Balaramji ka vivaah
Balaramji ka vivaah

Bhagwan Vishnu Katha: वैवस्वत मनु के पुत्र महाराजा शर्याति के वंश में रैवत नामक एक प्रसिद्ध राजा हुए । वे बड़े वीर, धर्मात्मा, दानी, दयालु, पराक्रमी और प्रजाप्रिय राजा थे । उनका एक नाम ककुद्मी भी था । पिता के ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण उन्हें कुशस्थली (द्वारिका) का राज्य मिला । वे धर्मपूर्वक राज्य-संचालन करने लगे । उनके राज्य में सदा सुख-समृद्धि की वर्षा होती थी । उनकी रेवती नामक एक कन्या थी, जो अत्यंत सुंदर और सुशील थी । जब वह युवा हुई तो रैवत ने उसके लिए योग्य वर ढूँढ़ना आरम्भ कर दिया । किंतु उन्हें योग्य राजकुमार नहीं मिला । इस कारण वे चिंतित रहने लगे ।

एक दिन वे अपने कुलगुरु से बोले – “गुरुदेव ! रेवती विवाह योग्य हो गई है, लेकिन हम उसके लिए योग्य वर ढूँढने में असफल रहे हैं । ऐसा कोई राजकुमार दिखाई नहीं देता, जिससे हम राजकुमारी का विवाह कर सकें । गुरुदेव ! आप परम ज्ञानी और तपस्वी हैं । आपका परामर्श सदा हमारे लिए वरदान सिद्ध हुआ है । अतः आप ही इस समस्या का समाधान कीजिए ।”

कुलगुरु बोले – “राजन ! ब्रह्माजी ने इस सृष्टि की रचना की है और जीवन की घटनाएँ उन्हें भली-भांति ज्ञात हैं । अतः आप उनकी शरण में जाएँ । वे ही रेवती के लिए योग्य वर के बारे में बताएँगे ।” तब रैवत अपनी पुत्री रेवती के साथ ब्रह्माजी की शरण में गए ।

ब्रह्माजी बोले – “वत्स ! चिंता त्याग दो । तुम्हारी पुत्री बड़ी सौभाग्यशाली है । इसका विवाह एक ऐसे राजकुमार के साथ निश्चित है, जिसके समान बलशाली और पराक्रमी संसार में कोई दूसरा नहीं है । वे और कोई नहीं, भगवान् विष्णु के परम भक्त और सेवक शेषनाग हैं, जो उनके कृष्ण अवतार के साथ उनके बड़े भ्राता बलराम के रूप में प्रकट हुए हैं ।”

उनकी बात सुनकर रैवत विस्मित होकर बोले – “ब्रह्मदेव ! मैंने पृथ्वी के समस्त राजाओं का यश भली-भांति देखा-सुना है, किंतु बलरामजी के विषय में मैं अभी तक अनभिज्ञ हूँ ।”

ब्रह्माजी बोले – “वत्स ! तुम्हें यहाँ आए कुछ ही क्षण हुए हैं, किंतु इस दौरान पृथ्वी पर अनेक युग बीत गए हैं । इस समय वहाँ द्वापर चल रहा है । बलरामजी इसी युग में अवतरित हुए हैं और आपकी राजधानी कुशस्थली में निवास करते हैं । आप रेवती का विवाह उनके साथ कर दें ।”

ब्रह्माजी से आज्ञा प्राप्त कर राजा रैवत कुशस्थली लौट आए । उस समय वहाँ यदुवंशी राजा उग्रसेन का राज्य था । उन्होंने कुशस्थली में अनेक द्वारों वाले एक भव्य महल का निर्माण करके उसका नाम द्वारिका रख दिया था । द्वारिकापुरी का ऐश्वर्य और वैभव स्वर्ग के समान अद्वितीय था । रैवत ने वसुदेव की सहमति प्राप्त कर रेवती का विवाह बलरामजी के साथ कर दिया । तत्पश्चात् वे तपस्या करने मेरु पर्वत पर चले गए ।

ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)