ram aur ayodhya
अयोध्या में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा उत्खनन में प्राप्त प्राचीन अवशेष

वाल्मीकि कृत रामायण में वर्णित है कि राम का जन्म अयोध्या में हुआ। आज अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण किया जा रहा है। संभवतः पुस्तक के प्रकाशित होने तक मंदिर दर्शनार्थ खोल दिया जाएगा। राम एक ऐतिहासिक महापुरुष थे। इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण की प्राचीनता पर मतभेद हैं। नवीनतम शोध बताते हैं कि राम का जन्म आज से लगभग 7128 वर्ष पूर्व अर्थात 5114 ईस्वी पूर्व में हुआ था। पौराणिक ग्रंथों में वर्णित सात पवित्र तीर्थस्थलों में से अयोध्या एक है। महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण के अनुसार सरयू नदी के तट पर अवस्थित अयोध्या नगर को ‘मनु’ ने बसाया था।

राम का बचपन

बचपन से ही राम सबके प्रिय थे। उन्होंने अपना बचपन तीनों माताओं और पिता दशरथ की गोद में व्यतीत किया। बाल्यावस्था के बाद जब बालक राम ने अपने पैरों पर चलना शुरू किया तो वह अपने तीनों छोटे भाइयों के साथ खेलते। इनके साथ इनकी बहन भी खेल में शामिल हो जाती। राजप्रासाद में राम खूब अटखेलियां करते। राजप्रासाद के सभी कर्मचारी पांचों भाई बहनों का ध्यान रखते। आज एक भजन अत्यंत लोकप्रिय है – ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पायलिया…।

राम की किशोरावस्था

लक्ष्मण राम से बहुत प्रेम करते थे। बचपन से ही राम और लक्ष्मण साथ-साथ रहे। बचपन से ही राम और लक्ष्मण साथ-साथ भोजन करते थे। राम लक्ष्मण को अपने भोजन में से लक्ष्मण को दिए बिना भोजन नहीं करते थे (वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड 18/30)। किशोरावस्था से ही राम ने क्षत्रिय कार्यों में रूचि लेनी शुरू कर दी थी। राम घोड़े पर सवार होकर शिकार करने के जाते तब लक्ष्मण सुरक्षार्थ सदैव साथ रहते (वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड 18/31)।

उपनयन संस्कार

राम की शिक्षा ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में ही हुई थी। उस युग का एक और प्रसिद्ध आश्रम प्रयाग में भारद्वाज मुनि का था। वाल्मीकि कृत रामायण में उल्लेख मिलता है कि ऋषि वशिष्ठ के राज्य में एक बड़ा आश्रम था। यहीं पर राजा दिलीप तपस्या करने गए थे। इसके अलावा प्रसिद्ध विश्वामित्र को भी वशिष्ठ के आश्रम में ब्रह्मत्व की प्राप्ति हुई थी। रामायण काल में छात्रों को उनके वर्ण के आधार पर एक विशिष्ट चरण में गुरुकुल में प्रवेश दिया जाता था। ब्राह्मण को 6 वर्ष की अवस्था में, क्षत्रिय को 8 वर्ष की अवस्था में और वैश्य छात्रों को 11 वर्ष की आयु में गुरुकुल में प्रवेश दिए जाने की व्यवस्था थी। उस काल इसे यज्ञोपवीत, उपनयन या उपवीत कहा जाता था। छात्रों को प्रवेश की अनुमति देने से पहले यज्ञ अनुष्ठान किए जाते थे। वे अपने गुरु के पास बैठते थे और ब्रह्मचारी के रूप में अध्ययन करते थे। गुरु का यह कर्तव्य था कि वह अपने शिष्य को सभी बौद्धिक संस्कारों, शास्त्रों और सभी उपयोगी अनुशासनों के बारे में ज्ञान प्रदान करे। गुरुकुल में शास्त्रों की शिक्षा के साथ सभी विद्यार्थियों से कठोर कार्य करवाए जाते थे।

