सब मिलाकर शायद छत्तीस बिल्डिंगें थीं और जिस बिल्डिंग में उसे जाना था उसका नंबर था उनतीस। उनतीस बटा चौबीस का मतलब है उनतीस नंबर बिल्डिंग में चौबीस नंबर फ्लैट। चूंकि हर फ्लोर पर चार फ्लैट हैं इस हिसाब से चौबीस नंबर फ्लैट छठे फ्लोर पर होना चाहिए।

इतना हिसाब तो सीधा-सादा था और किसी के भी समझाने से समझ में आ सकता था। पर उसकी मुश्किल कुछ और थी। बॉम्बे सेंट्रल पर गाड़ी आ गई थी पांच बजे। वह कॉलोनी स्टेशन के बिल्कुल पास है, इसलिए जब उसने टैक्सी से सामान उतारकर पैसे दिए तो अभी साढ़े पांच बजने में तीन-चार मिनट बाकी थे… बावजूद इसके कि टैक्सी वाला बिल्डिंग को ढूंढऩे के लिए कॉलोनी के दो-तीन चक्कर लगा चुका था। अटैची को लिफ्ट पर रखकर छठे माले पर ले जाने में ज्यादा से ज्यादा पांच मिनट लगेंगे। पर क्या पांच पैंतीस पर किसी के फ्लैट की बेल बजाना ठीक रहेगा? इस समय तो वह गहरी नींद में सो रही होगी………… फिर? छह बजे से पहले उसे कॉलबेल नहीं बजानी चाहिए। पर आधा घंटा इस तरह खड़ा भी तो नहीं रहा जा सकता। लोगों का आना-जाना जारी थी। सैर के लिए जाते हुए, दूध की बोतलें लेकर आते हुए लोग उसे देख रहे थे और आंखों ही आंखों में पूछ रहे थे- किसके पास जाना है?उसे मिसेज वर्मा के पास जाना है। मिसेज वर्मा… कैसा लगता है! पर उसे वह क्या कहकर सोचे? उसका ध्यान आते ही उसके सामने एक व्यक्तित्व उभरता है… एक औरत उभरती है, जिसे आज तक वह कितने नाम दे चुका है, पर सचमुच वह कोई नाम नहीं दे सका है। उसनेउसके साथ कभी ‘भाभी जैसा संबंधसूचक नाम भी बनाया था, पर यह कुछ ज्यादा देर नहीं चला। वह उसे इस संबंधसूचक नाम से नहीं याद कर पाता। उसका अपना घरेलू नाम कुछ फूलमती, चमेली या गुलाबो तजऱ् का है जिसे वह कभी स्वीकार नहीं कर सका। उसका पति उसे राधा कहता था। पर यह नाम उसे नाकाफी लगा था। तब एक बार उसने उसे बिना बताए एक नाम दे दिया था- दिवा।

फिर वह जब भी उसके बारे में सोचता, वह दिवा के बारे में सोचता। पर दिवा को यह कहां मालूम था कि वह दिवा है। यह तो किसी को भी नहीं मालूम। लोग जानते हैं कि वह मिसेज वर्मा है। वह भी जानती है कि वह मिसेज वर्मा है। साल-छमाही शायद ही कोई व्यक्ति, कोई स्मृति, कोई संबंध उससे टकराता हो, जो उसे उसके असली नाम से बुलाता हो।अब वह उसके फ्लैट के सामने खड़ा था। बाहर नेम प्लेट लगी थी… मिसेज सी. वर्मा… चमेली वर्मा, चंचल वर्मा, चांदनी वर्मा। उसने घड़ी देखी। छह बजने में अभी कुछ मिनट बाकी थे। वह कुछ समय और काटने के लिए छठी मंजिल से नीचे सीढिय़ों पर झांकने लगा। घुमावदार सीढिय़ां एक गहरे कुएं की तरह नीचे तक चली गई थी। साथ ही लिफ्ट बार-बार ऊपर-नीचे आ-जा रही थी और उसमें से निकलने वाले उसे घूर-घूरकर देख रहे थे।अब छह बज चुके थे। एक-एक पल उसे भारी लग रहा था। उसने कॉलबेल पर अपनी ऊंगली रख दी.. डिंग…डिंग…डिंग। घंटी बड़ी मधुर आवाज में बज उठी थी।वह कुछ क्षण प्रतीक्षा करता रहा। उधर से कोई हलचल सुनाई नहीं दी। उसने सोचा, वह सो रही होगी। वह कुछ देर वैसे ही खड़ा रहा। फिर डिंग…डिंग…डिंग। दरवाजे पर हैंडल की कुछ खटपट हुई। वह सामने खड़ी थी… हाउसकोट पहने, बिखरे बाल, अलसाया चेहरा, बोझिल पलकें और सूखे होंठ।’ओह! वेलकम…वेलकम… आज यह सूरज किधर से निकला, श्यामा भी साथ में है ना?’नहीं… अकेला आया हूं।’उसे क्यों नहीं लाए? मैंने तुम्हें लिखा था श्यामा को भी साथ लेकर आना… यू स्काउंड्रल… बीवी को साथ लेकर निकलने में शर्म लगती है?

