Jyotirao Phule: भारतीय समाज में फैली कुरीतियों, नारी शिक्षा और पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए अपना संपूर्ण जीवन त्याग करने वाले ज्योतिबा फुले का संपूर्ण जीवन एक आदर्श है। उनकी जीवन यात्रा को आइए विस्तारपूर्वक इस लेख से जानें।
आज के दौर में शिक्षा क्षेत्र में नए पाठ्ïयक्रम तथा आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध हैं, लेकिन उस दौर में जब समाज में शिक्षा क्षेत्र ऊंच नीच के दंश को सहन कर रहा था, उस वक्त ज्योतिबा फुले जैसे समाजसेवकों ने शिक्षा क्षेत्र में चल रहे सामाजिक टकराव को खत्म करने में अहम भूमिका अदा की। दलित समाज के बालकों बल्कि बालिकाओं को शिक्षित करने में फुले ने जो प्रयास किए हैं, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। 28 नवंबर को इस महात्मा की पुण्यतिथि के मौके पर आज की पीढ़ी को यह बताना जरूरी है कि अगर ज्योतिबा फुले नहीं होते तो भारतीय समाज शिक्षा के क्षेत्र में इतनी प्रगति नहीं करता, जितनी उसने की है।
ज्योतिबा फुले 19वीं सदी के समाज सेवकों में अग्रणी स्थान रखते हैं। इन्होंने भारतीय समाज में फैली अनेक कुरीतियों को दूर करने के लिए लगातार संघर्ष किया। नारी-शिक्षा, विधवा विवाह और किसानों के हित के लिए ज्योतिबा ने उल्लेखनीय कार्य किए हैं। सामाजिक विकास तथा देश का हित सामने रखकर इस व्यक्ति ने समाज में शिक्षा के महत्त्व को इस तरह रेखांकित किया कि शिक्षा के बगैर प्रगति नहीं हो सकती, इस बात के सच को सभी ने मन से अंगीकार कर लिया।
11 अप्रैल, 1827 को महाराष्ट्र सातारा जिले में जन्में ज्योतिबा फुले का परिवार बेहद गरीब था। इनके परिवार के लोग जीवनयापन के लिए बाग-बगीचों में माली का काम करते थे। ज्योतिबा जब सिर्फ एक वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया था। ज्योतिबा का लालन-पालन सगुनाबाई नामक दाई ने किया था। सगुनाबाई ने ही उन्हें मां की ममता और दुलार दिया। 7 वर्ष की आयु में ज्योतिबा को गांव के स्कूल में पढ़ने भेजा गया। जातिगत भेद-भाव के कारण उन्हें विद्यालय छोड़ना पड़ा। स्कूल छोड़ने के बाद भी उनमें पढ़ने की ललक बनी रही। सगुनाबाई ने बालक ज्योतिबा को घर में ही पढ़ने में मदद की। घरेलु कार्यों के बाद जो समय बचता, उसमें वह किताबें पढ़ते थे। ज्योतिबा पास-पड़ोस के वरिष्ठ नागरिकों से विभिन्न विषयों में चर्चा करते थे। लोग उनकी सूक्ष्म और तर्कसंगत बातों से बहुत प्रभावित होते थे।
स्कूल में सदैव प्रथम आते थे ज्योतिबा
अरबी-फारसी के विद्वान गफ्फार बेग मुंशी एवं फादर लिजीट साहब ज्योतिबा के पड़ोसी थे। उन्होंने बालक ज्योतिबा की प्रतिभा एवं शिक्षा के प्रति रुचि देखकर उन्हें पुन: विद्यालय भेजने का प्रयास किया। ज्योतिबा फिर से स्कूल जाने लगे, वे स्कूल में सदा प्रथम आते रहे। धर्म पर टिप्पणी सुनने पर उनके अन्दर जिज्ञासा हुई कि हिन्दू धर्म में इतनी विषमता क्यों है? जाति-भेद और वर्ण व्यवस्था क्या है? वह अपने मित्र सदाशिव बल्लाल गोंडवे के साथ समाज, धर्म और देश के बारे में चिंतन किया करते थे, उन्हें इस प्रश्न का उत्तर नहीं सूझता कि इतना बड़ा देश परतंत्र क्यों है? देश की परतंत्रता उन्हें परेशान करती थी। उन्होंने अनुभव किया कि विभिन्न जातियों और संप्रदायों पर बंटे इस देश का सुधार तभी संभव है, जब लोगों की मानसिकता में सुधार लाया जाएगा।
स्त्री शिक्षा पर विशेष जोर

