लोक साहित्य में राम
Lord ram

Lord Ram: राम को भारत की आत्मा माना जाता है। कण-कण में राम बसे हैं जनमानस में ये भाव बसे हैं। ऐसे ही अनेक तथ्य हमें मिलते हैं सारी दुनिया में। भारत में ही नहीं अपितु विश्व के विभिन्न भूखंड में रामकथा सम्मानित रही है। मध्यकाल में आक्रांताओं ने राम और हनुमान से जुड़े मंदिरों और स्मारकों का अस्तित्व ढूंढ-ढूंढकर मिटाया था। इसका सबसे बड़ा कारण यह नहीं था कि तत्कालीन आक्रांताओं में ज्ञान की कमी थी बल्कि आम जनमानस में रचे-बसे राम के शौर्य, वीरता और ईश्वरी तत्व से आक्रांत भयभीत थे। उन्हें यह लगता था कि कहीं राम पुन: जीवित हो कर उनके मंसूबों पर पानी न फेर दें। एक कारण यह भी हो सकता है कि रामकथा की महत्ता बताने वाली पीढ़ी समाप्त हो गई और तत्कालीन युवाओं में धार्मिक सांस्कृतिक और अपनी धरोहर को संजोकर रखने की प्रवृत्ति समाप्त प्राय: हो गई थी। उन्हें अपने अस्तित्व को बचाए रखने का प्रश्न मुख्य हो गया। संभवत: यह संक्रांति काल था और शिक्षक लुप्तप्राय हो गए थे। मार्गदर्शक कोई नहीं था। इसके वाबजूद रामकथा का अस्तित्व कोई समाप्त नहीं कर पाया।

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लोकोक्ति को समाज का सही मार्गदर्शन दिखाने के लिए रचा गया। धार्मिक एवं नैतिक उपदेश इनमें निहित है। प्रत्येक समाज में प्राचीन काल से परंपरागत रूप से चलती आ रही है। लोकोक्तियों की यह विशेषता है कि वह जीवन के हर पहलू को संबंध रखती हैं। हमारे पूर्वजों ने अपने अनुभव पर आधारित जीवनोपयोगी सुझावों को ऐसे शब्दों में रचा कि वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही हैं। सरल भाषा में गहरी-से-गहरी बात को सूक्ष्म-से-सूक्ष्म शब्दों में समेट देना मानव ज्ञान का श्रेष्ठ उदाहरण हैं लोकोक्तियां। जिससे बात कहने और सुनने वाले के मध्य किसी तरह का तनाव उत्पन्न नहीं होता। इतना ही नहीं बल्कि लोकोक्तियां समाज के प्रत्येक वर्ग को एक स्तर पर जोड़ने का काम करती हैं।
लोकोक्तियों का चलन प्राचीन समय से ही होता आ रहा है। अत: लोकोक्तियों के माध्यम से हम हमारे पूर्वजों का जीवन के प्रति दृष्टिकोण और उस समय की व्यवस्था को समझ सकते हैं। पांच गंवई लोकोक्तियों, गंवई गीतों या लोकगीतों के बोल से लोकमानस में राम पीढ़ियों से सारी दुनिया के मानव समाज में रचे बसे रहे हैं। राम पर आम जनमानस कितना विश्वास करता है, कितना आत्मीय रिश्ता रखता है, देवता भी मानता है, सखा भी और अपने घर के सदस्य जैसा भी, अर्थात राममय रहा है प्राचीन काल से मनुष्य।

रामजी के चिरईं रामजी के खेत
खा ले चिरइयां, भर भर पेट

गांव में गाया जाने वाले गीतों में मनुष्यों के भोजन या संसाधन पर दूसरे जीवों का भी बराबर हक है इसका बोध कराया जाता है। इसका भावार्थ है कि सब चिड़ियों राम का ही है। राम जी की ही चिरईं है, राम जी का ही खेत है इसलिए चिरईं पहले भर पेट खेत में खाएगी, तब दूसरे को मिलेगा।

रामे रामे रामे हो रामा,
रामेजी के नइया हो,
रामे लगइहें बेंड़ा पार नु ए राम
भोजपुरी लोकगायन में एक मशहूर कथागीत गायन की विधा है सोरठी। इसका पूरा नाम है सोरठी बिरजाभार। इस सोरठी बिरजाभार में बोल गीत की आधार पंक्तियों की तरह होता है। इसका भावार्थ है कि यह जो जीवन की नाव है, वह राम जी की ही कृपा से है और इस नाव का बेंड़ा राम जी ही पार लगाएंगे।

