king indradyumna
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Bhagwan Vishnu Katha: सतयुग की बात है, अवंती (उज्जैन) में इन्द्रद्युम्न नामक एक प्रतापी राजा राज्य करते थे । वे बड़े पराक्रमी, सत्यवादी, दानी, धर्मात्मा ब्राह्मण-भक्त और परम विद्वान थे । दान, यज्ञ और तप में उनकी समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं था । इस प्रकार समस्त ऐश्वर्य-वैभव से सुशोभित और श्रेष्ठ गुणों से अलंकृत राजा इन्द्रद्युम्न धर्मपूर्वक अपने राज्य का उपभोग कर रहे थे ।

एक बार राजा इन्द्रद्युम्न के मन में भगवान् नारायण की आराधना करने का विचार उत्पन्न हुआ । वे अपने कुलगुरु से बोले – “गुरुदेव । यह सृष्टि श्रीविष्णु की इच्छानुसार प्रकट होती है और कल्पांत में उन्हीं की इच्छा से नष्ट हो जाती है । मनुष्य की इच्छाएँ पूर्ण करना ही उनका स्वभाव है । वे परब्रह्म परमेश्वर संसार के पालनहार हैं । धन, ऐश्वर्य, वैभव, मोक्ष – सभी उनके चरणों के दास हैं । जिस प्राणी पर उनकी कृपा दृष्टि हो जाती है, वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है । गुरुदेव ! भगवान् विष्णु की कृपा से मैंने पृथ्वी के सम्पूर्ण विषयों का भोग किया है और अब मैं उन्हें प्रसन्न कर इस माया निर्मित संसार से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ । किंतु मुझे यह ज्ञान नहीं है कि मैं उनकी आराधना किस प्रकार करूँ? गुरुदेव ! आप परम विद्वान हैं । आपको भली-भांति ज्ञात है कि एक गृहस्थ मनुष्य किस प्रकार श्रीविष्णु के परमधाम का अधिकारी बन सकता है । कृपया आप मेरा मार्गदर्शन करें ।”

कुलगुरु बोले – “राजन ! वेदों में मनुष्य-जीवन को चार अवस्थाओं में विभाजित किया गया है । मनुष्य को सदा इन चार आश्रमों के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए । ब्रह्मचर्य आश्रम में मनुष्य को गुरु के पास रहकर विद्याध्ययन करना चाहिए । गृहस्थाश्रम में विवाह कर विषयों का भोग करना चाहिए । वानप्रस्थाश्रम में उसे विषय-भोगों का त्याग कर भगवान् की पूजा-उपासना के लिए वन की ओर प्रस्थान करना चाहिए, जबकि संन्यास आश्रम में शरीर का मोह त्याग कर भगवान् विष्णु के श्रीचरणों में ध्यानमग्न हो जाना चाहिए । राजन ! आपका विचार अति उत्तम है । सौभाग्यशाली मनुष्यों को ही भगवान् विष्णु की पूजा-आराधना करने का सौभाग्य प्राप्त होता है । किंतु राजन ! आपकी वानप्रस्थ की अवस्था में अभी कुछ समय शेष है इसलिए गृहस्थ धर्मानुसार आपको पुरुषोत्तम क्षेत्र में जाकर भगवान् की आराधना करने का सौभाग्य प्राप्त करना चाहिए ।”

तब भगवान् पुरुषोत्तम की आराधना करने के उद्देश्य से राजा इन्द्रद्युम्न अपनी महारानियों, कुलगुरु, मंत्रिगण, सेनापति और अनेक ऋषि-मुनियों के साथ पुरुषोत्तम क्षेत्र की ओर चल पड़े । नगर-निवासियों ने जब इस बारे में सुना तो उन्होंने भी अपने राजा का अनुसरण किया । इस प्रकार यात्रा करते हुए कुछ ही दिनों में वे दक्षिण समुद्र के तट पर पहुँच गए । वहाँ पहुँचकर इन्द्रद्युम्न ने समुद्र के दर्शन किए, जो अनेक प्रकार के दिव्य रत्नों से से युक्त है । वह अत्यंत विशाल भयंकर तथा श्याम वर्ण है । भगवान् नारायण का निवास-स्थान वह समुद्र परम पवित्र, समस्त पापों का नाश करने वाला और सम्पूर्ण इच्छाओं को पूर्ण करने वाला है । इसके अतिरिक्त इन्द्रद्युम्न ने वहाँ अनेक रमणीय स्थानों और नदियों के भी दर्शन किए ।

