महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में महर्षि ने विषय वस्तु के साथ न्याय करते हुए सभी पात्रों के चरित्र का निष्पक्ष रूप से किया है। इस अध्याय में राम के चरित्र को महर्षि वाल्मीकि के दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करेंगे। श्रीमद्भगवद्गीता में एक श्लोक है कि श्रेष्ठ व्यक्ति जो आचरण करते हैं समाज उसका अनुसरण करता है। निसंदेह यह कथन त्रेतायुग के बहुत बाद द्वापर युग में वचन बना लेकिन इस कथन के पार्श्व में राम का चरित्र अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में अनेक स्थानों पर राम की चरित्रगत व्याख्या की है।

मैं अपने प्रजाजनों को प्रसन्न और संतुष्ट रखने के लिये स्नेह, दया, सौख्य अथवा प्राणाधि का जानकी का भी परित्याग कर सकता हूँ। यह सब करते हुए मुझे तनिक भी पीड़ा नहीं होगी। राम के इस कथन का उल्लेख महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में किया है। अयोध्या काण्ड के प्रथम सर्ग में वर्णित किया गया है कि जब राम के पास नारद आये तो उन्होंने उनके गुणगान करते हुये कहा – “हे मुनिश्रेष्ठ! हम जैसे विषयासक्त संसारी मनुष्यों के लिये आपका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। पुण्योदय होने पर संसारी पुरुष को भी सत्संग प्राप्त हो जाता है। अतः हे मुनीश्वर! आज आपके दर्शन से ही मैं कृतार्थ हो गया।” परशुराम ने राम से क्रोधवश कहा- “यदि तू वास्तव में क्षत्रिय है तो मेरे साथ द्वन्द्व युद्ध कर। तू मेरे ही समान ‘राम’ नाम से विख्यात होकर पृथ्वी में विचरता, धनुष को तोड़कर व्यर्थ ही अपनी प्रशंसा कर रहा है? अरे रघुकुलोत्पन्न! यदि तू इस वैष्णव धनुष पर रोंदा चढ़ा देगा तो मैं तेरे साथ युद्ध करूँगा।

नहीं तो मैं अभी सबको मार डालूँगा क्योंकि क्षत्रियों का अन्त करना तो मेरा काम ही है।” परशुराम के ऐसा कहने पर पृथ्वी बारम्बार काँपने लगी और सबके नेत्रों के सामने अन्धकार छा गया। राम ने शांत मन से उत्तर दिया- “संत भी जब अहं में आ जाये, उसमें भी क्रोध पराकाष्ठा पर पहुंच जाये और वह विचारहीन हो जाये तब उसे किस तरह अपनी गलतियों का अहसास कराना चाहिये।” राम ने अगले ही पल परशुराम के हाथ से धनुष लिया और उस पर अनायास ही रोंदा चढ़ाकर दिखा दिया। जिसे देख भृगुनंदन परशुराम का मुख मलिन हो गया और अपनी गलती का उन्हें एहसास भी हो गया। तब परशुराम ने कहा- “मनुष्य जब तक माया से आवृत रहते हैं तब तक आपको नहीं जान सकते। विद्या की विरोधिनी यह अविद्या जब तक विचार नहीं किया जाता तभी तक रहती है। अविद्याजन्य देहादि संघातों में प्रतिबिम्बित हुई चित्- शक्ति ही इस जीव-लोक में ‘जीव’ कहलाती है। यह जीव जब तक देह, मन, प्राण और बुद्धि आदि में अभिमान करता है तभी तक कर्तृव्य, भोत्कृत्व और सुख-दुःखादि को भोगता है।” यहाँ पर राम ने परशुराम के माध्यम से माया, मोह, कर्त्तव्य और भोग आदि के संबंध में समाज को उपदेश देने का कार्य किया। अयोध्या काण्ड के ही नवम् सर्ग में राम और भरत का मिलाप के संदर्भ के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि रघुनाथ जी ने जो वचन अपने पिता और माता कैकेयी को दिया था उस वचन को उनके अनन्य भक्त भाई भरत भी डिगा न सके। भरतजी ने जब कहा – “यदि आप वन से नहीं लौटना चाहते तो मुझे आज्ञा दीजिये जिससे मैं भी वन में आकर लक्ष्मण के समान ही आपकी सेवा करूँ।”

