mere aaraadhy ram
mere aaraadhy ram

राम के अनेक रूप हमारे समक्ष हैं। राम इतिहास पुरुष हैं। कुशल व्यवस्थापक हैं। प्रजा प्रेमी राजा हैं। मातृ-पितृ भक्त हैं। मोक्ष देने वाले हैं इत्यादि यह आपने पहले पढ़ा है। वस्तुत वाल्मीकि कृत रामायण में ईश्वरीय शक्ति और उसके तत्व कहीं भी दिखाई नहीं देते। ज्ञातव्य है कि महर्षि वाल्मीकि ने राम को एक पराक्रमी योद्धा के रूप में प्रस्तुत किया है। रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने राम का ही नहीं बल्कि सभी पात्रों का चरित्र चित्रण निष्पक्ष रूप से किया है। सभी पात्रों के गुण-अवगुण समान रूप से रामायण में वर्णित हैं। संभवतः महर्षि वाल्मीकि का उद्देश्य राम की महिमा मंडन करने का नहीं था। उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और जीवन मूल्यों का मुक्त हृदय से वर्णन किया है। कालांतर में धर्म संबंधी अवधारणाओं के अनुसार राम को ईश्वरता प्रदान की गई। इस प्रसंग पर सूक्ष्म दृष्टिपात करने से हमें निम्नलिखित पहलू दृष्टिगोचर होते हैं।

आराध्य पूजन

प्रायश्चित्त तथा नित्यकृत्य करके राम की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए। या फिर पुस्तक पर ही सपरिकर, सपरिच्छद सीता-राम का अर्थात् राम, सीता, लक्ष्म, भरत, शत्रुघ्न, श्रीहनुमान आदि का आवाहन करना चाहिए। तत्पश्चात् समस्त उपकरणों से अलंकृत, पञ्च पल्लवादि से युक्त कलश स्थापित कर स्वस्त्ययन पूर्वक गणपति पूजन, बटुक, क्षेत्रपाल, योगिनी, मातृका, नवग्रह, तुलसी, लोकपाल, दिक्पाल आदिका पूजन तथा नान्दीश्राद्ध करके सपरिकर-सपरिच्छद राम की पूजा करे। महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में इस प्रकार उल्लेख मिलता है। इसके उपरान्त ब्राह्मणवादी की पूजा कर पाठका संकल्प करके ऋष्यादिन्यास करे।

विष्णु अवतार

राम भगवान विष्णु प्रजापति के अवतार माने जाते हैं। ऋग्वेद में केवल दो स्थलों पर ही ‘राम’ शब्द का प्रयोग हुआ है। (10/3/3 तथा 10/93/14)। उनमें से भी एक जगह काले रंग यानि रात के अंधकार के अर्थ में तथा शेष एक जगह ही व्यक्ति के अर्थ में प्रयोग हुआ है लेकिन वहां भी उनके अवतारी पुरुष या दशरथ के पुत्र होने का कोई संकेत नहीं है। नीलकण्ठ चतुर्धर ने ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों को स्वविवेक से चुनकर उनके रामकथा परक अर्थ किये हैं परन्तु यह उनकी निजी मान्यता है। ऋग्वेद के उन प्रकरणों में उल्लिखित विवरण से एवं भाष्यकारों के द्वारा उन मंत्रों का रामकथापरक अर्थ सिद्ध नहीं हो पाया है। ऋग्वेद में एक स्थल पर इक्ष्वाकुः (10/60/4) का तथा एक स्थल पर दशरथ (1/126/4) शब्द का भी प्रयोग हुआ है परन्तु उनके राम से सम्बद्ध होने का कोई संकेत नहीं मिल पाता है।

ब्राह्मण साहित्य में ‘राम’ शब्द का प्रयोग ऐतरेय में दो स्थानों पर (7/5/1, 7/7/27) तथा (7/5/8, 7/7/34) हुआ है। वहाँ उन्हें ‘रामो मार्गवेयः’ कहा गया है। जिसका अर्थ आचार्य सायण के अनुसार ‘मृगवु’ नामक स्त्री का पुत्र है। एक स्थल पर ‘राम’ शब्द का प्रयोग हुआ है (4/6/1-7)। यहां ‘राम’ यज्ञ के आचार्य के रूप में है तथा उन्हें ‘राम औपतपस्विनि’ कहा गया है। तात्पर्य यह कि प्रचलित राम का अवतारी रूप वाल्मीकीय रामायण एवं पुराणों की ही देन है।

