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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

गर्मियों की वीरान-सी दुपहर है। समूची गली एक तरह की नि:स्तब्धता में डूबी हुई। अपने कमरे में दीवार पर लेटी है और मैं अभी-अभी बाहर से लौटी हूँ। गर्मियों, दवाओं, बुढ़ापे और चिन्ताओं से इतर माँ को कुछ भी याद नहीं रहता और मुझे इन दिनों न जाने क्या-क्या याद नहीं आता है। पड़ोस के गुलमोहर, बरामदे में रखी बेंत की कुर्सियों और गर्मियों की ढलती शामों से मुझे पिछली गर्मियों की छोटी-छोटी बातों का ख्याल आने लगता है। मैं बुगनेवेलिया की लताओं को देखती हूँ और मुझे उसके हँसने की आवाज सुनाई देती है।

मैं नहीं जानती थी उसके न होने से, चले जाने से मैं ऐसी व्याकुलता और व्यथा के बीच रहूँगी। उसके शहर छोड़ने के पहले न मैंने उसके बारे में इतना ज्यादा सोचा था, न अपने बारे में। मैं अपनी रिसर्च के अन्तिम पन्ने लिख रही थी। उन दिनों मन में तरह-तरह की आशंकाओं के साथ नौकरी के न रह पाने का डर भी साथ रहा था। किसी-किसी शाम को वह मेरी व्यथा और उदासी को पढ़ लेता, पकड़ लेता और मुझे दिलासा देने के लिए कहता- “जिन्दगी उतनी नीरस भी नहीं है जितनी तुम्हें महसूस होती रहती है।” “ऐसा तुम सोच सकते हो, मैं नहीं।”

“तुम नहीं देखतीं कि कितने ही लोग अपने जीवन को दिलचस्प, उपयोगी बनाने में जुटे रहते हैं…। उनकी भी मुश्किलें होती होंगी…वे क्या मुसीबतों को झेलते नहीं होंगे…।”

“मैं उन लोगों में से नहीं हूँ।”

“यह तुम नहीं कह सकती…।।”

हम दोनों मेरे घर के बरामदे की बेंत की कुर्सियों पर बैठे रहते। गली में शाम उतरती रहती। माँ शाम की सैर पर गयी होती। वे लौटतीं तो हम तीनों बरामदे में ही एक कप चाय पीते।

“गर्मियों में लगता है कि संसार कितना पुराना है।” माँ ने कहा था। “मुझे तो हमेशा ही अपना जीवन बहुत पुराना लगता रहा है… पता नहीं लोग कैसे इतने बरस जीते होंगे।” मैंने कहा था।

और उस शाम हम तीनों जीने की जरूरतों, दिक्कतों और रास्तों के बारे में देर तक बातचीत करते रहे थे। वह अपनी बातों में जिस तरह किताबों और फिल्मों को ले आता, उससे उसकी बातें दिलचस्प हो जातीं। किताबों के लिए उसका अगाध, औघड़-सा अनुराग मेरे लिए हैरानी की बात थी। मैंने अपनी पढ़ाई और अध्यापन के बरसों में हिन्दी के लेखकों, कवियों को जरूर पढ़ा था, पर मैं उसकी तरह दूसरे देशों के लेखकों की कृतियों को नहीं जानती थी। किसी के लिए अपने जीवन में किताब की ऐसी जगह हो सकती है, यह मैंने उसे जानने के दौरान ही जाना था।

गर्मियों की उन लम्बी शामों का, बरामदे में होती रही हमारी बातचीत का, उसके साथ की सैर और संवाद का मेरे लिए अब अर्थ खुल रहा है। ऐसा क्यों होता है कि हम वक्त पर हमारे जीवन में आये लोगों की जगह, को जरूरत को समझ नहीं पाते हैं? मैं हमेशा से ही दूसरों को समझने में असफल होती आयी हूँ। दूसरों को समझने के लिए धीरज, विवेक और गम्भीरता की मुझमें कमी रही है। दूसरों को समझने, समझने की कोशिश न करने की भी वजह से मैं खुद को इतनी अलग-थलग, इतनी बेबस और अधूरी महसूस करती रही हूँ। मैंने उसे समझा होता, तो शायद में उसे इस तरह खोने की पीड़ा से नहीं टकराती।

