Knowledge is life
Knowledge is life

Knowledge is Life: मैं एक कहानी निरंतर कहता रहता हूं। बहुत प्रीतिकर है मुझे। वह आपसे भी कहूं। सुना है मैंने कि किसी गांव में छोटी-सी तेली की दुकान पर एक सुबह एक विचारक गया है। जब वह तेल ले रहा है तो उसने देखा कि पीछे तेली का कोल्हू चल रहा है और बैल जो है बिना किसी के हांके कोल्हू को चला रहा है। उस विचारक को बड़ी हैरानी हुई। हम गये होते, हमें कोई हैरानी न होती। हम देखते ही न।
हमें पता भी न चलता कि यह क्या हो रहा है। हम सवाल भी न उठाते। कोई सवाल विश्वासी आदमी कभी भी नहीं उठाता। विश्वासी आदमी के पास जवाब ‘रेडीमेड’ रहते हैं, सवाल बिलकुल नहीं रहते। उस विचारक ने कहा, ‘आश्चर्य, यह बैल तुम कहां से ले आये? यह बैल हिंदुस्तानी मालूम नहीं पड़ता। हिंदुस्तान में तो चपरासी से लेकर राष्ट्पति तक, जब तक कोई पीछे से हांके न, कोई चलता ही नहीं।
यह बैल तुम्हें कहां मिल गया? यह बैल तुमने कहां से खोज लिया? इसे कोई चला नहीं रहा है और बैल कोल्हू चला रहा है!’ उस तेली ने कहा, ‘नहीं, आपको पता नहीं है। चला रहे हैं हमीं इसे भी, लेकिन
तरकीबें जरा सूक्ष्म और परोक्ष हैं,’इनडायरेक्ट’ हैं।’ उस विचारक ने कहा कि मुझे जरा ज्ञान दो। क्या तरकीब है? उस कोल्हू के चलाने वाले मालिक ने, उस तेली ने कहा, ‘जरा ठीक-से देखो, बैल की
आंखों में पट्टिïयां बंधी हैं। बैल को दिखायी नहीं पड़ता है कि कोई पीछे चला रहा है कि नहीं चला रहा है! आंख पर पट्टिïयां बांध दी गयी हैं।’ जब भी किसी से कोल्हू चलवाना हो, तब पहला नियम है- उसकी आँख की पट्टी बांध दो।
विश्वास आंख पर पट्टी बांधना है। …आंख मत खोलो! जो आंख खोलेगा वह नर्क जायेगा। जो आंख बंद रखेगा उसके लिए स्वर्ग और बहिस्त है, जिसमें सब इंतजाम है। आंख पर पट्टी बांध दो। डरा दो कि आंख खोली तो भटक जाओगे।… आंख बंद रखो! इसलिए ग्रन्थ कहते हैं कि संदेह किया तो
भटक जाओगे। …विश्वास रखो!
विचारक ने कहा, ‘यह मैं समझ गया, लेकिन बैल कभी रुक कर भी तो पता लगा सकता है कि पीछे कोई हांकने वाला है या नहीं?’ उस तेली ने कहा, ‘अगर बैल इतना ही समझदार होता तो पहली तो बात है आंख पर पट्टी न बांधने देता और दूसरी बात है, अगर बैल इतना ही समझदार होता तो बैल
तेल बेचता और हम कोल्हू चलाते! हमने काफी सोच-विचार किया है तभी बैल कोल्हू चला रहा है और हम दुकान चला रहे हैं। हमने बैल के गले में घंटी बांध रखी है, जब तक बैल चलता रहता है, घंटी
बजती रहती है, और मैं जानता हूं कि बैल चल रहा है। जैसे ही घंटी रुकी कि हमने छलांग लगायी और बैल को हांका। बैल को पता नहीं चल पाता कि पीछे आदमी नहीं था!… घंटी बंधी है!