रामजी के माया, कहीं धूप कहीं छाया
राम को लेकर हर समाज में एक अलग विश्वास रहा है। जीवन में दुख आने के बाद लोग कहते हैं कि सब राम जी की माया है और इसके लिए इस मुहावरे का इस्तेमाल करते हैं कि यह राम जी की माया है कि कहीं धूप है तो कहीं छाया है। कहीं सुख है तो कहीं दुख है।

राम नाम सत्य है
मृत्यु के समय में अर्थी जब निकलती है तो पीछे चलने वाले राम का ही स्मरण करते हुए चलते हैं। यह परंपरा कब और किसने शुरू की, यह अज्ञात है।

जिसके राम धनी, उसे कौन कमी
जो भगवान के भरोसे रहता है, उसे किसी चीज की कमी नहीं होती। यह दर्शाता है कि प्राचीन काल में राम पर जनमानस का अटूट विश्वास था। श्रद्धा थी। आस्था थी।

मुंह में राम बगल में छुरी
बाहर से मित्रता दिखाना मगर अंदर बैर का भाव रखना। यह समाज के वैचारिक और सामाजिक मूल्यों के विघटन का सूचक है। इसके बाद भी राम जनमानस के हृदय में बसे रहे।

दुविधा में दोऊ गए, माया मिली न राम
अनिश्चय की स्थिति में काम करने पर एक में भी सफलता नहीं मिलती। दुविधा मानसिक असंतुलन को दर्शाती है। यदि राम पर विश्वास है तो पूरी शिद्दत से काम को शुरू करने वाले की कभी हार नहीं होती। वह कार्य संपन्न करके ही दम लेता है। यही कारण है कि बड़े-बुजुर्ग हमेशा यही शिक्षा देते थे कि जो भी काम करो मन लगाकर उसे पूरा करो।

राम मिलाई जोड़ी, एक अंधा एक कोढ़ी
दो मनुष्यों के एक ही तरह का होना। सामाजिक विविधताओं और लक्षणों को भी लोकोक्तियों में स्थान मिला। यहां व्यंग्यात्मक शैली में यह कथन है। दो व्यक्तियों के स्वभाव, कार्य और मित्रता पर व्यंग्य है। दोनों महामूर्ख हैं। उनके काम भी उसी के अनुरूप हैं।

राम राम जपनाए पराया माल अपना
ढोंगी मनुष्य दूसरों का माल हड़पने वाले होते हैं। समय परिवर्तनशील है और समाज भी उसी बदलाव का एक भाग है। परिस्थितियां मनुष्य को बदलने पर विवश कर देती हैं और ऐसी स्थिति में मनुष्य सत्कर्म के स्थान पर दुष्कर्म की ओर अग्रसर हो जाता है।

सारी रामायण सुन गये, सीता किसकी जोय (जोरू)
सारी बात सुनने के बाद साधारण-सी बात का भी ज्ञान न होना मनुष्य के मानसिक असंतुलन को प्रदर्शित करता है। विवेक की कमी दर्शाता है। अशिक्षित होने का आभास होता है।

प्राचीन काल से संगीत, मानव-मन को शांति प्रदान करने का एकमात्र साधन रहा है। मनुष्य अपनी भावनाओं को संप्रेषित करने के लिए संगीत का सहारा लेता है। ‘लोक का अभिप्राय साधारण जनता से है, जिसकी कोई व्यक्तिगत पहचान नहीं होती अपितु सामूहिक पहचान होती है। लोकगीत, कोई एक व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरा लोक समाज अपनाता है। सामान्यत: लोक में प्रचलित, लोक द्वारा रचित एवं लोक के लिए गाये गीतों को लोकगीत कहा जाता है। ‘रामचरितमानसÓ के पात्रों से प्रभावित कई लोकगीत प्रसिद्ध हैं, जिनमें श्री राम जनम, उनकी शौर्य गाथा तथा सिया-राम विवाह से जुड़े असंख्य लोकगीत जो आज भी शादी-ब्याह की शान हैं।

विद्वानों ने लोकगीत के अनेक प्रकार बताए हैं। यहां हम केवल राम से संबंधित लोकगीतों के विषय में जानकारी दें रहे हैं-