शुरुआत में वह कभी-कभी मुझे लाइब्रेरी में मिल जाता। मैं उससे उसकी बहन के बारे में कुछ बातें कर लेती। उसकी बहन एम.ए. में मेरे साथ थी और उसका विवाह हो चुका था। वह लाइब्रेरी में कुछ विदेशी पत्र-पत्रिकाओं के लिए आता और मैगजीन सेक्शन में बैठा रहता। एक शाम दिसम्बर के दिनों में निरन्तर बारिश होती रही और हम दोनों लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठे हुए बातचीत करते रहे। उस शाम से मैंने उसे जानना शुरू किया। मैं उसे फालतू, फूहड़ किस्म के लड़कों के साथ कैन्टीन में बैठे हुए देखती रही थी, और मुझे वह वक्त काटने के लिए लाइब्रेरी आ रहे बेरोजगार लड़कों में एक नजर आता था। उस शाम मेरा विचार बदल गया। उसी शाम मैंने अपने पूर्वाग्रह को टूटता हुआ पाया। मुझे लगा कि किसी के बारे में एकदम किसी फैसले पर पहुँच जाना कितना सरल होता है, लेकिन कितना गलत!

धीरे-धीरे हमारी पहचान बढ़ती गयी। मेरा रिसर्च का काम खत्म हो चला था और वह अपने कॉल लेटर की प्रतीक्षा कर रहा था। गर्मियाँ आयीं और हम शाम को सैर के लिए तालाब तक जाने लगे। शुरुआत में माँ भी साथ रहती थी, पर जब उसकी तबीयत बिगड़ने लगी, तो हमने अपने घर के आसपास ही घूमना, बरामदे या छत पर बैठना शुरू किया। कभी-कभी हमारी बातचीत में आयी कोई बात फैल जाती, उसे अधूरा छोड़ने का मन नहीं होता और तब वह रात का खाना हमारे यहाँ ही खाता। मैं खाने के वक्त अपने प्लेयर पर जैज का कोई पुराना रिकार्ड लगा देती और मुझे लगता कि हम घर में नहीं, किसी पुरानी फिल्म के पुराने रेस्तरां में रात का खाना खा रहे हैं। अब महसूस होता है कि उन दिनों मेरे जीवन में कितना कुछ आत्मीय घटता। जिसे हम सुख कह कर बुला सकते हैं, वह कितनी सरलता और चंचलता के साथ गायब हो जाता है।

मेरी पैंतीस बरस की जिन्दगी में पिता के बाद वह अकेला पुरुष रहा, जिसके सामने मैं अपने किसी दुख पर रो लेती थी। उसी के सामने कभी-कभी मैं अपने दुख की पोटली खोल लेती और वह मेरे सन्ताप को इस तरह देखता रहता कि उसके अलावा दुनिया में और किसी चीज का अस्तित्व नहीं है। वह मेरी किसी पीड़ा, किसी परेशानी को सुनने के बाद भी कुछ नहीं कहता और दूसरे दिन जब वह कुछ कहता, तो महसूस होता कि उसने मेरे दुख पर सोचा है, उसके साथ अपना कुछ समय बिताया है। कभी-कभी वह जब मुझे सुनता, तब लगता कि मेरा कहना खत्म ही नहीं होना चाहिए और जब वह कहता. तो मन में आता कि मेरे सनने का अन्त नहीं होना चाहिए। ऐसा कभी-कभी ही होता था।

एक शाम उसे मैं चेखव की कहानियों में आये पात्रों के बारे में अपने इम्प्रेशन बता रही थी। मैंने उसकी कहानियों को पहली बार और वह भी अंग्रेजी में पढ़ा था। उस शाम माँ कुछ अस्वस्थ थी। जन की हवाओं में पड़ोस के पेड़ों से सरसराहटें सुनाई दे रही थीं। फिर बिजली चली गयी और हम बरामदे की आधी दीवार पर रखी लालटेन की रोशनी में पिछली सदी के अन्तिम बरसों के रूसी लेखकों के बारे में बातें करते रहे। जीवन, मृत्यु, प्रेम, नियति, सुख और दुख से उन लेखकों के रिश्तों के बारे में वह बहुत कुछ बोलता रहा था।

“हर आदमी को अपना खुद का संसार बनाने की कोशिश करनी चाहिए।” उसने कहा था।”

“क्या अपने लिए ऐसी इच्छा से हम स्वार्थी नहीं हो जाते?” मैंने कहा था। “बल्कि ऐसा होने से हम दूसरों के अपने ढंग से सुख पाने को समझ सकते हैं…।”