‘अंदर आने दोगी? वह वहीं खिलखिलाकर हंस पड़ी, ‘कम इन…कम इन।

वह दाएं मुड़कर उसे ड्राइंगरूम में ले गई। ड्राइंगरूम बहुत बढिय़ा सजा हुआ था। पूरे कमरे में गलीचा बिछा हुआ था, डाइनिंग टेबिल, मोटे शीशे वाली सेंटर टेबल, बाईं तरफ रखा हुआ रेडियोग्राम, सामने रखा हुआ टेलीविजन तथा डनलप पिलो वाला चमचमाता नया सोफासेट। वह आतंकित और डरा हुआ-सा महसूस करने लगा। वह सोफे पर बैठता हुआ बोला, ‘बहुत अच्छा फ्लैट है तुम्हारा। और तुमने इसे सजाया भी खूब है।

वह मुस्कराई-एक परितुष्ट-सी मुस्कराहट। झटका देकर उसने आगे आई लट को पीछे कर लिया। ‘चाय लाऊं? ‘किटी कहां है?

‘अपने कमरे में सो रही होगी।

वह उठकर किचन की ओर चली गई। वह सुबह स्टेशन पर खरीदे गए अखबार को हाथ में लेकर देखने लगा। अखबार देखते-देखते उसकी नजर बार-बार ड्राइंगरूम की चीजों पर फिसल जाती थी और वह सोचने लगा था… दिवा बहुत आराम की जिंदगी जी रही है… दिवा अपने पूर्व-जीवन की सारी कड़वाहटें, सारे कष्ट, सारे लांछन समेट चुकी है और अब वह बहुत थमा-थमा सा, संतुष्ट-सा, शांत-सा जीवन बिता रही है।

‘तुमने श्यामा का हाल-चाल तो बताया ही नहीं। वह कप में चाय डालती हुई बोली।

‘तुम जानती ही हो कि उसकी जि़ंदगी में हाल-चाल नहीं, सिर्फ हल्की-सी चाल भर है, जिसे वह सधे कदमों से लगातार चलती चली जा रही है।

वह बड़ी फीकी-सी मुस्कान मुस्कराने लगी।

‘तो तुम अपने ही हाल-चाल बताओ।’तुम यह भी जानती हो कि मेरी जिंदगी हाल-चाल की नहीं, भाग-दौड़ की जिंदगी है, वह बोला ‘और भागते हुए आदमी को कदम गिनने की फुरसत नहीं होती। दोनों कुछ देर तक चुप रहे।

‘तुम्हारा क्या हाल-चाल है? उसने पूछा।

‘बस… जी रहे हैं। वह बड़ी थकी हुई मुस्कराहट मुस्कराई और फिर आंखें बंद करके होंठ कुछ इस तरह सिकोड़ लिए, जैसे लंबी यात्रा पूरी करने के बाद अपने घर की छत के नीचे सुस्ता रही हो। ‘किटी कहां है? उसे याद नहीं रहा कि वह यह बात पहले भी पूछ चुका है।