जंगल से लकड़ियाँ लाना। आश्रम की साफ सफाई करना। सभी विद्यार्थियों द्वारा मिलकर दैनिक कार्य पूरे करना। भूमि पर सोना। सादा भोजन करना आदि। विद्यार्थियों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता था। राजपुत्र हो या सामान्य जनपुत्र सभी को आश्रम के विधि-विधान के अनुसार ही कार्य करने होते थे। गुरुकुल में केवल अकादमिक शिक्षा पर ही ध्यान केंद्रित नहीं किया जाता बल्कि अनुशासन, नैतिक आचरण और आत्म-नियंत्रण के मूल्यों को भी स्थापित किया। राम ने इन गुणों को गहराई से आत्मसात कर उन्हें अपने चरित्र का अभिन्न अंग बना लिया। राम का गुरुकुल जीवन समग्र शिक्षा के महत्व पर एक गहन सबक है। जिसमें न केवल शैक्षणिक ज्ञान बल्कि नैतिक मूल्य, चरित्र विकास और समाज के लिए निस्वार्थ सेवा भी शामिल है। राम आश्रम में विद्या प्राप्त करने के लिए गए। उन्होंने अल्प समय में सभी विद्याएं सीख ली। राम ने गुरुकुल में रहने के लिए शाही महल की सुख-सुविधाएँ छोड़ दीं। गुरुकुल प्रकृति की शांत सुंदरता के बीच स्थित था, जो सीखने और आध्यात्मिक विकास के लिए एक आदर्श वातावरण प्रदान करता था। ऋषि वामदेव के मार्गदर्शन में, राम ने अपने भाईयों के साथ वेदों, शास्त्रों और अन्य पवित्र ग्रंथों का परिश्रम पूर्वक अध्ययन किया। उन्होंने जीवन में ज्ञान के गहन महत्व को पहचानते हुए प्रत्येक पाठ को विनम्रता और श्रद्धा के साथ अपनाया।

नियमित शिक्षा के अतिरिक्त राम ने गुरुकुल जीवन में युद्ध कला और तीरंदाजी में पारंगत हुए। राम ने अपने युद्ध कौशल में वैविध्यता लाकर एक दुर्जेय योद्धा बने। किसी भी विद्यार्थी की भांति राम का गुरुकुल जीवन परिवर्तन का काल था। जहाँ वह एक जिज्ञासु युवा राजकुमार से एक बुद्धिमान और गुणी व्यक्ति के रूप में विकसित हुए। गुरुकुल में उनकी शिक्षा ने धर्म के अवतार और आदर्श शासक के रूप में उनके चरित्र की आधारशिला रखी। गुरुकुल में राम ने सभी परीक्षाओं और परीक्षणों का सरलतापूर्वक उत्कृष्ट प्रदर्शन कर सदैव अग्रणी रहे। सत्य, निष्ठा, नैतिकता, सेवा भाव, धार्मिक प्रतिबद्धता, प्रकृति प्रेमी, पारिवारिक निष्ठा, प्रजा हित सर्वोपरि, राजनीति, युद्ध कौशल और परिवारवाद की शिक्षा ने उन्हें एक असाधारण छात्र बना दिया था। उनके शिक्षकों से उन्हें भरपूर प्यार मिला। राजमहल लौटने के बाद गुरुकुल के दिनों में सीखी गई शिक्षाएँ और मूल्य राम के हृदय में अंकित रहे। अपने पूरे जीवन में, उन्होंने सत्य, करुणा और न्याय के सिद्धांतों को बरकरार रखा और पूरी मानवता के लिए एक असाधारण उदाहरण स्थापित किया।

राम की यौवनावस्था

राम के उपनयन संस्कार के बाद उनके शौर्य, पराक्रम, साहस और वीरता का गुणगान अयोध्या के घरों से निकल कर दूर-दूर तक होने लगा था। संभवतः इसी गुणगान को ज्ञात कर महर्षि विश्वामित्र राजा दशरथ की राजसभा में उपस्थित हुए। महाराज दशरथ ने महर्षि का हार्दिक स्वागत किया। महर्षि विश्वामित्र सिद्धि के लिए अनुष्ठान कर रहे थे। मारीच और सुबाहु नामक दो राक्षसों ने उनके यज्ञ में रक्त एवं मांस की वर्षा कर विघ्न उत्पन्न कर उत्पात मचा रहे थे। इस कारण से महर्षि विश्वामित्र को अपना यज्ञ रोकना पड़ा। उन दोनों राक्षसों के मर्दन हेतु महर्षि विश्वामित्र ने राजा दशरथ ने राम को अपने आश्रम ले जाने की अनुमति मांगी। यह सुनकर राजा दशरथ विचलित हो गए। वह राम को भेजने के पक्ष में नहीं थे।