पवित्र दार्शनिकता

महर्षि वाल्मीकि की अद्भुत कविता एवं महत्ता में उनकी तपस्या ही है। रामायण की दिव्य काव्यता का आशीर्वाद लिया और रामचरित्र का दर्शन किया। राम तो शुद्ध तपस्वी हैं। वह तपस्वियों के आश्रम में प्रवेश करते हैं। वहाँ वह वैखानस, बालखिल्य, सम्प्रक्षाल, मरीचिप (केवल चन्द्र किरण पान करने वाले), पत्राहारी, उन्मज्जक (सदा कण्ठ तक पानी में डूबकर तपस्या करने वाले), पञ्चाग्रिसेवी, वायुभक्षी, जलभक्षी, स्थण्डिलशायी, आकाशनिलयी एवं ऊर्ध्ववासी (पर्वत, शिखर-वृक्ष, मचान आदि पर रहने वाले) तपस्वियों को देखते हैं। यह सभी तप में लीन थे (अरण्यकाण्ड ६ठां सर्ग)। इनका जप सम्भवतः ‘श्रीराम’ मन्त्र रहा हो क्योंकि इनमें से अधिकांश राम को देखते ही योगाग्रि में शरीर छोड़ देते हैं। वस्तुतः काव्य विधि से कान्तासम्मित मधुर वाणी में वाल्मीकि का यही दार्शनिक उपदेश है। उनका मूल तत्त्व इस प्रकार पवित्रता पूर्वक रहकर तपोऽनुष्ठान करते हुए ईश्वर की आराधना करना एवं अधर्म से सदा दूर रहना ही है।

कुछ लोग रामायण में नर-चरित्र मानते हैं और राम को ईश्वरता का प्रतिपादक माने जाते हैं (वाल्मीकि कृत रामायण, बालकाण्ड 15-18 संपूर्ण सर्ग, एवं 76/17,19, में राम मानव रूप में ईश्वर के समान बताए गए हैं।)। रामायण के अयोध्या काण्ड 1/7 में महर्षि वाल्मीकि उल्लेख करते हैं – “राम साक्षात् सनातन विष्णु थे और परम प्रचण्ड रावण के वध की अभिलाषा रखने वाले देवताओं की प्रार्थना पर मनुष्य लोक में अवतीर्ण हुए थे।”

रामायण के अरण्य काण्ड में वाल्मीकि ने उल्लेख किया है – “राम का यह कर्म महान् और अद्भुत है। अहो! अपने स्वरूप को जानने वाले भगवान् पराक्रम भी अद्भुत है और इनमें भगवान् विष्णु की भाँति आश्चर्यजनक दृढ़ता दिखायी देती है।” महर्षि आगे उल्लेख करते हैं कि – “ऐसा कहकर वह सब देवता जैसे आये थे, वैसे ही चले गये।” तदनन्तर बहुत से राजर्षि और अगस्त्य आदि महर्षि मिलकर वहाँ आये तथा प्रसन्नतापूर्वक राम का सत्कार करके उनसे इस प्रकार बोले – “रघुनन्दन! इसीलिये महातेजस्वी पाक शासन पुरंदर इन्द्र शरभङ्ग मुनि के पवित्र आश्रम पर आये थे और इसी कार्य की सिद्धि के लिये महर्षियों ने विशेष उपाय करके आपको पञ्चवटी के इस प्रदेश में पहुँचाया था।”

तत्कालीन समय में मुनियों के शत्रु पापाचारी राक्षसों के वध के लिये ही राम का शुभागमन समझा गया था। राम ने बहुत बड़ा कार्य सिद्ध कर दिया। अब बड़े-बड़े ऋषि-मुनि दण्डकारण्य के विभिन्न प्रदेशों में निर्भय होकर अपने धर्म का अनुष्ठान करने लगे।

महर्षि वाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड, सर्ग 31 में हनुमान द्वारा राम के ईश्वरत्व का वर्णन करते हैं। इस सर्ग में हनुमान लंका की अशोक वाटिका में बैठी सीता को राम के विषय में विस्तार से बताते हुए राम की तुलना देवताओं से करते हैं।

वाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड में हनुमान द्वारा लंकापति रावण को अपना परिचय इस प्रकार देते हैं – “राक्षसों के राजाधिराज! मैं भगवान् श्रीरामका दास हूँ। दूत हूँ और विशेषतः वानर हूँ। मेरी सच्ची बात सुनो।”

ऐश्वर्य

महर्षि वाल्मीकि ने रामायण के युद्ध काण्ड के सर्ग 111 में रावण वध के उपरांत विलाप करती हुई रावण की पत्नी मंदोदरी से राम को भगवान शब्द से संबोधित करवाया है। रामायण के युद्ध काण्ड के 117वें सर्ग में भी राम को ईश्वर तुल्य माना गया है। यहां यह स्पष्ट होता है कि महर्षि वाल्मीकि ने राम के चरित्र को ईश्वर तुल्य स्वीकार कर लिया था। यह भी स्पष्ट होता है कि राम के लिए ऐश्वर्य प्रदर्शक वचन नहीं है किंतु आज आस्था और श्रद्धा से यह अभिप्राय निकाला गया है। जो गलत भी नहीं है।

