धैर्य सिन्धु, विवेकपुंज राम: Lord Ram
lord ram

Lord Ram: मन में विचार कीजिये और सोचिए की क्यों श्री राम जनमानस में इतने लोकप्रिय हुए। उनका धैर्य और विवेक ही जो उन्हें श्रेष्ठ बनाता हैं।

राम होना है कहां आसान जग में,
हैं बहुत से शूल पुरुषोत्तम के पग में
मर्यादा पुरुषोत्तम, धैर्य-सिन्धु, करुणानिधि न 
जाने कितने नाम हैं भगवान राम के।

रामजी का विशेष स्थान है सबके हृदय में। जो उतने ही निर्बल के हैं जितने सबल के, सरल, धीर-गम्भीर और स्नेहिल, जो कर्तव्य और मर्यादा से यूं बन्धे हुए हैं कि मानव का जन्म लेकर सबके आराध्य बन गये। ‘रामजी’ का नाम लेते ही सबसे पहले आंखों के सामने गेरुआ वस्त्र पहने, कंधे पर धनुष लिये, बाणों भरे तुणीर के साथ बड़े-बड़े नयनों वाली एक सौम्य मुखाकृति आ जाती है।
और राजा राम का चिंतन कीजिये तो प्रजा के कल्याण को रात-दिन चिन्तित एक ऐसे राजा का चित्र जिसके निजी हित से ऊपर है राष्ट्रधर्म। संसार के नाते रिश्ते की कसौटी पर खरे सोने से उतरने वाले जिनकी कामना सबको है।

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गुरु, माता-पिता, भाई, पत्नी मित्र, पुत्र या प्रजा सबको ही मर्यादा पुरुषोत्तम राम चाहिये। अन्यथा वर्तमान समय में भी रामराज्य की उपमा अस्तित्व में ही न होती। कहते हैं कि सूर्यवंश में जन्में भगवान राम बारह कलाओं से सम्पन्न थे, पेड़-पौधों में दो, मानवों में पांच और विशिष्ट ऋषि-मुनियों में सात से आठ कलाएं होती हैं। आठ से नौ कलाओं की अभिव्यक्ति जहां देवों और उपदेवों में मिलती है वहीं दस से अधिक कलाएं मात्र अवतारी सत्ताओं में ही दृष्टिगत होती है। फिर प्रश्न उठता है कि हमें भगवान राम के चरित्र का अनुकरण करने को क्यों कहा जाता है?
अब अगर वो भगवान हैं तो हम साधारण मानवों से अलग होंगे ही, हम इंसान होकर उनकी बराबरी किस प्रकार कर सकते हैं।

तो आइए जरा एक नजर डालते हैं उनके गुणों पर…
गुणवान, धर्मज्ञ, सकारात्मक, कृतज्ञ, सत्यनिष्ठ, दृढ़प्रतिज्ञ, सदाचारी, सभी के रक्षक या सहयोगी बुद्धि व विवेक सम्पन्न, सामर्थ्यवान, प्रियदर्शन, जितेन्द्रिय, शान्त व सहज, वीर्यवान अर्थात स्वस्थ व संयमी धनुर्धर जिसके क्रोधित होने पर देवताओं में भी भय व्याप्त हो जाये।
फिर क्यों वह अवतारी साधारण मानव का चरित्र जीने के बाद भी आज तक प्रासंगिक है?
कैसे जनमानस का इतना प्रिय हो गया कि मानव जीवन की अंतिम यात्रा भी उनका ना म लिये बिना सम्पूर्ण नहीं होती।

मनुष्य से लेकर देवों तक के प्रिय भगवान राम का जन्म सूर्यवंशी महाराजा दशरथ और महारानी  कौशल्या के यहां हुआ। उनके जन्म से पहले उनके निसंतान माता-पिता ने दिव्य गुणों से सम्पन्न पुत्रों की कामना से श्रृंगी-ऋषि से अनुनय की। उन्होंने उनसे सभी रानियों के साथ पुत्रेष्टि यज्ञ को सम्पन्न करवाया। उनकी सभी रानियां भी उत्तम व्रत का पालन करने वालीं थीं। जैसा कि विदित है कि अच्छी उपज की प्राप्ति के लिये धरती का उपजाऊ होना आवश्यक है उसी प्रकार उत्तम सन्तान के लिये माता भी सत्वगुणों का अनुपालन करने वाली होनी चाहिये। हमारे सनातन धर्म में उच्चकोटि की आत्माओं को सन्तान रूप में प्राप्त करने के लिये कई व्रतों और यज्ञों का वर्णन है।