पुरुषोत्तम तीर्थ में वट-वृक्ष के दर्शन करके इन्द्रद्युम्न सोचने लगे – ‘मैं यहीं रहकर परब्रह्म परमेश्वर भगवान् विष्णु की आराधना करूँगा । मुझे यह भली-भांति ज्ञात हो गया है कि यही स्थान भगवान् का मानस तीर्थ पुरुषोत्तम क्षेत्र है, क्योंकि यहाँ कल्पवृक्ष स्वरूप वटवृक्ष खड़ा है । यहीं इन्द्रनील मणि की बनी हुई उनकी प्रतिमा भी थी जिसे भगवान् विष्णु ने स्वयं छिपा दिया है । अब मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा जिससे कि भगवान् नारायण प्रत्यक्ष दर्शन देकर मुझे कृतार्थ करें । मैं भक्ति-भाव से भगवान् के श्रीचरणों में अपना मन लगाकर यज्ञ, दान, हवन, पूजन और उपवास आदि द्वारा विधिपूर्वक व्रत का पालन करूँगा ।’ यह सोचकर उन्होंने कुलगुरु को अपने पुण्यमय मनोरथ के विषय में बताया ।

कुलगुरु बोले – “राजन! आपका विचार अति उत्तम है । यज्ञ, हवन, पूजन, दान, तप, उपवास आदि ये सभी भगवान् विष्णु की प्राप्ति के उत्तम साधन हैं । बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं ऋषि-मुनियों आदि ने इन्हीं के माध्यम से भगवान् को प्राप्त किया है । अतः राजन! मेरे परामर्शानुसार आपको यहाँ एक मंदिर का निर्माण करने के बाद अश्वमेध यज्ञ करना चाहिए । वह यज्ञ भगवान् विष्णु की प्राप्ति का सबसे सरल और सुलभ साधन है । उससे आपका मनोरथ अवश्य सिद्ध होगा ।”

तब इन्द्रद्युम्न ने पृथ्वी के समस्त राजाओं को आमंत्रित किया और बोले – “मान्यवरों! यह स्थान भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला परम कल्याणमय क्षेत्र है । इसलिए समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए मैं यहाँ भगवान् श्रीविष्णु के मंदिर का निर्माण करवा कर अश्वमेध यज्ञ करना चाहता हूँ । किंतु आप सबकी सहायता के बिना यह कार्य असम्भव है । इसलिए इस कार्य को सम्पन्न करवाने में कृपया आप लोग मेरी सहायता कीजिए ।”

इन्द्रद्युम्न का मनोरथ जानकर सभी राजाओं ने उन्हें प्रसन्नतापूर्वक धन, रत्न, स्वर्ण आदि विभिन्न पदार्थ भेंट में दिए और सहयोग प्रदान किया । तत्पश्चात् वहाँ मंदिर निर्माण का कार्य आरम्भ हो गया । श्रेष्ठ शिल्पियों को बुलवाकर उन्हें इस कार्य के लिए नियुक्त किया । विंध्याचल पर्वत की शिलाएँ काट-काटकर वहाँ लाई जाने लगीं । इसके बाद इन्द्रद्युम्न ने ऋषि-मुनियों को आमंत्रित कर यज्ञ आरम्भ करवाया । यज्ञ-अनुष्ठान के बाद इन्द्रद्युम्न भगवान् पुरुषोत्तम की प्रतिमा के लिए चिंतित हो गए ।’ पत्थर या काष्ठ लकड़ी में से कौन-सी वस्तु भगवान् विष्णु की प्रतिमा के लिए सर्वश्रेष्ठ है?’ यही चिंता उन्हें दिन-रात सताने लगी ।

एक दिन जब भगवान् विष्णु का पूजन करने के बाद उनका चिंतन करते हुए राजा इन्द्रद्युम्न सो गए तो शयनावस्था में ही भगवान् विष्णु ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिए । शंख, चक्र, पद्म, गदा, धनुष, बाण – उनकी भुजाओं में सुशोभित थे । पीताम्बरधारी भगवान् विष्णु का मुखमण्डल दिव्य तेज से आलोकित हो रहा था । वे अपने वाहन गरुड़ पर सवार थे ।

वे मधुर स्वर में इन्द्रद्युम्न से बोले – “वत्स! व्यर्थ की चिंता त्याग दो । तुम्हारे यज्ञ, दान, श्रद्धा और भक्ति से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ । यहाँ कैसी प्रतिमा स्थापित करनी है, मैं तुम्हें उसकी प्राप्ति का उपाय बताता हूँ । वत्स । यहाँ से कुछ दूर समुद्र तट पर एक विशाल वृक्ष है । उसका कुछ भाग स्थल में है और कुछ भाग जल में । कल सूर्योदय के समय तुम कुल्हाड़ी लेकर अकेले वहाँ चले जाना और उसे पहचान कर नि:शंक भाव से काट देना । वृक्ष के कटते ही वहाँ दो ब्राह्मणदेव आएँगे और तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करेंगे ।” यह कहकर भगवान् विष्णु अंतर्धान हो गए ।