 फिर खुद ही बोला, ‘अभी सो रही है।

इतने में उसने देखा मैक्सी पहने एक लंबी-सी लड़की सामने खड़ी है। वह बिस्तरे से उठकर आई लगती थी और उसे देखकर थोड़ा अचकचा गई थी। वह किटी थी। उसे वह कई साल बाद देख रहा था। बहुत लंबी हो गई थी।

‘हलो किटी…मुझे पहचाना? तब दिवा भी मुड़कर उसकी तरफ देखने लगी, ‘अपने जॉली अंकल को भूल गई क्या? वह मुस्कराई, ‘हलो अंकल! आप कब आए?’अभी। ‘आंटी कैसी हैं? ‘ठीक है… पर तुमने दिल्ली न आने की कसम खा रही है क्या?

‘मामा मुझे ले ही नहीं जाती। बस खुद ही चली जाती हैं। ‘मैं नहीं ले जाती? दिवा बोली, ‘तेरा खुद ही कहीं जाने का मन नहीं करता।

‘क्या कर रही हो आजकल? वह बीच में ही बोला। ‘गेवेज़ ट्रेवल्ज़ में काम कर रही हूं।

‘पढ़ाई पूरी कर ली? उसे लगा यह बात कहीं बीच में ही अटक गई है। किटी एकाएक अखबार पलटने लगी और दिवा उठती हुई बोली, ‘अच्छा, नहा-धो लो। मैं नाश्ता बनाती हूं।

नौ बजने वाले हुए तो उसने देखा दिवा भी तैयार है, किटी भी तैयार है। दोनों के हाथों में पर्स है, दोनों के हाथों में चाबियों के गुच्छे झूल रहे हैं, दोनों ही बार-बार अपनी साड़ी की सलवटों या चुन्नटों पर हाथ फेर रही हैं, दोनों अपनी लिपस्टिक को एक सुर कर रही हैं।

‘हमारे पास अपनी-अपनी चाबी है। दिवा बोली, ‘यह तीसरी चाबी तुम संभालो। ठीक से बंद करके जाना। रात को जब वह वापस आया तो दिवा घर आ चुकी थी। दरवाजा खोलकर वह पीछे हटी तो उसे एक भभका-सा पीछे हटता महसूस हुआ। फ्लैट के अंदर आने पर लगा, सिगरेट का धुआं इधर-उधर तिर रहा है और सारे फ्लैट में एकदम खामोशी छाई है। ‘कहां घूमते रहे सारा दिन?

‘आज का सारा दिन तो चंदर को ढूंढऩे में ही निकल गया। वह बोला, ‘अब वह कल्याण कैंप में रहता है। तेज और चिलचिलाती धूप में 

ऊबड़-खाबड़ और छितरे-बिखरे कल्याण कैंप में जो मीलों में फैला हुआ है, उसका घर ढूंढऩे के बाद लगा जैसे कोलंबस की तरह मैंने किसी नई दुनिया का पता लगाया है।

‘खाना…? ‘खा आया हूं। चंदर की बीवी परांठे बहुत अच्छे बनाती है। ऊपर की ओर उठी हुई खामोशी फिर धीरे-धीरे नीचे सरकने लगी।

वह उठकर अपने बेडरूम की ओर गई और वापस आर्ई तो उसके हाथ में सिगरेट की डिब्बी और दियासलाई थी। पास के सोफे पर बैठकर उसने सिगरेट जलाई और पीने लगी।

तभी एकाएक उसे लगा, उसे किटी के बारे में पूछना चाहिए। ‘किटी भी अभी तक नहीं आई। ‘शायद अपनी सहेलियों के साथ मूवी देखने चली गई हो। वह उबासी लेते हुए बोली।

वह उसे एकटक देखने लगा। उसे लगा दिवा किटी के बारे में बहुत उदासीन है या बहुत निरपेक्ष है। ‘किटी अब काफी सयानी हो गई है। वह बोला। ‘हां…। वह बोली जैसे यह तो होना ही था। ‘उसकी शादी-वादी के बारे में तुमने क्या सोचा है? ‘अपनी शादी के बारे में वह खुद सोचेगी। दिवा ने बची हुई सिगरेट को राखदानी में दबाते हुए कहा, ‘जब, जहां, जिससे चाहेगी शादी कर लेगी। वह सोचने लगा। उसे लगा किटी अपने किसी बॉय फ्रेंड के साथ मूवी देखने गई होगी। फिर उसे लगा किटी बहुत सीधी है, बहुत मासूम। क्या वह ‘जब जहां, जिससे की स्थिति का सामना कर सकेगी? 