उन्नीसवीं शताब्दी से कुछ रूसी उपन्यासों को बार-बार पढ़ना, उनकी दुनिया में लौटते रहना उसे बहुत अच्छा लगता था। वह कहता भी था कि रूसी लेखकों की कुछ कृतियों ने उसे बहुत कुछ दिया है, बहुत ज्यादा सिखाया है। शुरुआत में फिक्शन के लिए उसके ऐसे आकर्षण को मैं समझ न सकी थी और जब गर्मियों की दुपहरी में मैंने तुर्गनेव के उपन्यासों को पढ़ना शुरू किया, तब मुझे फिक्शन के रहस्यों और रंगों का पहली बार पता चला। कथाओं का अपना संसार था। अपना स्वर्ग और समय। अपना जीवन और जादू। अपनी लालसा और लीला।

मैं उसकी बहुत-सी बातों से असहमति व्यक्त करती और हमारे संवादों के बीच एक तरह का तनाव तैरता रहता। एक किस्म की तकलीफ फैलती रहती। मेरी असहमति, मेरा प्रतिरोध उसे तकलीफ नहीं, तसल्ली देता और उसकी मुझसे यह शिकायत बनी रहती कि मैं छोटी-छोटी बातों पर अटक जाती हैं और इसीलिए बड़ी बातों तक पहुँचने में मझे समय लगता है। उसकी इस शिकायत को मैं न कभी समझ पायी और न कभी वह समझ सका।

वह टकरावों को टालना जानता था। वह उनसे बचने के रास्ते खोज लेता। रिश्तों के बिखर जाने, बदल जाने का डर उसके साथ बना रहता। बचपन में उसके माता-पिता चल बसे और उसका बचपन अपनी बड़ी बहन के साथ नाना-नानी के यहाँ बीता। बचपन के अपने गरीबी के बरसों में कुछ था, जिसकी याद उसे सजीवता देती थी, सुख देती थी। वह अपने भीतर की कितनी चीजों को बचाना चाहता था। वह अपने लिए कितना कुछ सँभाल के रखना चाहता था। खो देने की आशंका, खोने का आतंक उसे घेरे रहता।

उसके भीतर बसी खोने की पीड़ा को मैं उसे खो देने के बाद समझ रही हूँ। अब जब वह मुझसे मीलों दूर, दक्षिण के शहर में अपनी नौकरी कर रहा है तब वह मेरे बहुत नजदीक बना हुआ है। क्या प्रेम इसी तरह पनपता है, इसी तरह छलता है। जब वह हमारे पास आता है, तब हम उसे समझ नहीं पाते, संभाल नहीं पाते और जब वह हमें छोड़कर चला जाता है तब हम उसकी प्रतीक्षा करते हैं, पीछा करते हैं, उसके चले जाने के पछतावे के साथ पलंग पर लेटे हुए दीवारों को ताकते रहते हैं।

गर्मियों का अन्त हो रहा था। बदली, छाया और हवाओं के दिन थे। जुलाई में उसे कॉलेज में अध्यापन के लिए दूसरे शहर में जाना था। एक शाम हम दोनों घूमते-घूमते पुराने तालाब के पड़ोस के पार्क तक गये थे वहाँ बुनकरों की बस्ती थी और शहर की सबसे पुरानी मील का इलाका। लम्बी-चौड़ी दीवारों के बीच खड़ी चिमनियों और उससे निकलते धुएँ को देखकर उसने कहा था, “वहाँ चला जाऊँगा तब इन शामों की बहुत याद आएगी।”

“वहाँ भी तो पार्क, तालाब और चिमनियाँ होंगी।” मैंने मजाक किया था। “ये सब तो रहेंगे, पर वहाँ तुम नहीं रहोगी…।।” मैं उसके उस वाक्य के लिए तैयार नहीं थी। मैं अकबका-सी गयी। वह भी अपनी बात और उसके मुझ पर हुए असर से बेचैन-सा बना रहा। कुछ देर तक हम दोनों खामोश ही रहे। तालाब के ऊपर और बाहर उजाला गिर रहा था। रात शुरू हो चली थी। रास्ते में उसने कहा था। “माफ करना…मैं अपनी भावनाओं को रोक न सका…मैं कुछ दिनों से तुमसे विवाह के बारे मे…।।”

मैं सिर्फ अकबका गयी…मैं इस बात के लिए बिलकुलभी तैयार नहीं थी। “दोष मेरा है…मुझे ऐसी बात को इस तरह कहना नहीं था…।” “तुमने कुछ गलत नहीं किया…तुमने कुछ कहा भी है तो मुझसे कहा है…” ।

“फिर क्या मैं तुम्हारी माँ से बात कर सकता हूँ..।” “अभी नही…। मुझे थोड़ा वक्त चाहिए…मैंने तुम लोगों को लेकर उतना नहीं सोचा है जितना मुझे सोचना चाहिए था…मैं तुम्हें कुछ दिनों बाद बता सकूँगी…” “मैं तुम्हारे उत्तर का इन्तजार करूँगा…।”