राम से संबंधित अनेक लोकगीत प्रचलित हैं। गांवों में लोकप्रिय लोक गीत रहा है। जिसमें धान की खेती के समय नयी बहुओं को चिढ़ाने के लिए गाया जाता था। कुछ एक प्रसंग ऐसे भी मिले हैं कि गर्भवती स्त्री को भी सुनाया जाता था। यह एक प्रहसनी लोकोक्ति गीत है लेकिन इसमें भी राम का नाम पहले लिया जाता है।

विद्वानों का मत है कि लोकगीत को संस्कार गीत भी कहा जाता है। जिसे श्रद्धा-भक्ति से गाया जाता है। शिशुओं के जन्मोत्सव पर गाये जाने वाले गीत, मुंडन संस्कार के गीत, उपनयन संस्कार आदि गीत इसके कुछ एक उदाहरण हैं। जब संस्कार गीत की बात होती है, तो ललना गीत सब से प्रचलित है। ललना आज भी उतना ही लोकप्रिय और प्रसिद्ध है, जितना कि त्रेतायुग में राम जी के जन्म पर रहा होगा।

हमारी दादी-नानी थलियां-लोटा बजाकर गाया करती थीं। आज भी यह परम्परा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित है। रेडियो के माध्यम से जन्मदिन के अवसर पर ललना गीतों की मांग अभी भी की जाती है तथा स्थानीय कलाकार अपने धुन में इन गीतों को गाते-सुनाते रहते हैं।

सोलह संस्कारों में दसवां संस्कार है उपनयन है। इसे यज्ञोपवीत भी कहा जाता है। प्राचीन काल से विद्या ग्रहण से पूर्व यह संस्कार शिक्षार्थी के सर्वांगीण विकास के लिए किया जाता रहा है। बाल्यावस्था में राम अपने तीनों भाई सहित जब गुरुकुल के लिए प्रस्थान हो रहे थे, उसी सन्दर्भ में एक लोकगीत है। उपनयन संस्कार गीत।

भारतीय समाज एवं सनातन धर्म में संस्कारों का बहुत बड़ा महत्त्व है। हम जीवन में कुछ नया कार्य प्रारंभ करने हेतु तत्पर होते हैं तो कार्य की सफलता के लिए परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं। सीता भी अपने विवाह से पूर्व माता गौरी से योग्य वर व देवर की कामना करती है। बिरहा लोकगीत-
बड़े-बुजुर्ग कहा करते थे कि हमारे परदादा अपनी व्यथा बिरहा गाकर सुनाया करते थे। परिस्थिति चाहे जैसी भी हो, घर की चाहे जैसी भी दशा हो, बहु-बेटियां हर मुश्किल का सामना करती हुई जीवन ले जाती थी, पर कभी बड़ों के सामने मुंह नहीं खोलती थीं। उनमें अपार सहन शक्ति थी। घर-गृहस्थी पर कभी आंच आने नहीं देती। बस प्रभु राम नाम का ही आसरा था। लोकगीत सामान्य मानव की सहज संवेदना से जुड़े हैं। भारतीय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी के शब्दों में- श्लोकगीतों में धरती गाती है, पर्वत गाते हैं, नदियां गाती हैं, फसलें गाती हैं और उत्सवों के अवसर पर मधुर कंठों से लोक समूह लोकगीत गाते हैं।

पूर्व काल में होली के अवसर पर चालीस दिनों तक चौताल गायन हुआ करता था। आज भी अनेक स्थानों पर चौताल की प्रतियोगिताएं होती हैं। जिनमें बुजुर्ग और युवा सभी भाग लेते हैं। झाल-मंजीरा, ढोलक बजाते लोग बड़ी खुशी के साथ चौताल गाते थे और गाते हैं। विश्वास है कि लोकगीत की यह प्रथा आगे भी जारी रहेगी। मॉरीशस में चौताल गायन परंपरा आज भी जीवित है।

विवाह से पूर्व वर पक्ष एवं कन्या पक्ष से सम्बंधित लोकगीत का भी उल्लेख मिलता है। यह गीत रामायण से पूर्णत: सम्बन्ध रखते हैं। यह लोकगीत आज भी हमारी संस्कृति से जुड़े हुए हैं। आधुनिक विवाह गीत युवा जनमानस में कितने ही लोकप्रिय हो जाएं फिर भी बुजुर्ग महिलाएं पारंपरिक लोकगीतों से ही विवाह समारोह की शोभा बढ़ाती हैं।