इतना कहकर भरत अन्न-जल छोड़कर दूसरी ओर मुख करके बैठ गये। भरत का ऐसा हठ देखकर राम ने अत्यन्त विस्मित हो गए। शांत मन से भरत को समझा कर अयोध्या वापस भेजा। रावण वध के पश्चात् विभीषण का राज्याभिषेक कर राम ने विभीषण से कहा – “विभीषण! वैर मरणपर्यन्त ही चलता है। रावण का अंतिम संस्कार चुका है। तुम्हें किसी प्रकार का अन्यथा भाव इसके प्रति मन करना चाहिए क्योंकि अब तो यह हम दोनों के लिये समान ही प्रिय हैं।” गिद्धराज जटायु द्वारा सीता की रक्षा करते हुए मरणासन्न हो जाने पर राम द्वारा उन्हें ‘तात’ शब्द का संबोधन तथा मृत्युपरान्त अपने हाथ से उनकी और्ध्वदैहिक क्रिया करना, मानवीय मर्यादा का परिचायक का दिग्दर्शक है। राम गुणों के भंडार हैं। अंहकार रहित हैं। आमजन की भांति अधर्म से बचते हैं। धर्म अर्थात कर्तव्य की मर्यादा में रहते हैं। एक प्रश्न है वाल्मीकि रामायण में कि इस समय संसार में गुणवान, पराक्रमी, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवक्ता और दृढ़प्रतिज्ञ कौन है? सदाचार से युक्त, समस्त प्राणियों के हित का साधक, विद्वान, सामर्थ्यशाली और एकमात्र प्रियदर्शन कौन है? मन पर अधिकार रखने वाला, क्रोध को जीतने वाला कान्तिवान और किसी की निन्दा न करने वाला कौन है और संग्राम में कुपित होने पर किससे देवता भी डरते हैं?

इस प्रश्न का नारद ने उत्तर देते हुए कहा – “राजन! इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न एक ऐसे पुरूष, जो राम के नाम से विख्यात हैं, वे मन को वश में रखने वाले हैं। महाबलवान, कान्तिमान, धैर्यवान और जितेन्द्रिय हैं। नीतिज्ञ, शत्रु संहारक, धर्म के ज्ञाता, सत्य प्रतिज्ञ, प्रजा के हित साधन में लगे रहने वाले हैं। यशस्वी, ज्ञानी, पवित्र, सम्पूर्ण गुणों से युक्त हैं। गम्भीरता में समुद्र, धैर्य में हिमालय, विष्णु भगवान के समान बलशाली, चन्द्रमा के समान मनोहारी हैं। क्रोध में कालाग्नि की, क्षमा में पृथ्वी की तरह, त्याग में कुबेर और धर्मराज के समान हैं।” महर्षि वाल्मीकि ने राम को धर्म के प्रतिरूप रामो विग्रहवान् धर्मः कहा है। वनवास से पूर्व और पश्चात राम के चरित्र में अंश मात्र परिवर्तन दिखाई नहीं देता। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में सभी पात्रों के चरित्र चित्रण में कोई भेद नहीं किया है। राम ने तत्कालीन परिवेश की परिस्थितियों को आत्मसात कर ही व्यवहार किया। यही सज्जनता है। वस्तुत: यही आत्मिक गुण किसी भी व्यक्ति को ईश्वरत्व प्रदान करते हैं।

काल गणना

इतिहासकारों एवं विद्वानों के एक वर्ग का मत है कि राम ने अपने पच्चीसवें जन्मदिन पर वनगमन किया। चौदह वर्ष का वनवास के उपरांत वह अयोध्या लौटे। उन्होंने 11 वर्ष तक राज्य किया। तत्पश्चात सरयू नदी में जलसमाधि ली। इस प्रकार राम की कुल उम्र 25 + 14 + 11 = 50 वर्ष होती है। इतिहासकारों एवं विद्वानों ने इसी को आधार बनाकर राम की मृत्यु का अनुमानित समय 5064 ईसापूर्व सिद्ध किया है। यहां प्रश्नवाचक चिह्न लग जाता है। पाठकगण विचार करें। वेद व्यास द्वारा दी गई ज्योतिषीय तिथि का आधुनिक इतिहासकारों और विद्वानों ने मूल्यांकन कर कृष्ण की मृत्यु 13 अप्रैल, 3031 ईसा पूर्व बताई है। कृष्ण की मृत्यु के पश्चात उनका सम्पूर्ण वंश समाप्त हो गया। साथ ही द्वापरयुग का भी अंत हुआ।

5064 – 3031 = 2033, अर्थात यह संख्या त्रेतायुग की समाप्ति का संकेत करती है। यदि सामान्य प्रक्रिया में दो युगों के मध्य का अंतर 2050 वर्ष मान लिया जाए तो सतयुग त्रेतायुग से लगभग 7114 वर्ष पहले रहा होगा। यदि आधुनिक इतिहासकार और विद्वान इस गणना को स्वीकार कर रहे हैं तो सिंधु घाटी सभ्यता के अस्तित्व एवं विनाश की सभी गणनाएं छिन्न-भिन्न हो जाएगी। इस तरह की गणना के अनुसार कलियुग का अंत 3031 + 2050 = 5081 में होना चाहिए।

चूंकि हम यह गणनाएं ईसापूर्व की कर रहे हैं तो 5081 – 2023 = 3058 में कलियुग समाप्त हो जाएगा। क्या यह संभव है? इस गणना को ईसापूर्व के अनुसार देखें तो ज्ञात होता है 3031 – 2050 = 981 की संख्या प्राप्त होती है। इसका अभिप्राय यह है 2023 – 981 = 1042 की संख्या प्राप्त होती है। अर्थात सन् 1042 में कलियुग समाप्त हो जाना चाहिए था। यहां सन् 2023 का उल्लेख पुस्तक लेखन वर्ष का संकेत है। इस विषय पर गंभीरता से शोध होना चाहिए।