Hindi Kahani: स्वयं का संघर्ष-गृहलक्ष्मी की कहानियां
Swayam ka Sangharsh

Hindi Kahani: ” चाय – चाय , गर्मा – गर्म चाय, समोसे , कचौड़ी , चाट , गर्मा – गर्म , आदि और लोगों के चलने और भागने की आवाज़ें” दिल्ली के रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर एक पर रुकी हुई रेलगाड़ी के दूसरे स्लीपर डिब्बे के सबसे नीचे वाली बर्थ पर अपनी सपनों की दुनिया में खोया हुआ विदुर सुनकर अचानक से अपनी आँखें खोल लेता है। वह बर्थ पर बैठकर अपनी हम उम्र के चाय बेचने वाले भईया से कहता है- ” अरे भईया एक कप चाय देना ,थोड़ी सुस्ती निकाली जाए ” , वह चाय बेचने वाला चाय देते हुए विदुर से पूछता है – ” भईया आप पटना से आए हो ? यूपीएससी की तैयारी करने के लिए ? विदुर कहता है -” हां “। चाय बेचने वाला विदुर से कहता है – “मेरा नाम अमोल है, मैं भी पटना से आपकी ही तरह आया हूं आपके व्यवहार से आपको पहचान लिया , यहां कहीं कमरा लिया है,या किसी रिश्तेदार के यहां पर रुकने का निश्चय किया है”। विदुर कहता है – ” अभी तो एक पुराने मित्र के यहां रुकने का निश्चय किया है आगे देखेंगे”। अमोल कहता है – ” मुझसे मिल लेना अगर व्यवस्था न बन पाए “। विदुर अमोल से पूछता है – ” तुम यहां रेलवे प्लेटफॉर्म पर चाय और यह सब काम क्यों कर रहे हो ? तुमको तो पढ़ना चाहिए ? अमोल ज़वाब देता है – ” अपने सपनों को पूरा करने के लिए आपको हर संभव प्रयास करना चाहिए और वो तो आपने सुना ही होगा ” जब तक मंजिल न मिल जाए तब तक नींद चैन को त्याग दो”। अमोल अपने दस रूपए लेकर वहां से चला जाता है। विदुर खिड़की से ही अमोल को जाते हुए देखता रहता है।

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कुछ ही पलों के बाद विदुर रेलगाड़ी से अपने सामान के साथ उतर जाता है और रेलवे स्टेशन के बाहर आकर रिक्शे में बैठकर अपने मित्र राघव के कमरे की तरफ चल देता है। थोड़ी देर बाद वह अपने मित्र के कमरे पर पहुंच जाता है। खाना खाकर वह दोनों कोचिंग में एडमिशन ले लेते हैं। राघव उसे यूपीएससी की तैयारी के बारे में सब कुछ बता देता है। शुरुआत में विदुर यूपीएससी के बाद की सफ़लता और प्रसिद्धि में ही खोया रहता है, जिसके कारण वह अपनी पढ़ाई में सही तरीके से ध्यान नहीं दे पाता है और प्रारंभिक परीक्षा को सही तरीके से नहीं दे पाता है। और परिणाम में वह अनुत्तीर्ण हो जाता है। उसे एक बहुत बड़ा धक्का लगता है। वह राघव को बिना बताए एक पार्क में चुपचाप अकेले एक बेंच पर निराश बैठ जाता है , उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था, कि अब वह क्या करे और क्या नहीं करे ? जीवन की गाड़ी एक ऐसे स्टेशन पर रूक गई थी जहां से आगे और पीछे जाने का कोई रास्ता नहीं था। हमेशा हंसता और खिलखिलाता, अपने सपनों की दुनिया में खोया हुआ रहने वाला विदूर किसी मुरझाए हुए गुलाब के फूल की तरह हो गया था जिसमें न कोई सुगंध थी और न कोई रंग सिर्फ कांटे ही बचे हुए थे।

अपनी आंखों से दुःख और पश्चाताप के बहते आंसुओं को अपने हाथों से पोंछ कर विदूर वहां से चला जाता है। राघव जब उससे पूरे दिन गायब होने का कारण पूछता है ? तो वह अपनी ख़ामोशी का जवाब दे देता है। गर्मी का मौसम अपने चरम पर था मगर मेहनत के पसीने में विदूर नहा रहा था। सावन ने अपनी दस्तक देना शुरु कर दिया था मगर प्रेम के संगीत में विदूर अपनी किताबों में डूबा हुआ था। फिर सर्दियों ने कोहरे से पूरा शहर ढक लिया था और तेज ठंडी हवाओं ने सभी को अपनी कैद में कर लिया था। त्यौहार दीवाली का पटाकों की जगह विदूर की उम्मीदों के दीपक से जगमग था, होली के त्यौहार में विदूर अपने खुशी के रंगों को ढूढने में व्यस्त था। अब वो समय आ गया था, जब उसके त्याग और समर्पण की परीक्षा का परिणाम आना था, पहले दरवाजे को उसने प्रारंभिक परीक्षा में उत्तीर्ण होकर खोल लिया था। घर से आए सभी पैसे अब खत्म हो चुके थे , इसलिए उसने अब अपने नोट्स को बेचने का निश्चय कर लिया और उन सभी पैसों को उसने मुख्य परीक्षा की तैयारी में लगा दिया था। अब मुख्य परीक्षा को उसने अपने मित्र और गुरू की सहायता से उत्तीर्ण कर ली थी। साक्षात्कार से दो दिन पहले उसे राघव से पता चलता है, कि उसके पिताजी को दिल का दौड़ा पड़ा है। उसके पैरो के नीचे से जमीन अचानक खिसक जाती है।

अपने पिताजी से हॉस्पिटल में मिलने जाने की जगह वह मॉक साक्षात्कार में शामिल होने के लिए चला जाता है, राघव यह देखकर असमंजस में पड़ जाता है , साक्षात्कार देने के बाद विदूर खुद को अकेला कर लेता है। अंतिम परिणाम में विदूर को आईपीएस में स्थान मिल जाता है। राघव विदुर से उसके इस व्यवहार के बारे में पूछता है ? वह राघव से कहता है – ” पिताजी को ठीक करने के लिए उनसे मिलना नहीं बल्कि उन्हें इस सफलता से मिलवाना ज़रूरी है “। राघव उसे गले से लगा लेता है। विदूर दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पटना जाने वाली रेलगाड़ी में बैठ जाता है, तभी एक व्यक्ति कुछ सामान के साथ कोट पहने हुए उसके सामने बैठ जाता है, वह अमोल नहीं आईएएस अमोल था। दोनों मुस्कुरा कर एक – दूसरे को देखते हैं। रेलगाड़ी चल पड़ती है पूरे रास्ते अमोल और विदूर दोनों किसी वर्षों से बिछड़े हुए मित्रों की तरह बातें कर रहे थे।

पटना से दिल्ली वह दोनों एक साधारण व्यक्ति की तरह ही गए थे, मगर दिल्ली से पटना वह एक अधिकारी की तरह वापस आए थे। सारा शहर उनसे मिलने के लिए रेलवे स्टेशन पर आ चुका था दोनों अपने गांव के पहले अधिकारी बन चुके थे। अखबारों में उनके संघर्ष और “प्रतिज्ञा” की कहानी छपने लगी थीं। वह हर साक्षात्कार में यही कहते – ” जब तक मंजिल न मिल जाए तब तक नींद चैन को त्याग दो, हर व्यक्ति का संघर्ष उसकी “प्रतिज्ञा” होती है अपनी असफलता को सफ़लता में बदलने की “।