राम लक्ष्मण और सीता चौदह वर्ष वनवास के लिए अयोध्या से निकलकर गंगा नदी के तट पहुंचते हैं। जहां केवट मिलता है। राम केवट से नाव मांगते हैं लेकिन केवट नहीं मानता है। कहता है कि मैं तुम्हारा भेद जान गया हूं। तुम्हारे चरणों के स्पर्श से पत्थर सुन्दर स्त्री बन गयी थी। मेरी नाव तो लकड़ी की है और यही मेरे परिवार के भरण पोषण का आधार है। केवट राम के चरण धोते हैं। इसके बाद ही उन्हें श्रद्धा भाव के साथ गंगा पार करवाते हैं। यह लोकगीत हमारे सांस्कृतिक धरोहर हैं।

रामायण मानव चेतना के निर्माण का अद्भुत रसायन है। लोक मंगल, मर्यादा व विवेक से रहने की कला रामायण से प्राप्त होती है, अर्थात् रामायण से नि:सृत लोकगीतों की प्रासंगिकता आज भी है। रामचरितमानस संतमुखश्रुत से लोकगीतों के रूप में विख्यात होने लगा। इसमें निहित उपदेशों को लोक जीवन में नित्य रूप से उतारा गया। राम का चरित्र लोक हिताय है। यही कारण है कि लोकगीतों में श्री राम की छवि मनभावन बन पड़ी है।

निस्संदेह महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण ग्रंथ मानव जीवन के प्रत्येक पहलु से संबंधित है। जन्म से लेकर अंतिम यात्रा तक रामायण के मूल्यों से लोक जीवन को दिशा प्राप्त होती है। इस मोह-माया के बंधन से मुक्त होकर जब मनुष्य अपनी काया को छोड़ अपनी अंतिम यात्रा की तरफ चल पड़ता है, तब भी सगे-सम्बन्धी रामनाम सत्य दोहराते हुए ले चलते हैं। कहीं-न-कहीं इन लोकगीतों में राम के जीवन प्रसंग मिल जाते हैं।

श्रीरामचरितमानस से मॉरीशस का बहुत गहरा संबंध है। इतिहास पीढ़ी-दर-पीढ़ी यही साक्षात्कार करता आ रहा है कि 18वीं शताब्दी में लगभग 4,68,000 शर्तबंध मजदूरों को भारत से यहां दीन-हीन अवस्था में लाया गया था। हमारे पूर्वज साहसी थे। ऐसी विषम परिस्थिति में उनकी अपनी संस्कृति, संस्कार और साहित्य ही एक मात्र साथी था। संस्कृति और संस्कार जीवनशैली के रूप में विद्यमान थे और हाथों में था अमर साहित्य श्री रामचरितमानस। श्रीरामचरितमानस ने इन लोगों के जीवन में संजीवनी बूटी का काम किया। राम से बड़ा राम का नाम होता है। यह लोकोक्ति अमृतवाणी बन गई। अमृतवाणी ने राम नाम से ऐसी लीला मॉरीशस में रचाई कि आज भी वहां राम का नाम सर्वमुख है।
मॉरीशस छोटा-सा देश है परन्तु जिस गति से रामायण के लोकगीतों का प्रचार-प्रसार यहां हुआ है वह प्रशंसनीय है। ज्ञातव्य है कि मॉरीशस में 31 अगस्त, 1990 को आयोजित छठे रामायण सम्मेलन के समय मॉरीशस के दो गांवों के नाम बदले गए थे। उत्तर प्रान्त में ‘हेर्मिताज गांव का नाम ‘पंचवटी’ और ‘अपर वाले दे प्रेत्र’ का नामकरण हुआ था ‘चित्रकूट।

प्रकृति के कण-कण में भी संगीत की सुरमई धुनें व्याप्त हैं। हवा संगीत लहरी है। पत्तों की सरसराहट में संगीत से संगीत उपजता है। नदियों में कल-कल करती धाराएं बहते पानी में संगीत का आभास कराती हैं। पक्षियों के कलरव में भी संगीत झलकता है। झींगुरों के ध्वनि समूह-गान की भांति प्रतीत होती हैं। सर्वत्र व्याप्त संगीत से भला कोई कैसे अलग रह सकता है। क्या प्रकृति के बीच पला-बढ़ा व्यक्ति संगीत से दूर रह सकता है?

संगीत हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। हमारे पूर्वजों ने अपने साथ न सिर्फ अपने धार्मिक-ग्रन्थ, अपितु अमूर्त विरासत के रूप में लोकगीत को भी नहीं छोड़ा। सुख-दुख के साथी ‘रामचरितानसÓ से नि:सृत लोकगीतों ने हर कदम पर साथ हर युग में एवं हर भूखंड पर निभाया है।