इतने में बेल हुई। दिवा बड़ी अलसाई-सी उठी। दरवाजा खुलने, किसी के अंदर आने और फिर दरवाजा बंद होने की आगाज़ आई। दिवा आकर फिर अपनी जगह बैठ गई। ‘किटी आ गई? उसने पूछा। ‘हां…। उसने सोचा किटी सीधी अपने कमरे में चली गई होगी। फिर उसने सोचा किटी कपड़े बदलकर इस कमरे में आएगी और कुछ देर बैठकर बातें करेगी।

दिवा दो-तीन सिगरेट और फूंक चुकी थी। वह उठा, उसने अटैची से कुर्ता-पायजामा निकाला और बाथरूम कपड़े बदलने चल दिया। बाथरूम जाते हुए वह किटी के कमरे के सामने से गुजरा। वह बेड पर लेटी कुछ पढ़ रही थी।

कपड़े बदलकर वह आया तो उसने देखा दिवïा ने ड्राइंगरूम का दीवान उसके सोने के लिए ठीक कर दिया है। ‘पीने के लिए पानी रख देती हूं। कहती हुई दिवा पानी लेने चली गई।

 वह बेड पर बैठकर कमरे की एक-एक चीज को घूरने लगा। टेलीविजन, रेडियोग्राम, डाइनिंग टेबल, सोफासेट सब निर्जीव चीजें अपनी-अपनी जगह पर थीं। किसी को एक-दूसरे से कोई मतलब नहीं था। वह सोचने लगा, ‘क्या इस कमरे में इन चीज़ों की पोजीशन को बदला जा सकता है? डाइनिंग टेबल वहां न रखकर उस दीवार के साथ रख दिया जाए तो कैसा रहे? सोफासेट उधर रखा जा सकता है। दीवान उधर खिसकाया जा सकता है।

अखबार देखते-देखते उसकी नजर ड्राइंगरूम की चीजों पर फिसल जाती थी और वह सोचने लगा… दिवा बहुत आराम की जिंदगी जी रही है… दिवा अपने पूर्व-जीवन की सारी कड़वाहटें, सारे कष्ट, सारे लांछन समेट चुकी है और अब बहुत संतुष्ट-सा, शांत-सा जीवन बिता रही है।

  टेलीविजन…? ïवह कमरे में इधर-उधर देखने लगा। उसे लगा जो चीज जहां है, वहीं ठीक है।

दिवा की लरजती हुई आवाज सुनाई दी, ‘गुड मॉर्निंग? ‘नींद मुझे हर जगह आ जाती है। शी इज वेरी काइंड टू मी। वह खिलखिलाकर हंस पड़ी। नाश्ते की टेबल पर उसने कहा, ‘आज नाईट शो के तीन टिकट ले आऊंगा। वह किटी की तरफ मुड़ा, ‘ऑफिस के बाद कहीं जाना तो नहीं? किटी अपने टोस्ट पर बटर लगा रही थी।

‘कहीं खास नहीं, अंकल। उसने दिवा की ओर देखा, ‘घर से जरा जल्दी निकल चलेंगे। कुछ देर चौपाटी की सैर करेंगे।

फिर वे बातचीत करने लगे… कहां कौन-सी फिल्म लगी हुई है। अधिकतर फिल्में देखी हुई थीं… कुछ दिवा की… कुछ किटी की।

