तीसरा कदम- गृहलक्ष्मी की कहानियां
Teesra Kadam

Story in Hindi: पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय

सुबह के दस बज गए और यामिनी अपनी दूसरी चाय खत्म कर कॉलेज के बच्चों की कॉपियां जांचती संत कबीरदास जी के इस दोहे को पढ़ रही थी तो मन मयूर को जैसे पंख मिल गए और वह अपने मन पसंद विषय हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में विचरण करने लगी। वैसे तो तुलसीदास और सूरदास से भी उसका खासा लगाव था मगर संत कबीरदास सर्वाधिक प्रिय थे। क्योंकि वह केवल साहित्यकार ही नहीं थे बल्कि एक समाज सुधारक भी थे।

यामिनी इंटरमीडिएट के विद्यार्थियों को पढ़ाती थी। उनके इम्तिहान की कॉपियां जांच रही थी कि सड़क पर होली खेली जाने लगी। होली के त्योहार और इम्तिहान के बीच हमेशा ही जंग होती है। कभी ये पहले तो कभी वो तभी तो यामिनी को होली कभी पसंद नहीं आई। वह ख्यालों में खोई थी कि गली मोहल्ले के बच्चों की आवाजें आने लगी

रंग और गुलाल चहुंओर बिखरा तो पूरी धरा ही जैसे रंगीन हो गई थी। लाल,गुलाबी,पीले,हरे रंग से पुते चेहरे पहचान में नहीं आ रहे थे। हर ओर एक ही शोर कि,’बुरा न मानो होली है’..छोटा- बड़ा हर कोई हाथ में पिचकारी लिए फिर रहा था। पर यामिनी को ये रंग – बिरंगी दुनिया अपनी सी नहीं लग रही थी। उसने विद्यार्थियों के नोटबुक्स को वापस कॉलेज ले जाने वाले बैग में रखा और कोरे दुपट्टे को संभालती यामिनी बचती – बचाती अपने कमरे की ओर बढ़ी मगर तभी पीछे से रंजना भाभी की आवाज़ आई।

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“अपने कमरे में क्यों जा रही हैं दीदी ..आइए न होली खेलें..
“नहीं नहीं.. मैं होली नहीं खेलती..” यामिनी ने अपनी बात रखी

“अरे! ऐसे कैसे आप कोरी रह जाएंगी .. कम से कम गुलाल तो लगाने दीजिए..”

रंजना भाभी ऐसे तो कुछ नहीं कहतीं मगर वक्त बेवक्त यह अहसास दिलाने से बाज नहीं आतीं कि यह घर संसार उनका है यहां ननद रानी का भला क्या काम। कुछ ऐसे ही भाव चेहरे पर उभर आए थे जिसे छुपाते हुए बोल पड़ीं। जैसे उसे पता ही नहीं कि उनके मन में क्या चल रहा है। आजकल हर आवाज़ का कटाक्ष उसे समझ में आता है और हर पुकार दुत्कार सी लगती है। सबके निहित स्वार्थ पहचानने लगी है तभी तो उसे गलत साबित करने में सबको आनंद आता है। उसे कोई भी नहीं भाता।

ऐसे भी वह जब खामोश थी परिवार को पसंद थी मगर जबसे बोलने लगी है उसके प्रति लोगों का नज़रिया ही बदल गया है। सोचने लगी कि उसका कोरापन और कुंवारापन किसी को रास क्यों नहीं आता। क्यों सब उसे अपने रंग में रंगना चाहते हैं जबकि वह बरसों पहले किसी के पक्के रंग में रंग चुकी है। जबरदस्ती क्यों वैसे ही चलना है जैसे परिवार वाले चलाना चाहते है