उस शाम घर लौटते-लौटते हमने एक-दूसरे के साथ बहुत कुछ साझा किया था। उस रात टेलीविजन पर त्रफी की फिल्म थी, पर मेरा मन कहीं और था, मूड कुछ और था। वह सरल-सी सीधी-सी रात नहीं थी। किसी के हाथ हमेशा आखिरी साँस तक रहने की बात मुझमें तरह-तरह के संशय जगाती रही थी। अपनी बनी बनायी, बसी बसायी दुनिया को छोड़कर किसी दूसरे की दुनिया में, किसी परायी दुनिया जीने की शुरुआत का ख्याल ही मुझे डराता था। रात भर में बिस्तर पर जागते हुए। अपने बारे में, भविष्य के बारे में न जाने क्या क्या सोचती रही। रात की निस्तब्ध घड़ियों में मेरे भीतर यह ख्याल बार-बार लौटता रहा कि मैं किसी के साथ विवाह से सुखी नहीं रहेंगी और न ही मेरे साथ विवाह के बाद कोई सुखी रह सकेगा।

मैंने दूसरों के विवाह के बाद के जीवन को थोड़ा करीब से देखा था। महसूस किया था। लड़कियों का अपनी जगहों, अपनी जिन्दगी को छोडकर नयी जगहों और जिन्दगी में उतरना मुझे एक तरह से उनका विस्थापित होना जान पड़ता था। उस वक्त मैं खुद को समझा नहीं पायी थी कि संसार में, सदियों से लड़कियाँ अपने परिवारों, पुरखों, घरों, मुहल्लों, गलियों और शहरों को छोड़कर नये घर बसाती रही हैं, नये घरों में बसती रही हैं। फिर विवाह के लिए मना करने से पहले मुझे यह भी तो सोचना चाहिए था कि विवाह न करना, परिवार के घेरे से बाहर खड़े रहना क्या जीने का सहनीय विकल्प हो सकता है? मुझे फैसला लेने के पहले उसके साथ और सिर्फ उसी के साथ अपने संशयों, पूर्वग्रहों और तनावों को बाँटना चाहिए था। वह शायद मेरी दुविधा, मेरे दुख को समझ पाता, सह पाता और मेरे लिए कोई रास्ता सुझाता। उसे शायद मेरे मना करने से उतनी तकलीफ नहीं हुई थी जितनी मना कर देने के अपने कारणों को उसे न बताने से। मैं खुद उन दिनों की अपनी जड़ता और मूढ़ता को समझ नहीं पा रही थी। उन दिनों मेरा मन उस पहाड़ की तरह था, जिस पर न मैं चढ़ पा रही थी और न जिससे उतर पा रही थी। एक तरह की फिसलन, एक तरह की उलझन मुझे घेरे हुए थी।

उसके शहर छोड़ने की सुबह रेलवे प्लेटफॉर्म पर ही मुझे महसूस हुआ कि उसकी मझमें दिलचस्पी बझने लगी है। वह मझे सन नहीं रहा था। समझ नहीं रहा था। मुझे लगा कि उसने मुझे चाहना छोड़ दिया था, इसीलिए समझना भी। प्रेम के आलोक में ही दूसरे की व्यथा-कथा को देखा जा सकता था। हमारे बीच अगर प्रेम जैसी कोई चीज पनप पायी थी तो उसे मैं झरते हुए, मरते हुए देख रही थी।

मेरी पीड़ा यह सोचकर गहराती है कि मैं उससे संवाद को बनाये रख सकती थी। उसके शुरुआत में आये पत्रों का उत्तर भेज सकती थी। हम मित्रों की तरह एक-दसरे को सन सकते थे. सह सकते थे। हमारे बीच ऐसा सन्नाटा न होता तो शायद मेरे आसपास ऐसा सूनापन भी नहीं होता। हमारे बीच शुरुआत की, दुबारा शुरुआत की सम्भावना बनी रहती, अगर हमारे बीच का संवाद बना रहता।

यह सब हो सकता था, पर यह सब हुआ नहीं। यही होता है। ऐसा ही होता है। हमारे पुरखे इसे ही शायद नियति कहते थे। वह मेरे सामने रहता तो बताता कि नियति को स्वीकार करने और सहने का रास्ता किन लोगों ने किस तरह सुझाया था। वह नहीं है, पर व्यथा जरूर है। उसके न होने की। कभी उसके होने की। मैं गर्मियों की इस वीरान-सी दुपहर में अपनी व्यथा को सुन रही हूँ। अपनी व्यथा को बुन रही हूँ।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’