‘तुम लोगों ने साथ-साथ कौन-सी फिल्म देखी है? एकाएक उसे लगा, उसने बड़ी गलत बात पूछ ली है। दिवा के चेहरे पर एक बड़ी रूखी-सी मुस्कराहट फैल गई, जो कुछ भयावह-सी नजर आ रही थी। किटी का चेहरा भी हल्की सी उलझन से भर गया लगता था।

‘तुम्हारे हाथ के आलू के परांठे मुझे नहीं भूलते। इतने स्वादिष्ट आलू के परांठे मैंने और कहीं नहीं खाए। सच कहता हूं कि कुकिंग का कोई ‘नोबेल प्राइज़ हो तो वह तुम्हें सिर्फ तुम्हारे आलू के परांठे के लिए मिल सकता है। वह बोला। दिवा और किटी हंसने लगीं।

‘अंकल, आप बड़े चालाक हैं। किटी बोली, ‘मामा को मक्खन लगा रहे हैं ना…। पर मामा, कितना अर्सा हो गया तुमने आलू के परांठे नहीं बनाए। रोज सुबह वही ब्रेड, बटर, अंडा खा-खाकर मैं तो बोर हो गई हूं।]

‘कल नाश्ते में आलू के परांठे बनाऊंगी। दिवा का चेहरा खिल उठा था। किसी कोने में छिपा हुआ मातृत्व उसके चेहरे पर इधर-उधर से ताक-झांक करने लगा था। उसने एक स्लाइस पर मक्खन की मोटी परत लगाकर किटी की प्लेट में रख दी। ‘ओ…नो मामा… मैं नहीं खाऊंगी।’डोंट बी सिली…। कहकर वह दूसरे स्लाइस पर मक्खन लगाने लगी। वह अखबार पलटने लगा और फिल्मों की बातें करने लगा। दो-तीन फिल्में अभी अनदेखी थीं, पर उन्हें रिलीज़ हुए दो-एक दिन ही हुए थे। इसलिए उनके टिकट मिलने की उम्मीद कम थी। उसने कहा, ‘इनमें जिसके भी टिकट मिले मैं लेता आऊंगा।शाम को वे चौपाटी की रेत पर बैठे हुए थे।  एकाएक दिवा बोली, ‘साल-छमाही कहीं एक ऐसा दिन आता है। उसने दिवा की ओर देखा।

वह सामने समुद्र में खड़ी एक कश्ती की ओर देख रही थी। फिर वह उसकी तरफ देखने लगी, ‘तब कहीं हल्का-सा महसूस होता है, मेरा भी कोई परिवार है… मैं और किटी मां-बेटी हैं।वह हंसी और किटी की ओर देखने लगी। किटी मुट्ठी में रेत भर रही थी और उसे अपनी उंगलियों के बीच से निकाल रही थी।’कैसी अजीब बात है। हमारे बीच जब तक कोई तीसरा व्यक्ति न आए, हमें यह अहसास ही नहीं होता कि हम मां-बेटी हैं। हमें आपस में बात किए हफ्तों गुजर जाते हैं। फ्लैट में एक- दूसरे की छाया देखकर हमें एक-दूसरे के होने का अहसास होता है। अलग कमरे, अलग -अलग बाथरूम, टूथपेस्ट भी अलग-अलग।किटी बड़े सूने-सूने, बड़े गुमसुम ढंग से उसकी बात सुन रही थी।  ‘आओ भेल-पूड़ी खाएं। उसने कहा। सब उठकर भेल-पूड़ी वाले की तरफ बढ़ लिए।फिर सब धीरे-धीरे चलकर लेमिंगटन रोड पर आकर फिल्म देखने लगे। वह किनारे बैठना चाहता था, पर दिवा और किटी ने ऐसी स्थिति बना दी कि वह उनके बीच में बैठा।  फिल्म देखकर निकले तो किटी बोली, ‘अंकल, आइए थोड़ी देर के लिए फिर चौपाटी पर चलें। रात को वहां बैठने में बड़ा मजा आता है। उसने दिवा की ओर देखा। ‘चलो ना मामा…! किटी दिवा से लिपट-सी गई।वह हंसी, ‘कल दफ्तर नहीं जाना है?’कल की कैजुअल ले लेंगे…।