विचारक ने कहा, ‘ठीक है, घंटी मुझे भी सुनायी पड़ रही है। एक आखिरी सवाल और तेरा बैल कभी खड़े होकर सिर हिलाकर कभी घंटी नहीं बजाता रहता? उस तेली ने कहा, ‘महाराज! जरा धीरे बोलो, कहीं बैल न सुन ले! और आप दुबारा से कहीं और से तेल ले लेना। यह मंहगा सौदा है। ऐसे आदमियों को आनाजाना ठीक नहीं है। हमारी दुकान बड़े मजे से चल रही है। कहां की फिजूल की बातें उठाते हो? आदमी कैसे हो! कैसे बेकार के सवाल पूछते हो?’

कुछ हैं, जिनका स्वार्थ है कि आदमी अंधा रहे। कुछ हैं, जिनका स्वार्थ है कि आदमी की आंख न खुल जाये। और मजा यह है कि जिन पर हम भरोसा करते हैं, वे ही कुछ नेता, गुरु, मंदिर, मस्जिद-वे ही…वे ही जिनके हम पैर पकड़े हैं, उनका ही स्वार्थ है कि आदमी में विचार पैदा न हो। इसलिए वे विचार की हत्या करते चले जाते हैं। वे जितनी हत्या करते हैं, उतने जोर से हम पैर पकड़ते हैं, हम जितने जोर से पैर पकड़ते हैं उतने जोर से हत्या हो जाती है।… यह चलता रहा है। इसे तोड़ने की तैयारी भारत को दिखानी पड़ेगी। जिस चौराहे पर हम खड़े हैं, अगर वहां से हम विश्वास लेकर ही अगर बढ़े तो हमारा कोई भविष्य नहीं है। इस चौराहे से हमें विचार लेकर आगे बढ़ना होगा।
निश्चित ही विचार और विश्वास की प्रक्रियाएं बुनियादी रूप से अलग हैं। इसलिए प्रक्रियाओं के भेद को समझ लेना चाहिए।
आइंस्टीन से किसी ने मरने के कुछ दिन पहले पूछा कि आप एक ‘विचारक’ में और एक ‘विश्वासी’ में क्या फर्क करते हैं? तो
आइंस्टीन ने कहा, ‘मैं थोड़ा-सा ही फर्क करता हूं। अगर विचारक से नौ सवाल पूछो तो निन्याबे सवालों के संबंध में कहेगा, मुझे मालूम नहीं है और जिस एक सवाल के संबंध में उसे मालूम होगा, वह कहेगा, मुझे मालूम है, लेकिन जितना मुझे मालूम है उतना कह रहा हूं। यह उत्तर अंतिम नहीं है,
अल्टीमेट नहीं है। कल और भी मालूम हो सकता है और तब उत्तर बदल सकता है।’…विचार करने वाले के पास बंधे हुए अंतिम उत्तर नहीं हो सकते। विचार करने वाले के पास सभी प्रश्नों के उत्तर नहीं हो सकते। जिंदगी बहुत जटिल है और जिंदगी बहुत गहरा रहस्य है और जिंदगी में बहुत कुछ अज्ञात बहुत और अनंत है। विचार करने वाले को दिखायी पड़ता है कि अज्ञान बहुत बड़ा है और ज्ञान बहुत छोटा है। जैसे अमावस की रात में एक हाथ में मिटी का छोटा-सा दिया है चारों तरफ घनघोर अंधेरा है और छोटा-सा-मिटी का दिया है और वह ज्योति भी प्रतिपल बुझी-बुझी होती है। हवा के झोंके आते और ज्योति बुझने को होती है और अंधेरा बढ़ने को होता है। प्रतिपल अंधेरा-चारों तरफ ज्योति को घेरे
हुए है। मजा यह है कि उस ज्योति में सिवाय अंधेरे के और कुछ भी दिखायी भी नहीं पड़ता।

विचार के पास अंतिम उत्तर नहीं हो सकते, विचार के पस ज्यादा-से-ज्यादा कामचलाऊ उत्तर हो सकते हैं और विचार के पास सभी उत्तर नहीं हो सकते। विश्वास के पास सभी उत्तर हैं और कामचलाऊ नहीं हैं- अल्टीमेट हैं, आखिरी हैं। विश्वास के लिए सब मालूम है- कुछ अज्ञात नहीं है, कोई रहस्य नहीं है। उसे परमात्मा का घर-ठिकाना भी पता है, स्वर्ग और नर्क की गहराई और लंबाई और चौड़ाई भी पता है। उसे सब पता है!