कोशल देश की राजकुमारी महारानी कौशल्या स्वयं मानवोचित गुणों से सम्पन्न थीं, तो यदि हम रामजी को एक साधारण मनुष्य भी माने तो उन पर माता का प्रभाव होगा ही। उनका जन्म पुनर्वसु नक्षत्र में हुआ जो उन्हें बार बार नये तरीके से उजड़ने बसने और हर परिस्थिति में विवेकवान बनाये रखता है। अब प्रश्न यह भी उठता है कि धर्म आखिर है क्या…क्या कोई विशेष पंथो….
धर्म की परिभाषा है ‘धर्म इति धार्येत’ अर्थात आपका दैनिक जीवन में उपयोगी न्यायपूर्ण व्यवहार जिसे धारण किया जा सके। वो इतने सरल व सहजता भरे स्वभाव के थे कि अपने बड़प्पन का प्रयोग बड़ी ही कुशलता से करते हैं। बाल्यकाल में अपने छोटे भाइयों को प्रसन्न रखने के लिये उनसे खेल में भी हार स्वीकार कर लिया करते थे। शान्त भरत भी उनसे उतने ही सहज हैं जितने की सहज क्रोधी लक्ष्मण व शत्रुघ्न, राम की आज्ञा सभी के लिये  मान्य है।

मातृधर्म का पालन करते समय वह उनकी दोनों विमाताओं महारानी कैकेयी व सुमित्रा के साथ कोई भेद नहीं करते। उनके पुत्रों भरत जी व शत्रुघ्न व लक्ष्मण में अपने ज्येष्ठ भाई राम के लिये इतना स्नेह, आदर व प्रेम है जो आज के स्वार्थी  समय में किवदन्ती ही लग सकता है।
रामायण में हर पात्र के जीवन में कभी न कभी विचलन, क्रोध एवं व्यथा देखने को मिलती है, परन्तु राम सबसे अछूते रहे।

अब प्रश्न यह उठता है कि सभी भाई प्रियदर्शन हैं तो राम में क्या विशेष है?
गुरुकुल में राजसी सुखों को त्याग एक सामान्य बालक की तरह शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी उनमें राजपुत्र होने का कोई अहंकार नहीं। वो कुशाग्र होने के साथ-साथ बड़े विनम्र उनकी विनम्रता का परिचय तब भी मिलता है। वो आज्ञापालन के समय तर्क नहीं करते, न पिता से न गुरु से। जब उन्हें महर्षि विश्वामित्र अपने साथ राक्षसों के संहार के लिये ले जाते हैं। जिस प्रकार पुष्प की सुगंध दूर तक स्वत: फैल जाती है, उसी प्रकार रामजी के यश की सुगन्ध सर्वत्र फैली हुई थी यह उनके अनोखे व्यक्तित्व का ही प्रभाव था। कि अगर हम गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या को पाषाण शिला में परिवर्तित न मान कर उन्हें ऐसी एकाकी, निर्वासित नारी भी मान लें।

जो अपने पति और पुत्र  के साथ समाज द्वारा त्याग दी गयी है, उनकी कुटिया में राम का प्रवेश करना और उन्हें मातृवत सम्मान देना अद्भुत घटना ही है। ऋषि विश्वामित्र से उनके विषय मे जानने के बाद वे उनसे  बिना किसी तर्क के उनके साथ ही उस समाज से पूर्णत: उपेक्षित आश्रम में प्रवेश करते हैं।
यूं तो एक युवराज की राजाज्ञा भी अहिल्या को उनका पुराना सम्मान दिला देती, परन्तु उनका स्वयं वहां जाना, उनके व्यक्तित्व की गरिमा दिखाता है। स्त्रियों को आदर देना, उन्हें मातृ भाव से देखना जिसे राम ने सम्मानित किया वह जगत में सम्मानित हो गया। उसने मिली नवीन विद्याओं को सीखना स्वयं को पूर्णत: गुरु के अधीन रखना भी एक शक्ति सम्पन्न राजपुत्र के लिये सहज तो नहीं।
उस पर भी उनका अपनी मर्यादा में रहने का गुण आज भी शिरोधार्य करने योग्य है जबकि रामायण में बहुत से अवसर आये हैं जहां बड़े-बड़े सिद्ध तपस्वियों ने भी अपना धैर्य खोया है। जनकपुर में सीता स्वयंवर के धनुष भंग से पहले जहां धीर गंभीर विदेहराज राजा जनक भी अधीर हो कर कह उठते हैं- ‘तजहु आस निज निज गृह जाहु, लिखा न विधि वैदेहि विवाहू।’ वहीं श्रीराम पूर्ण सकारात्मक रहते हुए शिवधनुष को चाप चढ़ाने से पहले प्रणाम कर, अपने वरिष्ठों की अनुमति लेते हैं। धनुष भंग होते ही परम क्रोधी परशुरामजी का आगमन होता हैं, उससे अन्य जहां राजाओं में भय व्याप्त हो जाता है। वहीं लक्ष्मण जी उनसे उलझ पड़ते हैं, क्रोधित परशुराम जी को प्रणाम कर सहज भाव से शान्त करना, उनके स्वभाव की गम्भीरता का परिचय देता है।