उस समय भारत में स्त्री और दलित वर्ग की दशा तथा दिशा अच्छी नहीं थी। महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता था। ज्योतिबा को इस स्थिति पर बड़ा दु:ख होता था। उन्होंने स्त्री शिक्षा के लिए सामाजिक संघर्ष का बीड़ा उठाया, उनका मानना था कि माताएं जो संस्कार बच्चों पर डालती हैं, उसी से बच्चों का भविष्य निर्भर होता है, इसलिए लड़कियों को शिक्षित करना बहुत आवश्यक है। उन्होंने निश्चय किया कि वह वंचित वर्ग की शिक्षा के लिए स्कूलों का प्रबंध करेंगे, उस समय जाति-पाति, ऊंच-नीच की दीवारें बहुत ऊंची थी। दलितों एवं स्त्रियों की शिक्षा के रास्ते बंद थे। ज्योतिबा इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए दलितों और लड़कियों को अपने घर में पढ़ाते थे, वे बच्चों को छिपाकर लाते और वापस पहुंचाते थे। जैसे-जैसे उनके समर्थक बढ़े, उन्होंने खुलेआम स्कूल चलाना प्रारंभ कर दिया। स्कूल प्रारम्भ करने के बाद ज्योतिबा को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, उनके विद्यालय में पढ़ाने को कोई तैयार नहीं था। कोई पढ़ाता भी तो सामाजिक दवाब में उसे जल्दी ही यह कार्य बंद करना पड़ता था। इन स्कूलों में पढ़ाये कौन? यह एक गंभीर समस्या थी। ज्योतिबा ने इस समस्या के हल हेतु अपनी पत्नी सावित्री को पढ़ना सिखाया और फिर मिशनरीज के नार्मल स्कूल में प्रशिक्षण दिलाया। प्रशिक्षण के बाद वह भारत की प्रथम प्रशिक्षित महिला शिक्षिका बनीं। उनके इस कार्य से समाज के लोग कुपित हो उठे, जब सावित्री बाई स्कूल जाती तो लोग उनको तरह-तरह से अपमानित करते, परन्तु वह महिला अपमान का घूंट पीकर भी अपना कार्य करती रही। इस पर लोगों ने ज्योतिबा को समाज से बहिष्कृत करने की धमकी दी और उन्हें उनके पिता के घर से बाहर निकलवा दिया। गृह त्याग के बाद पति-पत्नी को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, परन्तु वह अपने लक्ष्य से डिगे नहीं।
एक बार महात्मा ज्योतिबा को घर लौटने में देर हो गई थी, वह सरपट घर की ओर बढ़े जा रहे थे। बिजली चमकी उन्होंने देखा आगे रास्ते में दो व्यक्ति हाथ में चमचमाती तलवारें लिए जा रहे हैं, वह अपनी चाल तेज कर उनके समीप पहुंचे। महात्मा ज्योतिबा ने उनसे उनका परिचय व इतनी रात में चलने का कारण जानना चाहा। उन्होंने बताया हम ज्योतिबा को मारने जा रहे हैं। महात्मा ज्योतिबा ने पूछा कि उन्हें मार कर तुम्हें क्या मिलेगा? उन्होंने कहा पैसा मिलेगा, हमें पैसे की आवश्यकता है। महात्मा ज्योतिबा ने क्षण भर सोचा फिर कहा मुझे मारो, मैं ही ज्योतिबा हूं। मुझे मारने से अगर तुम्हारा हित होता है, तो मुझे खुशी होगी। इतना सुनते ही उनकी तलवारें हाथ से छूट गई। वह ज्योतिबा के चरणों में गिर पड़े और उनके शिष्य बन गए ।
सत्यशोधक समाज का किया गठन
महात्मा ज्योतिबा फुले ने ‘सत्य शोधक समाज’ नामक संगठन की स्थापना की। सत्य शोधक समाज उस समय के अन्य संगठनों से अपने सिद्धांतों व कार्यक्रमों के कारण भिन्न था। सत्य शोधक समाज पूरे महाराष्ट्र में जल्दी ही फैल गया। सत्य शोधक समाज के लोगों ने जगह-जगह दलितों और लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूल खोले। छूआ-छूत का विरोध किया। किसानों के हितों की रक्षा के लिए आन्दोलन चलाया। महात्मा ज्योतिबा तथा उनके संगठन के संघर्ष के कारण सरकार ने ‘एग्रीकल्चर एक्ट’ पास किया। 28 नवम्बर, सन 1890 को देहांत होने तक ज्योतिबा फुले ने समाज के लिए इतना कुछ कर लिया था कि हर कोई उनकी प्रशंसा करते नहीं थकता था। महात्मा फुले आधुनिक भारत के सबसे महान शूद्र थे, जिन्होंने पिछड़ी जाति के हिन्दुओं को अगड़ी जाति के हिन्दुओं का गुलाम होने के प्रति जागरूक कराया, जिन्होंने यह शिक्षा दी कि भारत के लिए विदेशी हुकूमत से स्वतंत्रता की तुलना में सामाजिक लोकतंत्र कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। अपने पूरे जीवन में गरीबों, दलितों और महिलाओं के लिए संघर्ष करने वाले इस सच्चे नेता को जनता ने आदर से ‘महात्मा’ की पदवी से विभूषित किया, उन्हें समाज के प्रखर प्रहरी के रूप में हमेशा स्मरण किया जाता रहेगा।