“दीदी को रहने दो रंजना…होली के रंगों से उन्हें एलर्जी है…”
अचानक भारी भरकम सी एक आवाज़ आई। भाई ने भाभी को टोका था। भाभी से तो पीछा छूट गया मगर भाई की आवाज़ पर वह तुरंत ही पिछली दुनिया में लौट गई। याद है भाई के आईआईटी का रिजल्ट आने पर वह कितनी खुश थी। उससे कहा भी कि यहीं दाखिला ले लो मगर उसका जवाब था ,अगर उसे इसी युनिवर्सिटी में दाखिला मिला तो वह हॉस्टल की गेट पर बैठा रहेगा। वह किस-किस से मिलती है,इस बात की जासूसी करेगा। उसे बहुत बुरा लगा था। उसकी जासूसी करने की भला क्या जरूरत है.. क्या वह कोई देशद्रोही या कोई संदिग्ध व्यक्ति है जिसकी गतिविधि पर नज़र रखना जरूरी है या फिर उसे अपने हिसाब से जीने का हक़ ही नहीं है।
बरसों पुरानी बात का चोट इतना गहरा था कि आज भी उसके पूरे शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गई। घर में बाकी लोगों पर कोई जासूसी नहीं करता। जिसकी जो मर्ज़ी आए करे सबके पास अपनी आज़ादी है मगर उसके मामले ऐसा क्या हो जाता है। क्या वह इंसान नहीं सिर्फ़ एक बेटी या बहन है। वह संबंधों से लिपटी एक निर्जीव सी जीव है तभी तो उसकी खुशी या उसके दुख का कोई मतलब नहीं। यही सोचकर आँखें नम हों आईं मगर दिल में कोई गम न था।

उसे इन दिखावे के रिश्ते का सच पता चल चुका था। लोग उसे अकेली देख कर उससे सहानुभूति रखते हैं मगर वह अपने आप को भाग्यशाली मानती है। घर परिवार वाले हो या बाहरी दुनिया के लोग सभी मूर्ख हैं वो जो इस सांसारिकता को प्रेम समझते हैं। सच्चा प्रेम सबके नसीब में नहीं होता कितने लोग तो पूरा जीवन बिता देते हैं मगर प्यार क्या है उन्हें इस बात का अहसास तक नहीं होता। अचानक उसे उन दिनों की होली याद आ गई जब उसका दोस्त अभिजीत घर जा रहा था।

“तुम होली में घर जा रहे हो अभिजीत?”

“मम्मी याद कर रही हैं…बहुत दिन हो गए.. नहीं गया…”

“हां हां ज़रूर जाओ..जाना भी चाहिए …”

होली बीतते ही वह दो दिन में लौट आया। अपने साथ गुझिए का डब्बा लाया था। डब्बे के ऊपर लिखा था ”मिनी के लिए”, यामिनी जिसे प्यार से वह मिनी बुलाता था तो उसके परिवार वाले भी उसे मिनी कहने लगे थे। अनजाने ही एक तुलना कर बैठी। वह अभिजीत से प्यार करती है तो उसके घरवाले उसके साथ – साथ अभिजीत का भी अपमान करते हैं और अभिजीत का अपने परिवार में इतना सम्मान है कि उसके परिवार के लोग अभिजीत के साथ उससे भी प्यार करने लगे हैं।

अब जो भी हो फैसला लेने का वक्त आ गया है। आर या पार..कोई न कोई निर्णय लेना ही होगा। ऐसे भी उसने पिता से जो वादा किया था उसे तो निभा ही दिया। जबतक सभी भाई बहन की शादी नहीं हो जाती वह इस घर के दहलीज के बाहर नहीं जाएगी। अब जब सभी अपने जीवन में खुश हैं। ये अलग बात है कि उसके जीवन का रुख अपनी मनचाही दिशा में मोड़ने वाले पिता दूसरी दुनिया में कूच कर गए हैं। मां हैं मगर घर में उनके मन का कुछ भी नहीं है। ऐसे में जिस सम्मान की खातिर उसने अपनी खुशियों का बलिदान दिया था अब उसकी भी कोई कद्र न रही थी। बल्कि भाभियों को वह खटकने लगी थी। आज त्योहार के दिन जानते बूझते किए गए अपमान ने उसकी आँखें खोल दीं। अच्छा हुआ जो उसने कॉलेज के पास ही एक फ्लैट बुक कर लिया था। इससे पहले की पानी सर से गुजरे उसे नए घर में शिफ्ट हो जाना चाहिए। मान सम्मान की सूखी रोटी अपमान के पकवान से भली होती