विश्वासी परम ज्ञानी है और विचारक परम अज्ञानी है। इसलिए हमारे अहंकार को विश्वास में तो मजा आता है, विचार में तकलीफ होती है, क्योकि विश्वास करके हम भी परम ज्ञानी हो जाते हैं, विश्वास
करेहमारे पास भी सभी उत्तर आ जाते हैं। हर चीज का उत्तर है और विचार करके हमारे जो बंधे बंधाये उत्तर थे वे भी खिसक जाते हैं और धीरे-धीरे हाथ खाली हो जाता है। लेकिन, ध्यान रहे! झूठे परम उत्तर, झूठे अंतिम उत्तर, सच्चे कामचलाऊ उत्तरों से भी बेकार हैं। उनका कोई मूल्य नहीं है।
इसलिए हिंदुस्तान को सब पता है और फिर भी कुछ पता नहीं है। परमात्मा का पता है, ब्रह्मï का पता है, माया का पता है, गेहूं पैदा करने का पता नहीं है। स्वर्ग-नर्क सब पता है, साइकिल का पंक्चर जोड़ना पता नहीं है। छोटी-छोटी चीजें पता नहीं हैं और बड़ी-बड़ी सब चीजें पता हैं?… शक होता
है, क्योंकि बड़ी चीजें तभी पता हो सकती हैं जब छोटी चीजों की सीढ़ियों से चढ़ा गया हो लेकिन बड़ी चीजों का पता होने का सिर्फ एक ही कारण है कि उनकी जांच का कोई उपाय नहीं, क्योंकि प्रयोगशाला में कोई परीक्षा नहीं हो सकती कि तुम्हारा ब्रह्मï कहां है? कि तुम्हारा स्वर्ग कहां है? उसकी चंूकि कोई जांच नहीं हो सकती इसलिए मजे से पता है फिर जिसको जो पता है…। मुसलमान अपना पता रखे, हिन्दू अपना, जैन अपना। महावीर के अनुयायी उस समय कहते थे, तीन नर्क हैं। बुद्ध के अनुयायी कहते थे, सात नर्क हैं और बुद्ध के अनुयायी महावीर के अनुयायियों से
कहते थे कि तुम्हारा तीर्थकर जरा ज्यादा
गहरे नहीं जा पाया है, अभी तीन का ही पता लगा पाया है! मखली गोशाल के अनुयायी कहते थे, तुम दोनों के तीर्थकर ज्यादा गहरे नहीं गये, सात सौ नर्क हैं। हमारा पुरुष सात सौ नर्कों का पता लगाकर
आया है। अब यह मजा ऐसा है कि इसकी कोई जांच-तौल नहीं हो सकती कि तीन हैं कि सात हैं कि सात सौ हैं कि सात हजार हैं। यह बच्चों का खेल हो गया। कहानियां गढ़ना हो गया। ये कहानियां गढ़ी जा सकती हैं और हजारों साल तक चल सकती हैं। लेकिन इससे जिंदगी का कोई हित नहीं होता है।
ज्ञान भी सीढ़ियों से यात्रा करता है… और ज्ञान भी पहले जो क्षुद्रतम है उसे जानता है तब विराट तल को जान पता है। विचार की प्रक्रिया जो निकट है उसे जानने से शुरू होती है, विश्वास की प्रक्रिया जो दूर है उसे मानने से शुरू होती है। विचार की प्रक्रिया जो हाथ के पास है, उसे पहचानने से शुरू होती है, विश्वास की प्रक्रिया जो अंतहीन, किसी दूर असीम कोने पर खड़ा है, उसे मानने से शुरू होती है। इसलिए जांच का कोई उपाय नहीं होता है।