यह स्वप्न देखकर राजा इन्द्रद्युम्न को बड़ा आश्चर्य हुआ । प्रात काल उन्होंने भगवत स्मरण करते हुए स्नान कर ब्राह्मणों को दान दिया और फिर भगवान् विष्णु द्वारा बताए स्थान पर पहुँच गए । उन्होंने उस वृक्ष को ढूँढ़कर काट गिराया । अभी वे वृक्ष के दो टुकड़े करने ही वाले थे कि तभी उन्हें दो ब्राह्मण आते दिखाई दिए । वास्तव में वे भगवान् विष्णु और देवशिल्पी विश्वकर्मा थे, जो ब्राह्मण रूप धारण करके वहाँ आए थे । उन्होंने अनभिज्ञ बनते हुए इन्द्रद्युम्न से वृक्ष काटने का उद्देश्य पूछा । इन्द्रद्युम्न ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें सबकुछ बता दिया ।

तब ब्राह्मण वेशधारी श्रीविष्णु बोले – “हे राजन! इस माया निर्मित संसार में निवास करते हुए भी आपके हृदय में जो विचार उत्पन्न हुआ है वह अति उत्तम है । राजन! ये एक श्रेष्ठ शिल्पी हैं । शिल्पकर्म में ये विश्वकर्मा के समान निपुण हैं । ये मेरे बताएँ अनुसार प्रतिमा तैयार कर देंगे । आइए आप कुछ समय वृक्ष की छाया में विश्राम करें ।” उनकी बात सुनकर इन्द्रद्युम्न वृक्ष की शीतल छाया में बैठ गए । फिर भगवान् विष्णु की आज्ञा से विश्वकर्मा ने कुछ ही समय में श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा की प्रतिमाएँ तैयार कर दीं ।

यह देख इन्द्रद्युम्न के आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा । वे श्रद्धापूर्वक बोले – “भगवन् ! आप दोनों कोई साधारण ब्राह्मण प्रतीत नहीं होते । आपके कर्म अद्भुत हैं । आपका व्यवहार देवताओं के समान है । ऐसा प्रतीत होता है, मानो साक्षात् देवता ही मनुष्य-रूप में मेरे सामने आ गए हों । भगवन्! आप देवता हैं अथवा मनुष्य? यक्ष हैं या विद्याधर? कहीं आप ब्रह्मा और भगवान् विष्णु तो नहीं? कृपया अपना वास्तविक परिचय देकर मुझे अनुगृहीत करें ।”

तब भगवान् विष्णु ने अपना वास्तविक परिचय दिया और बोले – “वत्स! मेरे अनन्य भक्तों को ही मेरे दुर्लभ दर्शन सुलभ होते हैं और तुम्हारी दृढ़ भक्ति के कारण ही तुम्हें मेरा साक्षात्कार हुआ । मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम अनेक वर्षों तक सुखपूर्वक पृथ्वी का उपभोग करने के बाद मेरा परमधाम प्राप्त करोगे । यह तीर्थ इन्द्रद्युम्न तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध होगा । यहाँ मात्र एक बार स्नान करने पर ही मनुष्य स्वर्ग का अधिकारी बन जाएगा । यहाँ पिण्डदान करने वाले की इक्कीस पीढ़ियों का उद्धार हो जाएगा । यहाँ निकट ही वृक्षों से व्याप्त एक सुंदर मण्डप है । आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की पंचमी को महानक्षत्र में भक्तजन सात दिन तक उस सुंदर मण्डप में हमारी इन प्रतिमाओं को स्थापित रखेंगे । राजन! यहाँ सात दिन के लिए मेरी यात्रा होगी । भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने वाली वह पुण्यमय यात्रा गुण्डिचा यात्रा नाम से प्रसिद्ध होगी । जो लोग वहाँ मेरी, बलरामजी और सुभद्रा की श्रद्धापूर्वक पूजा- अर्चना करेंगे मेरी कृपा से उनकी सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी ।” यह कहकर श्रीविष्णु विश्वकर्मा सहित वहाँ से अंतर्धान हो गए । इसके बाद इन्द्रद्युम्न ने एक विशाल उत्सव का आयोजन कर उन प्रतिमाओं की स्थापना करवाई । भगवान् के वर-स्वरूप समस्त ऐश्वर्य भोगने के बाद इन्द्रद्युम्न को उनका परमधाम प्राप्त हुआ ।

ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)