राम की अवस्था उस समय मात्र सोलह वर्ष थी (वाल्मीकि कृत रामायण, बालकाण्ड, 20/2)। राजा दशरथ ने राम के स्थान पर कुशल सैनिकों को भेजने का प्रस्ताव महर्षि विश्वामित्र के समक्ष रखा। यह सुनकर विश्वामित्र क्रोधित हो गए (वाल्मीकि कृत रामायण,बालकाण्ड, 20/20)। महर्षि वसिष्ठ के समझने पर दशरथ राम को महर्षि विश्वामित्र के साथ भेजने के लिए तैयार हुए वाल्मीकि कृत रामायण,बालकाण्ड, 21/5-10)। दशरथ ने राम को महर्षि विश्वामित्र के साथ जाने की अनुमति प्रदान कर दी। राम के साथ लक्ष्मण भी चले। महर्षि विश्वामित्र दोनों भाईयों को लेकर आश्रम पहुंच गए। राजा दशरथ से महर्षि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को लेकर अपने आश्रम इस उद्देश्य से लेकर गये ताकि तत्कालीन समय में महर्षियों एवं ऋर्षियों के यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करने वाले आतंकियों को समाप्त किया जा सके। महर्षि विश्वामित्र आश्रम मार्ग का विश्लेषण अन्य अध्याय में विस्तार पूर्वक किया गया है।

राम का चरित्र

इतिहास में अनेक सिद्ध पुरुषों का नाम में राम मिलता है। परशुराम उनमें प्रमुख हैं। इनके अलावा भी अनेक विभूतियां हैं। वाल्मीकि कृत रामायण के राम को सनातन धर्म में सर्वोच्च स्थान दिया गया है। भगवान शंकर भी राम का ध्यान करते हैं। हनुमान जी राम के परम भक्त हैं। श्री सांईं बाबा के नाम के आगे ‘राम’ ही लिखा जाता है।

सामाजिक राम

राम सिर्फ हिंदुस्तान में ही नहीं अपितु सारी दुनिया में पूजनीय हैं। सातों महाद्वीपों के कण-कण में बसे राम आज भी सामाजिक रूप से उतने ही प्रासंगिक हैं जितने अपने जीवन काल में रहे। युग बदलते चले गए लेकिन राम के प्रति आस्था और श्रद्धा कभी कमजोर तक नहीं हुई बदलने की बात तो बहुत दूर की है। क्यों? क्यों हुआ ऐसा? क्यों उनका जीवन एक कहानी नहीं बल्कि एक जीवन शैली है। जीवन का आधार है। आदर्श है जीवन राम का यह दौर के समाज के लिए। यूं ही नहीं उकेरा जाता किसी को शिलाओं पर, गुफाओं में, सिक्कों पर और नहीं सजाए जाते मंदिरों में ऐसे चरित्र जिन पर लिखे गए हों बड़े-बड़े महाकाव्य और ग्रंथ। पंचतत्व तो हर इंसान में मौजूद हैं लेकिन आराध्य वही होता है जो पेश करता है संघर्ष के वक्त में नये आयाम। सामाजिक मर्यादा और प्रतिष्ठा को स्थापित कर राम सारी दुनिया के प्रेरणा स्रोत बन गए।

पुत्र राम

राम राजा दशरथ के बड़े पुत्र होते हुए जो आदर्श पेश किया उसकी कल्पना आज नहीं की जा सकती। आज बड़ा तो ऐसा बड़ा है कि छोटे तो उसकी हर पहुंच तक पहुंच ही नहीं सकते। पद की ललक, लालसा और लालच से बहुत दूर राम ने पुत्र धर्म को निभाते हुए पिता की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया। राम के लिए न तो ये विवशता थी और न नियम-कानून की कोई अड़चन। भविष्य की सार्थक रणनीति बनाने और पिता के फैसले को सहर्ष स्वीकार कर राम ने समाज को ये संदेश दिया कि बड़ों के आदेश एक सुखद अहसास का परिचायक होते हैं। राम अपनी तीनों माताओं से अगाध प्रेम करते थे। उनके दिल में माता कैकेई के प्रति कोई द्वेष नहीं था। वनवास जाते समय उन्होंने तीनों माताओं के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया और वापस आते भी तीनों का आशीर्वाद लिया।

शांत स्वभाव राम

युवराज की घोषणा को राम अत्यंत शांत मन से स्वीकार किया। लक्ष्मण को जैसे ही पता चला कि पासा पलट गया है तो वह आगबबूला हो गए लेकिन राम ने लक्ष्मण को समझाते हुए कहा – “लक्ष्मण! शांत हो जाओ। नियति को समझो। माता-पिता हमारे हितैषी और शुभ चिंतक हैं। उनके निर्णय में न केवल हमारा हित होगा बल्कि प्रजा का हित भी निहित हो सकता है।