हनुमान ने सीता के सामने और रावण के सामने राम के गुणों की जो व्याख्या की है। उनमें राम की तुलना ईश्वर के समान की है। वह एक ही क्षण में समस्त स्थावर-जंगमात्मक विश्व को संहृत कर दूसरे ही क्षण पुनः इस संसार का ज्यों-का-त्यों निमार्ण कर सकते हैं। हनुमान का यह कथन राम के पराक्रम को दर्शाता है ईश्वरीय तत्व को नहीं। यथा – इस कथन में क्या ईश्वरता का भाव स्पष्ट नहीं हो जाता? कितनी स्पष्टता है? यह आपके विवेक पर निर्भर है।

ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार ‘परोक्षप्रिया इव हि देवाः, प्रत्यक्षद्विषः’ (1/3/14, बृहदारण्यक, 4/2/2) अर्थात, प्रेम की मधुरता उसकी गूढ़ता में ही है। देवताओं के लिए कहा भी जाता है कि वह ‘परोक्षप्रिय’ होते हैं। महर्षि वाल्मीकि ने गूढ़ प्रेम की गाथा ही प्रस्तुत की है।

ऐतिहासिक दृष्टि

तत्कालीन अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। वाल्मीकि का वर्णन आधुनिक ऐतिहासिक शैली से नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि महर्षि वाल्मीकि का उद्देश्य इतिहास लेखन नहीं था अपितु उस समय की वास्तविकता को दर्शाना था। बुद्धिजीवियों का एक वर्ग इसे इतिहास रूप में स्वीकार नहीं करता।

विस्तृत एवं दीर्घ कालिक विश्व का इतिहास तो रामायण-महाभारत की भाँति ही हो सकता है और धर्म, अर्थ, लोक-व्यवहार, परलोक-सुख की दृष्टि से वही लाभकर भी सिद्ध हो सकता है। कालांतर में वाल्मीकि कृत रामायण की समीक्षा एवं मूल्यांकन राम को ऐतिहासिक पुरुष तो सिद्ध करता ही है साथ-ही-साथ उनके गुणों को ईश्वरीय वरदान स्वीकार कर राम को भगवान स्वरूपा सिद्ध करता है। सद्गुण और निस्वार्थ भाव ही किसी मनुष्य को ऐश्वर्यवान बनाता है।

भौगोलिक विवरण

वाल्मीकि कृत रामायण में वर्णित भूगोल पर अनेक इतिहासकारों ने अनुसंधान किया। कनिंघम की ‘ऐन्शेन्ट डिक्शनरी’ एवं एक अन्य पुस्तक ‘जागरफिकल डिक्शनरी’ में पर अनुसंधान हुआ। लंदन के ‘एशियाटिक सोसाइटी जर्नल’ में एक महत्त्वपूर्ण लेख छपा था। ‘लंका’ पर ही कई प्रबन्ध हैं। ‘सर्वेश्वर’ के एक लेख में ‘मालदीप’ को लंका सिद्ध किया है। कुछ लोग इसे ध्वस्त मज्जित या दुर्ज्ञेय भी मानते हैं। (वाल्मीकि 1/22) की कौशाम्बी प्रयाग से 14 मील दक्षिण-पश्चिम कोसम गांव है। धर्मारण्य आज की गया नगरी है। ‘महोदय’ नगर कुशनाभ की कन्याओं के कुब्ज होने से आगे चलकर कान्यकुब्ज, पुनः कन्नौज हुआ, गिरिव्रज ‘राजगिर’ है।

केकय देश कुछ लोग ‘गजनी’ को और कुछ झेलम एवं कीकना को कहते हैं। बालकाण्ड 2/3-4 में आयी तमसा नदी पर वाल्मीकि जी का आश्रम था। यह उस तमसासे सर्वथा भिन्न है। जिसका उल्लेख गङ्गाके उत्तर तथा अयोध्या के दक्षिण में मिलता है। वाल्मीकि आश्रम का उल्लेख 2/56/16 में भी आया है। पश्चिमोत्तर शाखीय रामायण के 2/114 में भी इस आश्रम का उल्लेख है। सम्मेलन पत्रिका 143/2 के 133 पृष्ठ पर वाल्मीकि आश्रम प्रयाग झाँसी रोड और राजापुर-मानिकपुर रोड के सङ्गम पर स्थित बतलाया गया है। कुछ लोग कानपुर के बिठूर को भी वाल्मीकाश्रम मानते हैं। 2/56/16 की टीका में कतक, तीर्थ, गोविन्दराज, शिरोमणिकार आदि इनका समाधान करते हुए लिखते हैं कि ऋषि प्रायः घूमते रहते थे। राम के वनवास के समय वह चित्रकूट के समीप तथा राज्यारोहण काल में गङ्गातट पर (बिठूर) रहते थे। वाल्मीकि 7/66/1 तथा 7/71/14 से भी वाल्मीकाश्रम बिठूरमें ही सिद्ध होता है।