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गृहलक्ष्मी कहानियां

आजकल लोग मुझे देखकर दो तरह से रिएक्ट करने लगे हैं। एक तो मिलते ही पैरों की ओर झुक जाते हैं। मैं घबराकर पीछे हटता हूं, अरे-अरे क्या कर रहे हैं? वे ही-ही पर उतर आते हैं- आपकी चरण रज ले रहे हैं। आशीर्वाद प्राप्त हो जाये तो जीवन सफल हो जायेगा।

चरणों की तो खैर कोई बात नहीं। वे हमेशा मेरे साथ ही होते हैं। स्पर्श कराने में भी कोई संकट नहीं है। स्पर्श करने के लिये हमेशा उपलब्ध भी रहते हैं। चरण रज भी कोई लेना चाहे तो सहर्ष दी जा सकती है। मुझे तो घर पहुंच कर, धोकर नाली में बहानी ही है अपने चरणों की रज। लेने वाला ले लेगा तो मेरी मेहनत बच जायेगी। नहीं भी लेगा तो मेरा क्या है, मैं अपने धूल भरे कदमों के निशान छोड़ता हुआ निकल जाऊंगा। समय किसने देखा है। कौन जाने कल कोई आह्वान करने लगे कि लोगों को मेरे पद चिन्हों पर चलना चाहिये। तो कम से कम मेरे पद चिन्ह आसानी से मिल तो जायेंगे।

मैं कल का प्रबंध कर रहा हूं। धार्मिक आदमी हूं। धर्म वालों ने सिखाया है कि इस लोक की चिंता मत करो। परलोक सुधारने पर ध्यान दो। हालांकि कोई बताता नहीं कि परलोक है कहां। कितने किलोमीटर है। जाने के क्या साधन हैं। आस्था के साथ यही संकट है। प्रश्न पूछने की अनुमति नहीं। किसी जिज्ञासा का समाधान नहीं। बस कोल्हू के बैल की तरह चलते रहो। कोई नहीं जानता कि पहुंचोगे कहां।

खैर, मैं बता रहा था कि लोग दो तरह से रिएक्ट करने लगे हैं। एक तो आते ही पैरों की दिशा में दौड़ लेते हैं। इससे फुर्सत मिली तो मांग करने लगते हैं कि मैं उनके कवि सम्मेलन का अध्यक्ष बन जाऊं। तब ज्ञान चक्षु खुलते हैं कि यह तो आयोजक सम्प्रदाय के लोग हैं। इनका चरण-रज लेना बिना शर्त नहीं होता। चरण स्पर्श कार्यक्रम तो मुझे इमोशनली ब्लैकमेल करने के लिये था। जैसे भक्तगण बकरे को सजाकर, गा- बजाकर माता मैया के दरबार में ठिकाने लगाते हैं।

ऐसे ही चरण स्पर्श करके मुझे कवि सम्मेलन की बलिवेदी पर चढ़ाने आये हैं। एक बार चरण छुलवा लिये तो इन्कार किया नहीं जा सकता, अन्यथा अभी जो चरण रज लेने के लिये लालायित हैं, उन्हें गालियां देने के लिये किसी अनापत्ति प्रमाण-पत्र की जरूरत नहीं होगी। स्थानीय सिटी बसों ने समझाया है कि अपने सामान की रक्षा स्वयं करें। इज़्जत पर इस फॉर्मूले को लागू करते हुये मैं पैर छुओ गिरोह का प्रस्ताव मान लेता हूं- और विकल्प ही कहां है? कुर्बानी के बकरे को विकल्प की छूट कहां होती है।

एक बार पत्नी जी से पूछा कि ही ऐसा क्यों होता है। एक सेकेंड भी नहीं लगा। बोलीं- तुम स्वाभाविक बेवकूफ लगते हो, इसलिये। हम बुरा मान गये- क्या बेवकूफ कई तरह के होते हैं? और हम तुम्हें बेवकूफ लगते हैं? पत्नी जी दूसरा सवाल पचा गईं। पहले पर स्थिर रहीं-हां- वे बताने लगीं- प्रतिभा जन्मजात होती है, ऐसे ही बेवकूफी भी होती है। हर आदमी बेवकूफ नहीं हो सकता। कवि सम्मेलन का अध्यक्ष बनने के लिये जो बनावटी बेवकूफ बनने का प्रयास करते हैं, उनकी पोल एक दो आयोजनों में ही खुल जाती है। क्या कवि सम्मेलनों का अध्यक्ष बेवकूफों को बनाया जाता है? – न मिलें तो मज़बूरी है। कोशिश होती है कि कोई कायदे का बेवकूफ मिल जाये तो आयोजन सफल।

जिन आयोजनों की अध्यक्षता करके हम फूले नहीं समाते थे, पत्नी जी ने उन्हीं के लिये हमें बेवकूफ सिद्ध करने का बीड़ा उठा लिया था। हमने प्रतिवाद किया तो पत्नी जी शांत भाव से समझाने लगीं, प्रिय, कवि सम्मेलन का अध्यक्ष श्रोता की तरह स्वतंत्र नहीं होता कि जब तक मन हुआ, तब तक सुना। नहीं तो हूट करके चल दिये। अध्यक्ष उस जुगाडू तुक्कड़ की तरह बुद्धिमान भी नहीं होता, जो आयोजकों को पटाने में सफल हो जाता है कि पहले उसे पढ़वा दिया जाये। वह तो कविता के प्रति समर्पण तथा आयोजकों के सम्मान के कारण आ गया। अन्यथा मैडम लेबर पेन एन्ज्वाय कर रही हैं। उन्हें अस्पताल लेकर जाना था। कौन सा आयोजक इस त्याग के सामने शीर्षासन नहीं करने लगेगा।

अध्यक्ष की स्थिति बिल्कुल अलग होती है- उसे कवि सम्मेलन के स्वागत भाषण से लेकर धन्यवाद प्रस्ताव तक झेलने होते हैं। कवितायें भी सुननी पड़ती हैं। और तो और, अपना ही सिर फोड़ लेने लायक कविताओं पर दाद ही नहीं, फिर पढिय़े का नारा भी लगाना पड़ता है। ऐसी हरकतें कोई बेवकूफ ही कर सकता है। इसलिये उसे अध्यक्ष पद के योग्य माना जाता है- पत्नी जी ने अपना वक्तव्य समाप्त किया। हम सदमे में थे- क्या सचमुच अध्यक्षता बेवकूफ ही करते हैं- नहीं, बुद्धिमान भी करते हैं- पत्नी जी रहस्यमय ढंग से मुस्करा रही थीं- वे कविता सुन कर नहीं, बल्कि सामने विराजमान रंगीनी देख-देख कर वाह-वाह करते रहते हैं। इससे कवितायें सुन-सुन कर बीमार होने का खतरा कम हो जाता है। 

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