टूटती कसम-गृहलक्ष्मी की कहानी
Tutati Kasam

Hindi Story: मालती जब से मायके से लौटी थी,कुछ उदास सी थी,खोई खोई कुछ सोचती रहती। उसके पति,विजय हंस के उसे छेड़ते:”क्या हुआ इस बार? तुम तो माँ से मिल कर रिचार्ज हो जाया करती थीं पर देख रहा हूं इस बार तुम्हारी बैटरी फ्यूज क्यों हो गयी वहां से लौटकर आने के बाद?”

वो फीकी हँसी से उसे टाल देती,”इन्हें क्या बताऊं मैं?”

पर रहरह कर उसकी आँखों में, माँ का दयनीय चेहरा आ जाता। उसके पिताजी के जाने के बाद रोहन और शिखा दोनों ही कितना बदल गए थे।

माना कि उसका भाई रोहन बड़ा अफसर था और शिखा भाभी भी अच्छी जॉब कर रही थी पर मां का इस तरह अपमान,छोटी छोटी चीजों के लिए उनका तरसना, उससे बर्दाश्त नही हो पा रहा था।

उसे याद आया कि माँ कितने ठाठ से रहतीं,पिताजी उनकी छोटी से लेकर बड़ी फरमाइश पलक झपकते पूरी करते।और रोहन और शिखा भी उनका पूरा ख्याल रखते पर अब ये क्या हो गया था?

उस दिन माँ ने खाने में अपनी पसंद की, जरा चटपटी पिट्ठी वाली उड़द दाल की कचौड़ी और कद्दू की सब्ज़ी ही तो बनवानी चाही थी कि भाभी ने बेदर्दी से अपने कुक को डांटा था कि घर में ये ऑयली और स्पायसी खाना नही बनेगा अब।

अरे ! बूढ़ी आत्मा के लिए कुछ बन ही जाता तो उनका मन और उनकी इज्जत रह जाती पर नहीं,कैसे माँ बेचारी,आंखों में आंसू भर खिसियाई हुई मालती से कह रही थीं:”अरे मुझे डॉक्टर ने मना किया है न,इसलिए बहू मना कर रही है,बाकी तो मेरा ये दोनो बहुत ख्याल रखते हैं।

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मालती जानती थी कि माँ को कोई बीमारी नहीं है और कभी कभी वो ये बहुत स्वादिष्ट चीजें उनके लिए बनाया करती थीं।

जब मालती को ज्यादा परेशान देखा तो उसके पति विजय ने बड़े प्यार से उससे पूछा:”बताओ ! तुम क्या चाहती हो?”

मालती ने उसे टालना चाहा पर उसके जिद करने पर मालती को अपना दिल खोलना ही पड़ा:”मैं मां की दुर्दशा से दुखी हूं और चाहती हूं कि वो हमारे संग ही रहें अब।जब मेरी शादी नहीं हुई थी तब भी मै यही सोचती थी कि मां को उनके बुढ़ापे में अपने संग रखूंगी,उन्होंने बहुत दुख देखे हैं दादी दादाजी के स्ट्रिक्ट और तानाशाही रवैए की वजह से और अब भैया भी भाभी के साथ मिलकर उन्हें दुखी करने लगे।

विजय ने कहा:”देखो,मुझे कोई समस्या नहीं लेकिन अपने व्यवहारिक ज्ञान से कहता हूं कि वो हमारे संग कुछ दिन खुश रह सकती हैं पर हमेशा नहीं।”

“क्यों,आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?” मालती ने प्रश्नवाचक निगाहों से उसे देखा।

एक तो लड़कियों के घर आज भी पेरेंट्स रहने में कंम्फर्टेबल नहीं महसूस करते अपने पुराने संस्कारों के कारण,दूसरा उनका बेटा रोहन अफसर है और हम साधरण नौकरी करने वाले मेहनतकश लोग।
भले ही उन्हें वहां तिरस्कार ही क्यों न मिले पर वो उसीमें खुशी भी ढूंढ ही लेते हैं ,ये मेरा निजी अनुभव है।

मालती ,ये सब मानने को तैय्यार नही थी उसने तो शुरू से मां से यही वादा किया था कि मै आपको बड़े होकर सारे सुख दूंगी,आपकी बेटी,कभी बेटे से कम नहीं होगी,आज वो वादा पूरा करने का असली टाइम आया है इसलिए उसकी खुशी के लिए,अगले ही हफ्ते वो दोनों जाकर उसकी माँ को अपने साथ ले आये।मालती को लगा था कि भाई कहीं नाराज न हो पर उल्टे वो तो खुश हुआ,चलो अच्छा है,यहां मां अकेली पड़ जाती थीं,तुम लोगों के साथ बच्चों के बीच उनका मन लगा रहेगा।