जब परशुरामजी सा बहुत क्रोधी व्यक्ति सामने हो वातावरण भय और सामूहिक हिंसा के समीप हो, उसे राम जी बड़े धैर्य और विवेक के साथ शान्त कर देते हैं। शिव धनुष भंग जो महाराज जनक की प्रतिज्ञा थी, उसके वह बिना किसी अपराध के परशुराम जी से क्षमा मांग उन्हें प्रसन्न कर लेते हैं।
क्योंकि क्रोधी और अहंकारी व्यक्ति क्षमा और शांतिपूर्ण, विवेकपूर्ण व्यवहार से प्रसन्न जल्दी प्रसन्न होता है। वहीं लक्ष्मण क्रोध में आकर विवाद करते हैं जो परशुरामजी की क्रोधाग्नि में घी की भूमिका निभा देता है। वो परशुराम जी के सामने अपने पराक्रम का शक्ति सम्पन्न होने पर भी व्यर्थ प्रदर्शन नहीं करते और उनके आगे विनम्रतापूर्वक दण्ड के लिये मस्तक झुका देते है।

विवाह के उपरान्त उस काल की प्रथा के अनुसार बहुविवाह के स्थान पर वे माता सीता को एकपत्नी व्रत का वचन देते हैं संभवत: इसमें उन्होंने अपनी माता की पीड़ा को अनुभव किया हो।
गुरुकुल से लौटते ही ऋषि विश्वामित्र के साथ वन में विभिन्न दुरुहताओं को सहने के बाद राक्षसों का संहार तो मात्र बाहर की ही चुनौती है।

सर्वाधिक कठिन चुनौतियों का सामना तो वो अपने घर में ही करते हैं। राम राज्याभिषेक ठीक पहली रात ही, ऐसा विषम  कूटनीतिक, राजनैतिक और पारिवारिक संकट उत्पन्न होता है जो किसी ने सोचा न हो। अगली सुबह महाराज दशरथ द्वारा रानी कैकेयी को दिये दो वरदान का वचन राजपरिवार पर किसी संकट से कम नहीं होता। पहला राम को चौदह वर्ष का वनवास और दूसरा भरत का राज्याभिषेक क्रूर परिदृश्य में बदल देते हैं।

रघुकुल की वचन पालन की परम्परा के कारण महाराज कोप भवन में पड़ी रानी को वर देने को विवश हो जाते हैं। वो राम के वनवास को किसी दूसरे वर से बदलने का प्रस्ताव भी रखते हैं। पर वो उसे स्वीकार नहीं करतीं क्योंकि त्रेतायुग में चौदह वर्ष के वनवास का अर्थ था, बिना सेना का युद्ध।
जिसमें ब्रह्मïचर्य, सन्तान वृद्धि न करना भी जुड़ा था। शेष तापसी जीवन और वन की कठिनाइयों चौदह वर्षो में सारा दृश्य ही बदल देतीं। इतने समय में उनका अधिकार ही समाप्त और प्रजा का विरोध भी न होता। भरत का अधिकार निष्कंटक होता।

