उन्होनें अपनी पत्नी शामोदेवी के नाम से कन्या आश्रम बनवाया है। सेठ जी के पास धन दौलत और अपार संपत्ति है, लेकिन उनकी कोई संतान नहीं है। उनकी पत्नी ने मरते वक्त कहा था कि कोई बात नहीं, भगवान ने हमें कोई औलाद नहीं दी लेकिन आप एक ऐसा आश्रम बनवाइए जहां वृद्ध, असहाय स्त्रियाँ एवं असहाय लड़कियाँ आश्रय पा सके ताकि हमें यह महसूस न हो कि हमारी कोई संतान नहीं है।”

सेठ रामजीमल जब तक जीवित रहे, उन्होनें अपनी पत्नी के वचनों का पालन किया। कई निःसहाय कन्याओं को इस आश्रम में पनाह दी गयी। उन्हे शिक्षा-दीक्षा दी और उनके जीवन को संवारते हुए समय आने पर उनके विवाह रस्म की अदायगी भी की। आज इस आश्रम को बरसों हो गए। अब इस आश्रम को वहां की व्यवस्थापिका रत्ना देवी संचालित करती है जो एक समय वहां अनाथ कन्या के तौर पर आयी थी। आश्रम के सभी लोग उन्हें बड़ी दीदी के नाम से पुकारते हैं।

लीला गाँव में रहती थी तो पढ़ाई करने से थोड़ी समझदार भी हो गयी थी। उसने यह भी सुन रखा था कि शहर में कई आश्राम या संस्थाएं ऐसे भी होते हैं, जहां उनकी मदद के नाम पर उनका शोषण एवं अन्य घिनौने कार्य भी होते है। वहां उन्हें कुछ न कुछ प्रलोभन देकर रखा जाता है। न जाने क्यूँ उसे लगा कि इस वृद्धा ने शायद मेरी दादी मां के रूप में आकर ही मेरी सहायता की हो और मुझे मार्ग दिखाया हो। वृद्धा में उसे दादी का चेहरा दिखने लगा।

लीला ने मन बना लिया कि वह उस आश्रम में जाएगी। उसे तुरंत उसका पता मिल गया क्येकि वह आश्रम इस शहर में प्रसिद्ध था और हर कोई रत्ना देवी को उनके समाज सेवी कार्यों के लिए पहचानता था। वह आश्रम में पहूँच गयी। गेट के पास खड़ी एक कन्या से उसने रत्ना देवी से मिलने की मंशा जताई और अपने बारे में उसे बताया। वह कन्या उसे रत्ना देवी के पास ले गई। रत्ना देवी ने भी लीला से कुछ सवाल किए जिससे वह संतुष्ट हो गई और उसे आश्रम में रहने को जगह दे दी।

कुछ वर्ष बीते और अब लीला व्यस्क हो गई थी। वह नित्य आश्रम के काम में रत्ना देवी की मदद करती। गाँव की पाठशाला में उसने थोड़ी-बहुत शिक्षा ली थी और अपनी दादी के दिए हुए संस्कार नेकी, मेहनत, ईमानदारी, निष्ठा और लगन ने उसके उत्साह को बनाये रखा। वह चाहती थी कि वह अपने उसी गाँव में जाकर वहां की स्थिति और गांव की उस जैसी कन्याओं का जीवन सुधारे। उसने अपनी इस सोच से रत्ना देवी को अवगत कराया। रत्ना देवी लीला की निष्ठा, मेहनत और समझदारी से प्रभावित थी, सो उन्होंने उसे मदद करने का वचन दिया।

लीला रत्ना देवी के नक्शे कदम पर चल रही थी, सो देखते-ही-देखते अन्य कन्याओं में वह “छोटी दीदी” के नाम से जानी जाने लगी, अब तो आश्रम के कई महत्त्वपूर्ण कामों में लीला की सलाह ली जाती।

उसने आश्रम की कन्याओं को बागवानी के और खेती-बाड़ी में तरह-तरह की सब्जियों, फल-फूल उगाने के गुर सिखाये। उसने कन्या आश्रम में एक महिला अध्यापिका को नियुक्त किया जिसने कन्याओं को अच्छी किताबें पढ़ाना, वीरांगनाओं की जीवनियाँ सुनाना, मनोरंजन के तौर पर नृत्य, गायन और संगीत सिखाना आरंभ किया। लेकिन उसके मन में यह टीस हरदम रहती थी कि वे गाँव जाकर उन्हें यह दिखाएगी कि पद दलित गरीब असहाय लड़की भी अपने दम पर कुछ कर सकती है।

देखते-ही-देखते वह दिन आ गया। गाँव में उसके पुरखों की जमीन और दादी की झोंपड़ी भी थी। वह एक दिन अपने आश्रम की कन्याओं के साथ वहां गयी और उसने अपनी जमीन में बागवानी कर फल-फूल और विभिन्न प्रकार की सब्जियां उगाई। आश्रम में रहते उसे काम के एवज में रूपया मिलता था, यह सब उन्हीं रुपयों से संभव हो सका। वह फूलों के गुलदस्ते बनाकर शहर में जाकर बेचने लगी। शहर में उसके द्वारा बनाये गए गुलदस्ते दुकानों, दफ्तरों और विशेष समारोह के लिए बिकने लगे। लोगो को उन गुलदस्तों ने आकर्षित किया उन गुलदस्तों में सिर्फ सुंदर फूल ही नहीं गाँव की मिटटी की गंध थी। धीरे-धीरे लीला का यह काम बढता चला गया और उसने शहर में अपने गुलदस्ते और फल-फूल की दुकान खोल ली। उसने अपनी दुकान का नाम अपनी दादी और रत्नादेवी के नाम से ‘रामदुलारी रत्ना फूलवारी’ रखा।

अब अपने पैतृक गाँव में ही नहीं बल्कि शहर में भी लीला की दुकान पर बिकने वाले गुलदस्ते एवं फल-फूल की आवश्यकता बढ़ गयी। उसकी दुकान शोहरत पाने लगी, इस पूरे काम में लीला ने अपने गाँव की लड़कियों को अपना भागीदार बनाया और उन्हें इसके गुर सिखाकर अपने पैरों पर खड़ा होकर आत्मनिर्भर होने का रास्ता भी दिखाया। अब वही साहूकार, ठेकेदार, सामंत, महाजन जो उसकी दादी और उस पर मनमाने अत्याचार करते थे उसकी मेहनत और हिम्मत के आगे अपनी हार महसूस करने लगे।

रत्ना देवी की मदद लेकर लीला ने अपनी मेहनत की कमाई से गांव में कन्या पाठशाला बनवाई। उसका नाम अपनी दादी और रत्ना देवी के नाम से “रामदुलारी रत्ना देवी पाठशाला” रखा। वह नहीं चाहती थी कि जिस तरह वह “एक मुट्ठी चावल” के लिए भी मोहताज रही, गाँव के अन्य लोगों को भी उसकी ही तरह दर-दर की ठोकर खानी पड़े।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’