शुरू शुरू में मां बहुत खुश रहीं,कुछ दिन बहु के खिलाफ भरा गुस्सा निकालती रहीं,यहां आकर जैसे उनके पुराने दिन लौट आये थे।
सुबह शाम मालती उनसे पूछती:”माँ,आज क्या बनाऊं ,इस पूजा में क्या सामान मंगाना है,ये काम कैसे करना है आदि आदि।

बस, माँ खुश हो जातीं कि वो घर मे कोई अहमियत अभी भी रखती हैं,उन्हें बेकार सामान की तरह एक कोने में नही सिमटे रहना है। बुढ़ापे में कोई जरा सा पूछ लें,जरा इज्जत दे दे,बूढ़े तृप्त हो जाते हैं।

लेकिन ये ज्यादा दिनों नही चल पाया,अब माँ को अपने बहु बेटे की याद आने लगी थी,बात बात में उन्हें वहां के ऐशोआराम याद आते,यहां सारे दिन मालती और विजय खटते रहते,थोड़ा खाने पीने में भी देख कर ही सामान ला पाते,कितनी ही कोशिश करते कि मां को उनकी तंगी के बारे में न पता चले पर गरीबी कहीं न कहीं दिख ही जाती है,गरीब बेचारा क्या ओढ़ ले और क्या बिछा दे और कितना फटा छिपाए ,कहीं न कहीं छेद दिख ही जाता है।

कभी कभी मालती झुंझलाने लगी थी अब जब मां उसकी तुलना भाई भाभी से करतीं,वो अपने आंसू चुपचाप पी जाती ये सोचकर कि माँ बुढ़ापे में थोड़ा सठिया गयी हैं।

उस दिन रोहन का फ़ोन आया कि वो और शिखा ऑफिस के काम से उनके शहर आ रहे हैं इसलिए उनके पास भी आएंगे।

मां तो छोटे बच्चों की तरह खुश थीं और बेचैनी से उनका इंतजार करने लगीं।कभी मालती को कहतीं अरे उस दिन ये खाना,ये मिठाई बनाना,घर को ऐसे संवारो,इस तरह उनके रुकने का इंतजाम करना वगैरह वगैरह।

आखिर हद होती है सहन करने की,मालती का धैर्य जबाव दे रहा था,एक तो पैसों की तंगी,दूसरे मां लगातार उसे ये अहसास दिलाने पर आमादा थीं कि जैसे वो भाई भाभी को एक दिन रखने के भी काबिल नहीं।

बहुत कमजोर हो ,वो विजय के कंधे पर सर रखकर फूटफूट के रो पड़ी,आप सही कह रहे थे कि माएं अपने बेटों के पास ही खुश रहती हैं।बेटी चाहे कितना भी करे पर शादी के बाद वो पराई ही हो जाती है।

मैं भी ये समझ चुकी हूं ,इस बार रोहन आएगा तो माँ को पक्का उन लोगो के साथ विदा कर ही दूंगी,शायद वो वहीं ज्यादा खुश रहेंगी।

विजय धीरे धीरे उसका सिर सहला रहे थे और मुस्करा रहे थे कि फाइनली इसकी समझ आ ही गया,मैं उन्हें ला कर न रखता तो ये यही समझती रहती कि मैं उन्हें यहां रखने में आनाकानी कर रहा हूँ।

मालती की बचपन की खाई कसम कि वो अपनी मां को बड़े होकर सब खुशियां देगी आज टूट रही थी पर वो इस वास्तविकता से भी परिचित हो रही थी कि माएं अपने बेटे बहू के साथ हो खुश रह पाती हैं और अगर वो समृद्ध हों, ऐशो आराम से युक्त हों तो सोने पर सुहागा है।भले ही समय बदल रहा हो,बेटी बेटे में फर्क नहीं रहा अब लेकिन कुछ संस्कार और मानसिकता हम जन्म से पहले से ही लेकर पैदा होते हैं जिनसे बचना नामुमकिन होता है जैसे मालती की मां का सोचना था,अफसर बेटे बहू की फटकार भी उन्हें गरीब बेटी दामाद के प्यार सम्मान के सामने मीठी लगती थी और इसी वजह से बेचारी मालती की कसम आज टूट गई थी।