Kabir Jayanti: ‘कबीरदास’ वो नाम है जिसके बारे में शायद ही किसी ने न सुना हो। कबीर अपने आप में समाज का वो ‘आईना’ है जिसकी ज़रूरत हर दौर में होगी। कबीर का सम्बन्ध भक्ति काल से है ऐसी भक्ति जिसके बारे में वो कहते हैं कि ‘माला जपूं न कर जपूं मुख से कहूं न राम, राम हमारा हमें जपे हम पायो विश्राम’। कबीर के राम की व्याख्या कर पाना आसान नहीं है। कबीर वाराणसी में जन्मे, और मगहर में अंतिम साँस ली। ऐसी मान्यता थी कि वाराणसी में मृत्यु होने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है और मगहर में मरने से नर्क मिलता है। इस रूढ़िवादी सोच को तोड़ने के लिए कबीर अपने अंतिम दिनों में मगहर चले गए थे। उनका मानना था कि ये सब रूढ़िवादी सोच है ऐसा कुछ नहीं होता है। ‘क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम ह्रदय बस मोरा, जो कासी तन तजै कबीरा रामे कौन निहोरा’ कबीर ये कहते हुए इन तमाम रूढ़ियों पर पानी फेर देते हैं।
यही हैं कबीर जिनका मक़ाम बहुत ऊपर है। कबीर का एक न एक दोहा हम सभी को याद होगा ही लेकिन क्या हम अपने जीवन में कबीर को उतार पाएं हैं? ये सबसे अहम सवाल है। कबीर एक ऐसा विषय हैं जिन्हें जानने के बाद लगता है कि इन्हें और जानना चाहिए। फिर उनके कहने का अंदाज तो है ही सबसे निराला। कबीर जिस तरह समाज की कुरीतियों और पाखंड का विरोध करते हैं वो अद्भुत है उन्हें पढ़कर ऐसा लगता है कि जैसे घर का कोई बुज़ुर्ग अपने परिवार को सही तरह से जीवन जीने का ज्ञान देता हो। कबीर पर काफी कुछ लिखा गया है। उन्हें गाया भी गया है। आज भी उनपर काफी काम किया जा रहा है जो कि काबिल ए तारीफ है। तो आइए जानते हैं कबीर की अद्भुत रचनाओं के बारे में जिन्हें सुनने के बाद आप कबीर के जहान में प्रवेश करने को आतुर हो जाते हैं। इसके साथ ही वर्तमान में कबीर पर कितना काम जारी है और कितना कुछ हमारे सामने आने वाला है। इस पर भी ग़ौर करेंगे।
हद-अनहद और कबीर

कबीर किसी सीमा में नहीं हैं इसलिए वो अलग हैं इसलिए वो खुद एक पक्ष हैं वो किसी के पक्ष में नहीं हैं। वो कहते हैं कि ‘माला कहे काठ की तू क्या फेरे मोय, मन का मनका फेर दे तुरत मिला दूं तोय’ तमाम आडम्बरों का खंडन करते हुए मन से आराधना की बात वो इतनी आसानी से करते हैं और आप सिर्फ उनके अर्थ को समझने भर से हैरान रह जाते हैं और सोचने लगते हैं इस तरह से कभी क्यों नहीं सोचा। कबीर सभी को अपना मन उस से लगाने को कहते हैं जो इस ब्रह्माण्ड का कारण है। वो जिसे सबकी खबर है जो सब जानता है जो किसी भी आडम्बर से नहीं मिलता ये समझाते हुए कबीर कहते हैं “माला फेरी तिलक लगाया, लम्बी जटा बढ़ाता है, अंतर तेरे कुफर कटारी, यों नहीं साहब मिलता है, मुल्ला होकर बांग जो देवे क्या तेरा साहब बहरा है, चींटी के पग नेवर बाजे तो भी साहिब सुनता है”। कबीर हद – अनहद पर कहते हैं कि “हद हद टपे सो औलिया और बेहद टपे सो पीर, हद- अनहद दोनों टपे सो वा को नाम फ़कीर, हद हद करते सब गये और बेहद न गयो कोय, अनहद के मैदान में रहा कबीर सोय” यहां कबीर उस आत्मध्यान की बात करते हैं जो किसी सीमा में नहीं है उसका मक़ाम सबसे ऊपर और अलहदा है।
गायन में कबीर
कबीर भक्ति काल के ऐसे निर्गुण कवी हैं जिन्हें आज तक इतना पढ़ा और गाया जाता है। कबीर
कव्वालियों और भजन में इस तरह अमर हैं कि आप उन्हें सुनकर आनंदित हो उठते हैं। कबीर को गाने वालों की फेहरिस्त काफी लम्बी है। लेकिन कुछ ऐसे गायक हैं जो कबीर को आत्मसात करके ऐसे गाते हैं जैसे कबीर से दीदार हुआ हो। जैसे फरीद अयाज़ साहब उनका कबीर के प्रति जो लगाव है वो उनकी कव्वाली में देखने को मिलता है। उनकी आवाज़ और अंदाज़ में भला हुआ मोरी मटकी फूटी सुनने के बाद आप कबीर से परिचित होते हैं उस कबीर से जो सबसे जुदा है वो कहते भी हैं कि कबीर दास सिर्फ कव्वाली में सुनने के लिए और दिल बहलाने के लिए नहीं हैं वो एक सोच हैं। फरीद अयाज़ साहब ने जिस तरह कबीर को आत्मसात किया है वो उनके गायन में नज़र आता है। इसी तरह शबनम विरमानी की आवाज़ में ‘सकल हंस में राम बिराजे’ सुन लीजिये आप कबीर के ‘राम’ को जानेंगे। इसी तरह प्रह्लाद टिपन्या द्वारा कहां से आया कहां जाओगे’ सुन लीजिये उनका गायन भी बेहद अच्छा है। कबीर इस तरह भी सुने और समझे जा रहे हैं।
लेखन में कबीर
कबीर हर दौर की ज़रूरत हैं इस बात में कोई संदेह नहीं है। कबीर पर काफी कुछ लिखा जा चुका है जैसे सुभाष चन्द्र कुशवाहा द्वारा लिखी गयी किताब ‘कबीर हैं कि मरते नहीं’, पुरुषोत्तम अगरवाल की किताब ‘कबीर( द लाइफ एंड द वर्क ऑफ़ द अर्ली मॉडर्न पोएट फिलोसोफर) और ‘अकथ कहानी प्रेम की’। इसी तरह कई किताबें कबीर पर लिखी जा चुकी हैं। अब पहली बार कबीर उर्दू शाएरी में भी पढ़े जाएंगे, हाशिम रज़ा जलालपुरी ने कबीर के 100 पदों को उर्दू शायरी में ढाला है। इससे पहले हाशिम मीरा बाई के पदों को भी उर्दू शाएरी में ढाल चुके हैं। कहैं कबीर विचारि के , जा कै बर्न न गांव ,निराकार और निर्गुना , हैं पूरन सब ठांव’, ‘कहैं कबीर सब खेलन माहीं खेलनहार को चीन्हें नाहीं’ इसे उर्दू शाएरी में ढालते हुए हाशिम लिखते हैं कि ‘जिसकी न कोई ज़ात न जिसका कोई मकां, जिसका ये फर्श-ए-खाक़ है जिसका ये आसमा’, ‘सद हैफ़! उसको कोई भी पहचानता नहीं, वरना तो उसके सजदे में झुक जाये हर जबीं’। कबीर बंधन मुक्त हैं ये उनके ज्ञान का ही हासिल है कि वो हर भाषा में पढ़े जाएंगे, सुनें जाएंगे।