लक्ष्मण विकल हो इस निर्णय का  विरोध करते हैं, पर राम सहजता से मात्र धनुष बाण के साथ बल्कल वस्त्र धारण कर वनवास को प्रस्तुत हो जाते हैं। साधारण मनुष्य इस स्थिति में धैर्य और विवेक त्याग देता, पर वो सहर्ष कुलमर्यादा के लिये वन को निकल पड़ते हैं। जब राजा दशरथ की मृत्यु हो जाती है, तो धीर गंभीर भरत भी अपनी मां पर क्रोध करते हैं और रामजी को वापस लाने का प्रयास करते हैं। पर दृढ़प्रतिज्ञ विवेकी राम अपने सुख के लिये पिता का वचन नहीं तोड़ते। हां, वनवास के बाद अयोध्या लौटने का आश्वासन भरत को अवश्य देते हैं। वन में नदी किनारे सभी कठिनाई सहते हुए वो जहां राक्षसों से तपस्वियों की रक्षा करते हैं वहीं वनवासियों को भी आत्मरक्षा सिखाते हैं।
दंडकारण्य में शूर्पणखा से भेंट के बाद उन्हें भी राक्षसों द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले राजनैतिक संकटों का अनुमान होता है।

सीताहरण जैसे संकट से जूझते हुए उनकी यात्रा अनवरत जारी रहती है अगस्त्य मुनि से भावी युद्ध में सहायक विद्याएं सीखते हुए उनकी भेंट हनुमानजी और सुग्रीव से होती है, राम निर्बल और निष्काषित सुग्रीव के बल बनकर बाली का वध करते है। परन्तु स्वयं किष्किंधा नगरी में न प्रवेश करते हैं और न अपना अधिकार जताते हैं। यहां हमें उनका कृतज्ञता के गुण का भी परिचय मिलता है। सीताजी की खोज होने के बाद उन्हें शत्रु की शक्ति भी विचलित नहीं करती। वो मित्र धर्म सुग्रीव, विभीषण और निषादराज से पूर्ण निष्ठा से निभाते हैं।

यहां तक कि शक्ति पूजा के समय एक कमल की अनुपस्थिति में वो अपने नेत्र पर चाप चढ़ा लेते हैं। समुद्र से रास्ते की आस में भी वह पहले विनय को चुनते हैं, उसके बाद बल।
उन्हें लक्ष्मण को शक्ति लगने के अलावा कहीं विचलित नहीं देखा। रावण से युद्ध के समय भी वह देवराज इन्द्र के द्वारा भेजे गये रथ की सहायता को अस्वीकार कर देते हैं। यह उनके चरित्र की उज्ज्वलता ही है कि जहां सीताजी को यह विश्वास है कि राम उन्हें लेने आयेंगे वहीं रावण भी निर्भय होकर सुलोचना को मेघनाथ का शव लेने के लिये राम के शिविर में भेज देता है। रावण वध के उपरान्त वो उससे राजनीति की शिक्षा लेने लक्ष्मण को भेज विद्वान को सम्मान भी देते हैं।

वह सम्पन्न लंका को बाहुबल से विजय करने के बाद भी उसके उचित उत्तराधिकारी को सौंप देते हैं, शत्रु के दल की सभी स्त्रियों का समुचित सम्मान उनके अतिरिक्त कौन कर सकता है। इन सब बातों में कहीं भी उनके किसी दिव्य अवतारी पुरुष  होने जैसी कोई चमत्कारी घटना नजरों के सामने नहीं आती। वो अपने संकट के सभी साथियों का राजा बनने के बाद भी उतना ही सम्मान करते हैं। क्या यह गुण उनके देवपुरुष होने का प्रमाण नहीं हैं। कण से लेकर मन तक, साधारण वनवासी से लेकर राजा तक कौन ऐसा है जिसको राम अपने नहीं लगते। वस्तुत: राम एक जीवनशैली हैं उनके आराध्य शिव की तरह वो श्मशान में रहकर गृहस्थ हैं, राम राजा होकर भीतर से सन्यासी हैं।

जो वन में भी उतना ही संतुष्ट है जितना राजमहल में। राम विवेक की डोर थामे साधारण मानव से कब देवता बन जाते हैं, पता ही नहीं चलता। अजातशत्रु, सरल, निर्मल वो उदाहरण हैं कि शक्ति सम्पन्न होने पर भी स्वयं को किस तरह मर्यादित करें हम। पिता के वचन से लेकर प्रजा के कर्तव्य तक वह कोई त्रुटि नहीं छोड़ते, इसलिये शिव ने संसार को सब देकर राम नाम के ये दो शब्द अपने पास रोक लिये। संसार इसीलिये अंतिम यात्रा में राम के नाम की सत्यता को प्रमाणित कर प्राणी की अंतिम भेंट शिव से करवाता है।