वनवासी राम

हर सुख को हर जगह अपने मनमाफिक ढाल लेना ही इंसान की सबसे बड़ी कामयाबी है। राज महलों में दास-दासियों की पलकों के तले पले-बढ़े राम के लिए वनवास भयावह अंधकार से कम नहीं था लेकिन उन्होंने वनवास के हर पल को ऐसे जिया मानों वो कुदरत के बीच ही पले-बढ़े हो। चौदह साल कम नहीं होते सत्ता के गलियारों से दूर जंगलों में भटकते रहना और कुदरत के नायाब सौंदर्य का आंनद लेना ये संदेश देता है कि मनुष्य की जिंदगी सबसे अहम गुरु कुदरत है।

भ्राता राम

राम अपने तीनों भाई और बहन से अगाध प्रेम करने वाले राम लक्ष्मण को वनवास के लिए ले जाने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन लक्ष्मण के विशेष आग्रह को वह अस्वीकार नहीं कर सके। जब भरत के वनवासी राम से पहुंचे तब भरत के विशेष आग्रह को अस्वीकार करते हुए उन्होंने कहा – “मैं पिता की आज्ञा भंग नहीं कर सकता। मैं चौदह वर्ष से पूर्व अयोध्या वापस लौटने में असमर्थ हूं। तुम जाओ वत्स! प्रजा का ध्यान रखो।”

मित्र राम

सुग्रीव और विभीषण से मित्रता कर राम ने आजीवन उसको निभाया। सुग्रीव को न्याय दिलाने में राम ने अहम भूमिका निभाई। रावण वध कर विभीषण को राजा बनाया। दोस्ती को एक आयाम दिया।

शत्रु राम

राम उन सभी के शत्रु थे जो अनैतिक कार्य में लिप्त रहे। तत्कालीन समय में राम ने अनेक राक्षसों का वध करके आमजनों को सुखमय जीवन प्रदान किया। राम ने भयमुक्त समाज की कल्पना को साकार करने का प्रयास किया था।

मोक्षदायिनी राम

राम को मोक्षदायिनी माना जाता है। यानि राम नाम मोक्ष का आधार है। जो जपै राम नाम सो मोक्ष पाए।

राजा राम

राजा को अनेक प्राचीन ग्रन्थों में राज्य का भगवान कहा गया है। राज्यवासियों के लिए खाद्यान्न सहित सुख-दुख और जीवन-मरण राजा के हाथों में होता है। एक राजा के अंदर दया, क्षमा, उदारता एवं करुणा आदि के भाव होने चाहिए। राजा को न्याय प्रिय होना चाहिए। राजा का न्याय पक्षपात से रहित हो। राजा को वचन और कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। राम ने वनवास से वापस आने के उपरांत सत्ता का अधिग्रहण किया और वह आदर्श प्रस्तुत किया जो आज भी अनुकरणीय है। राम ने अपने वचन का पालन करते हुए अपने प्राण से प्रिय भाई लक्ष्मण को मृत्युदंड का आदेश दे दिया था। अतः भगवान राजा के रूप आदर्श प्रस्तुत करते।

योद्धा राम

राम न केवल कुशल योद्धा थे बल्कि सभी को साथ लेकर चलने वाले थे। उन्होनें रावण के भाई विभीषण को भी युद्ध में अपने साथ किया। उनके युद्ध कौशल की वजह से लंका जाने के लिए वानर सेना ने पत्थरों का सेतु बना लिया था। एक कुशल योद्धा का पहला प्रदर्शन राम ने महर्षि विश्वामित्र के आश्रम में दिया। वहां उन्होंने मारीच और सुबाहु का मर्दन किया और आश्रम को राक्षसों से भयमुक्त कर दिया। लंकापति दशानन से युद्ध करते-करते राम थक गए। राम युद्ध से थककर चिन्ता करते हुए रणभूमि में खड़े थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिये उनके सामने उपस्थित हो गया। यह देख अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिये आये थे, राम के पास जाकर बोले- “सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो। वत्स! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे। इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है ‘आदित्यहृदय’। यह परम पवित्र और सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है। इसके जप से सदा विजय की प्राप्ति होती है। यह चिन्ता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला उत्तम साधन है। महर्षि अगस्त्य ने राम ‘आदित्यहृदय’ नामक स्रोत दिया है।