वह बहुत उमंग से बोली, ‘और कल सारा दिन अंकल के साथ पिकनिक मनाएंगे। और अंकल, कल के आपके सारे प्रोग्राम कैंसल। दिवा ने उसकी ओर देखा- बड़ी गहरी, बड़ी डूबी, बड़ी मोहक नज़र से। जैसे वह ‘वह नहीं है। वह ‘वह है…वह…किटी का अंकल…किटी का पिता…।गाड़ी सुबह सात-पैंतीस पर छूटती थी-वीटी से। दिवा ने दिन के लिए आलू के परांठे बना दिए थे। साथ में कई अचार और सलाद काट दिया था। सुबह का नाश्ता भी जल्दी-जल्दी बन गया था। किटी को भी वह इधर-उधर डोलते देख रहा था। किटी बीच-बीच में उसे याद कराती थी और कहती थी- ‘मद्रास से आप मेरे लिए कुछ शंख खरीद लीजिएगा। एक तो चौड़े पंजे वाला, पर ख्याल रखिएगा कोई कहीं से जरा-सा भी टूटा हुआ न हो। और दूसरे बड़े वाले शंख जो मंदिरों में बजाए जाते हैं। आप तो मद्रास से सीधे दिल्ली चले जाएंगे। वहां मेरी चीजें संभालकर रखिएगा। मामा जब अगली बार दिल्ली जाएंगी तो उन्हें दे दीजिएगा।’तुम दिल्ली नहीं आओगी…। उसने दांतों से टोस्ट काटते हुए पूछा। ‘इस बार मैं भी मामा के साथ आऊंगी… नहीं मामा के साथ नहीं, अकेली आऊंगी। आप मुझे दिल्ली की खूब सैर कराएंगे ना? सब जगह घुमानी पड़ेंगी।दिवा ने चाय की केतली टेबल पर रखते हुए कहा, ‘किटी बेटा, अंकल की गाड़ी का वक्त हो रहा है। तुम जरा सड़क से टैक्सी तो बुला आओ।

किटी टैक्सी लेने चली गई।दिवा उसी के साथ कुर्सी पर बैठ गई। सामान बंध चुका था। वह कपड़े पहनकर तैयार था। उसने चाय का आखिरी घूंट पिया और दिवा की ओर देखने लगा। वह सूनी आंखों से मुस्कराने की कोशिश कर रही थी।उसने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए। दिवा की आंखें और सूनी हो गईं।टैक्सी चली तो दोनों ने हाथ हिलाए और उसने देखा, दोनों लिफ्ट की तरफ मुड़ गई हैं।दो-एक मोड़ लेकर टैक्सी सड़क पर आ गई। सड़कें अभी सूनी थीं। सन्नाटा अभी पूरी तरह टूटा नहीं था। मस्त हवा चल रही थी। पीछे छोड़े हुए फ्लैट के कुछ बिंब उसके सामने उभरने लगे। लिफ्ट में दिवा और किटी खामोश हैं… लिफ्ट से निकलकर दिवा फ्लैट का दरवाजा खोलती है… किटी सीधे अपने कमरे में चली जाती है… दिवा बर्तन साफ करने वाली बाई को डाइनिंग टेबल साफ करने के लिए कहती है।

किटी बिस्तर पर लेटकर किसी पत्रिका के पन्ने पलटने लगती है… फिर उठकर नहाने चली जाती है… दिवा अपने कमरे में आकर सिगरेट सुलगाती है और अखबार की सुर्खियां देखने लगती है… फिर वह भी नहाने चली जाती है… बाई टेबल पर नाश्ता लगा देती है… ब्रेड, बटर, अंडे, दूध…।फिर नौ बजते हैं। दोनों अपने-अपने पर्स संभालती हैं… अपने चाबियों के गुच्छे संभालती हैं… अपनी साडिय़ों की चुन्नटों पर हाथ फेरती हैं… लिपस्टिक लगे होंठों को शीशे में देखती हैं और फ्लैट से निकल पड़ती हैं…।उसे सामने वीटी स्टेशन का भव्य भवन दिखाई देने लगा था। 

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