“मां! मैंने ऑफिस के पास एक घर ले लिया है। वहीं शिफ्ट होना चाहती हूं! “
“अरे! क्यों? सब एक साथ रहो! एकता में शक्ति होती है। जो पैसे बचेंगे वह इन लोगों पर खर्च कर दो तो रिश्ते भी बने रहेंगे।”
“मां! बहुत निभा लिया। पैसे भी बचा लिए अब थोड़ी प्रतिष्ठा बचा लूं

उसके सीधे जवाब पर मां निरुत्तर थीं। समझ गईं कि बेटी भाई भाभी की बातों से दग्ध है।

“मैं तेरे साथ चलूं…?”

“नहीं!

“पर तू अकेली कैसे?”

“अब उम्र हो गई है..!”

उसके आवाज़ के ठहराव पर मां भी उसकी बातों का प्रतिरोध न कर सकीं और सामान तो जैसे पहले ही से तैयार था।

वैसे भी माता पिता का साथ अढ़ाई कदम का ही होता है और उनका बारंबार ये कहना कि कुछ भी हो जाए अढ़ाई अक्षर से दूर ही रहना। अढ़ाई अक्षर यानि प्रेम जो वे अपने बच्चों से करते हैं और वह चाहते हैं कि बच्चे ताउम्र बच्चे ही बने रहें। वे कभी किसी और से दिल न लगाएं ताकि बच्चों का प्रेम बस उन्हें ही मिलता रहे।

अढ़ाई कदम चलते हुए, ढ़ाई अक्षर से दूर रहने की नसीहत में यह भूल जाते हैं कि इसी ढ़ाई अक्षर पर उनकी पूरी जिंदगी टिकी है। जब अपनी जिंदगी जीकर आखिरी मुहाने पर खड़े होते हैं तब अहसास होता है कि बच्चों के जीवन के कुछ खूबसूरत रिश्ते तोड़ कर उन्होंने सिर्फ बच्चों को ही नहीं बल्कि स्वयं को भी उनसे तोड़ा है
आज यामिनी भी अपनी मां से दूरी महसूस कर रही थी। वह बरसों बाद होली के दिन अपने घर आई। अच्छा ही हुआ जो तीसरा कदम स्वयं ही रखा। आज हिम्मत न करती तो शायद वहीं पड़ी रह जाती। कभी बेटी तो कभी बहन के संबंध को ढोती अपनी खुशियों को कुर्बान करती हुई भाई दूज और रक्षा बंधन मनाती। अपने घर में वह यामिनी थी जो किसी का प्यार थी..मिनी थी,तभी फ़ोन की घंटी बजी।

“होली मुबारक हो!”

“तुम्हें भी!

“रंग लगाने की इजाज़त नहीं दोगी?”
“तुम्हें इजाज़त की जरूरत है?”

यामिनी के मुंह से यह सुन अभिजीत और कुछ न सुन सका। उसने गाड़ी निकाली और पलक झपकते ही यामिनी के सम्मुख खड़ा था। बिना रंग गुलाल के दोनो सुर्ख़ रंग में रंग गए थे। यह रंग प्रेम का था,खुशी का था। हां! अपने जीवन की उतरार्द्ध में ही सही आखिर अपने खुशी को तरजीह तो दे पाई

होली के बाद कॉलेज खुला तो हर ओर एक ही शोर था, अरे! तुमने सुना क्या…सर और मैडम ने शादी कर ली है… इस बार शहर में कोई कुंवारा न बचेगा भैया..लगन जोरों पर है।