निषादराज गुह्य कौन थे

रामचरितमानस का प्रसंग है जब भगवान राम जी को चौदह वर्ष का वनवास हुआ था और राम जी देवी सीता जी एवं लक्ष्मण जी के साथ सरयू नदी पार करने के लिए नाव से उस पार जाने के लिए केवट से कहते हैं। वैसे तो रामचरितमानस के हर पात्र अपने आप में एक देवता का स्थान रखते हैं परंतु उन चरित्रों में कुछ चरित्र ऐसे हैं जो सर्वश्रेष्ठ हैं और उनमें से एक है केवट, जिनकी भक्ति बड़ी पावन और शुद्ध रही है जो तंत्र.मंत्र के रूप में नहीं थे जो वस्त्र वेशभूषा में नहीं थे परंतु मन ह्रदय कर्म और वचन से शुद्ध साधु थे। जिन्हें पूजा भाव भी नही आता था। ऐसे ही एक साधु थे केवट जिन्होंने तीनों लोकों के पालनहार की नैया पार लगाई थी।।गुहराज निषादजी ने अपनी नाव में प्रभु श्रीराम को गंगा के उस पार उतारा था। वे केवट थे अर्थात नाव खेने वाले। गुहराज निषादजी की नाव में जब प्रभु श्रीराम विराजें तो क्या हुआ।

निषादराज गुह मछुआरों और नाविकों के मुखिया थे। श्रीराम को जब वनवास हुआ तो वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है। इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था।

 केवट ने पहले उन्हें उपर से नीचे तक देखा और वे समझ गए कि ये तो प्रभु श्रीराम है। श्रीराम केवट से कहते हैं कि मुझे उस पार जाना है तो नाव लाओ।

श्री राम ने केवट से नाव मांगीए पर वो नहीं लाए। वह कहने लगे मैंने आपका भेद जान लिया। आपके चरण कमलों की धूल के लिए सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देने वाली कोई जड़ी बूटी है। जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई ;मेरी नाव तो काठ की है। हे नाथ! मैं चरण कमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा, मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता। हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगंध है, मैं सब सच.सच कहता हूँ। लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारें, पर जब तक मैं पैरों को पखार न लूँगा, तब तक हे हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारूँगा।

केवट के प्रेम में लपेटे हुए वचन सुनकर करुणाधाम श्री रामचन्द्रजी जानकीजी और लक्ष्मणजी की ओर देखकर हँसे। कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी केवट से मुस्कुराकर बोले भाई! तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाए। जल्दी जल लाओ और चरण धो लो।

केवट श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर कठौते में भरकर जल ले आए। अत्यन्त आनंद और प्रेम में उमंगकर वह भगवान के चरणकमल धोने लगे।

गुहराज निषाद ने पहले प्रभु श्रीराम के चरण धोए और फिर उन्होंने अपनी नाव में उन्हें सीता, लक्ष्मण सहित बैठाया। चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित स्वयं उस जल चरणोदक को पीकर पहले उस महान पुण्य के द्वारा अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनंदपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को गंगाजी के पार ले गए।

निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी नाव से उतरकर गंगाजी की रेत बालू में खड़े हो गए। तब केवट ने उतरकर दण्डवत की। उसको दण्डवत करते देखकर प्रभु को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं। पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनंद भरे मन से अपनी रत्न जडि़त अँगूठी अँगुली से उतारी। कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए।

उसने कहा हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी। हे नाथ! हे दीनदयाल! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। तब करुणा के धाम भगवान श्री रामचन्द्रजी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा किया।

प्रभु श्रीराम ने वचन दिया था कि अयोध्या लौटूंगा तो तुम्हारे यहां जरूर आऊंगा। 14 वर्ष बाद जब श्रीराम अयोध्या लौट रहे थे तो रास्ते में वह कुछ समय के लिए केवटजी के यहां रुके।

आओ जानते हैं गुहराज निषादजी के अनजाने तथ्य

निषादराज गुह मछुआरों और नाविकों के राजा थे। उनका ऋंगवेरपुर में राज था। उन्होंने प्रभु श्रीराम को गंगा पार कराया था। वनवास के बाद श्रीराम ने अपनी पहली रात उन्हीं के यहां बिताई थी। श्रृंगवेरपुर में इंगुदी ;हिंगोटद्ध का वृक्ष हैं जहां बैठकर प्रभु ने निषादराज गुह से भेंट की थी। यह भी कहा जाता है कि केवटजी भोईवंश के थे तथा मल्लाह का काम करते थे।

 निषादराज केवट का वर्णन रामायण के अयोध्याकाण्ड में किया गया है।

मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥

चरन कमल रज कहुं सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥

 निषादजी अपने पूर्वजन्म में कभी कछुआ हुआ करते थे। एक बार की बात है उसने मोक्ष के लिए शेष शैया पर शयन कर रहे भगवान विष्णु के अंगूठे का स्पर्श करने का प्रयास किया था। उसके बाद एक युग से भी ज्यादा वक्त तक कई बार जन्म लेकर उसने भगवान की तपस्या की और अंत में त्रेता में निषाद के रूप में विष्णु के अवतार भगवान राम के हाथों मोक्ष पाने का प्रसंग बना।

 श्रीराम को जब वनवास हुआ तो वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है। इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज से 20.22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था। इलाहाबाद से 22 मील उत्तर पश्चिम की ओर स्थित स्थान प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से परिज्ञात था। रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। यह नगर गंगा घाटी के तट पर स्थित था।

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