इन शब्दों में कैसा हृदय-विदारक आशय छिपा हुआ था! कहां जाये? संसार में उसके लिए अपमान की गली के सिवा और कोई स्थान नहीं था।
बुढ़िया ने प्रेममय स्वर में कहा – बेटी, भाग्य में जो कुछ लिखा है, वह तो होकर ही रहेगा, किन्तु तुम कब तक यहां बैठी रहोगी! मैं दीन ब्राह्मणी हूं। चलो मेरे घर रहो, जो कुछ भिक्षा-भवन मांगे मिलेगा, उसी में हम दोनों निर्वाह कर लेगी। न जाने पूर्वजन्म में हममें तुममें क्या संबंध था। जब से तुम्हारी दशा सुनी है, बेचैन हूँ। सारे शहर में आज घर-घर तुम्हारी चर्चा हो रही है। कोई कुछ कहता, कोई कुछ। बस अब उठो, यहां सन्नाटे में पड़ा रहना अच्छा नहीं। समय बुरा है। मेरा घर यहां से थोड़ी ही दूर पर है। नारायण का दिया बहुत कुछ है। मैं भी अकेली से दुकेली हो जाऊंगी। भगवान् किसी-न-किसी प्रकार दिन काट ही देंगे।
एक घने, सुनसान, भयानक वन में थका हुआ मनुष्य जिधर पगडंडियों का चिह्न पाता है, उसी मार्ग को पकड़ लेता है। वह सोच-विचार नहीं करता कि मार्ग मुझे कहां ले जाएगा। दूजी इस बुढ़िया के साथ चली। इतनी ही प्रसन्नता से वह कुएं में कूद पड़ती। वायु में उड़ने वाली चिड़िया दाने पर गिरी। क्या इन दोनों के नीचे जाल बिछ हुआ था?
दूजी को बूढ़ी कैलासी के साथ रहते हुए एक मास बीत गया। कैलासी देखने में दीन, किंतु मन की धनी थी। उसके पास संतोष रूपी धन था, जो किसी के सामने हाथ नहीं फैलाता। रीवां के महाराज के यहां से कुछ सहायता मिलती थी। यही उसके जीवन का अवलंब था। वह सर्वदा दूजी को ढाढस देती रहती थी। ज्ञात होता था कि यह दोनों -बेटी है। एक ओर से पूर्ण सहानुभूति और ढाढस, दूसरी ओर से सच्ची सेवकाई और विश्वास। कैलासी कुछ हिंदी जानती थी। दूजी को रामायण और सीता-चरित्र सुनाती। दूजी इन कथाओं को बड़े प्रेम से सुनती। उज्ज्वल वस्त्र पर रंग भली-भांति चढ़ता है। जिस दिल उसने सीता-वनवास की कथा सुनी, वह सारे दिन रोती रही। सोयी तो सीता की मूर्ति उसके सामने खड़ी थी। उसके शरीर पर उज्ज्वल साड़ी थी, आंखों और आंसू की ओट में प्यार छिपा हुआ था। दूजी हाथ फैलाए हुए लड़कों की भांति उनकी तरफ दौड़ी। माता, मुझको भी साथ लेती चलो। मैं वन में सेवा करूंगी। तुम्हारे लिए पुष्प-शय्या बिछाऊंगी, तुम्हें कमल के थाल में फलों का भोजन कराऊंगी। तुम वहां अकेली एक बुड्ढे साधु- के साथ कैसे रहोगी? मैं तुम्हारे चित्त को प्रसन्न रखूंगी। जिस समय हम और तुम वन में किसी सागर के किनारे घने वृक्षों की छाया में बैठेंगे, उस समय मैं वायु की धीमी-धीमी लहरों के साथ गाऊंगी।
सीता ने उसको तिरस्कार से देखकर कहा – तू कलंकित है, मैं तुझे स्पर्श नहीं कर सकती। तपस्या की आंच में अपने को पवित्र कर।
दूजी की आंखें खुल गई। उसने निश्चय किया, मैं इस कलंक को मिटाऊंगी।
आकाश के नीले समुद्र में तारागण पानी के बुलबुलों की भांति मिटते जाते थे। दूजी जे उन झिलमिलाते हुए तारों को देखा। मैं भी उन्हीं तारों की तरह सबके नेत्रों में छिप जाऊंगी। उन्हीं बुलबुलों की भांति मिट जाऊंगी।
विलासियों की रात हुई। संयोगी जागे। चक्कियों ने अपने सुहावने राग छेड़े। कैलासी स्नान करने चली। तब दूजी उठी और जंगल की ओर चल दी। चिड़िया पंखहीन होने पर भी सुनहरे पिंजड़े में न रह सकी।
प्रकाश की धुंधली-सी झलक में कितनी आशा, कितना बल, कितना आश्वासन है, यह उस मनुष्य से पूछो, जिसे अंधेरे ने एक घने वन में घेर लिया है। प्रकाश की वह प्रभा उसके लड़खड़ाते हुए पैरों को शीघ्रगामी बना देती है, उसके शिथिल शरीर में जान डाल देती है। जहां एक-एक पग रखना दुष्कर था, वहां इस जीवन-प्रकाश को देखते हुए यह मीलों और कोसों तक प्रेम की उमंगों से उछलता हुआ चला जाता है।
परन्तु दूजी के लिए आशा की यह प्रभा कहां थी? वह भूखी-प्यासी, उन्माद की दशा में चली जाती थी।
शहर पीछे छूटा। बाग और खेत आए। खेतों में हरियाली थी, वाटिकाओं में बसन्त की छटा। मैदान और पर्वत मिले। मैदानों में बांसुरी की सुरीली ताने आती थी। पर्वतों के शिखर मोरों की झंकार से गूंज रहे थे।
दिन चढ़ने लगा। सूर्य उसकी ओर आता दिखाई पड़ा। कुछ काल तक उसके साथ रहा। कदाचित् रूठे को मनाता पुनः अपनी राह चला गया। वसंत ऋतु की शीतल, मंद, सुगंधित वायु चलने लगी। खेतों ने कुहरे की चादरें ओढ़ ली। रात हो गयी और दूजी एक पर्वत के किनारे झाड़ियों से उलझती, चट्टानों से टकराती चली जाती थी, मानो किसी झील की मंद-मंद लहरों में किनारे पर उगे हुए झाऊ के पौधों का साया थरथरा रहा हो। इस प्रकार अज्ञात की खोज में अकेली निर्भय वह गिरती-पड़ती चली जाती थी। यहां तक कि भूख-प्यास और अधिक श्रम के कारण उनकी शक्तियों ने जवाब दे दिया। वह एक शिला पर बैठ गयी और भयभीत दृष्टि से इधर-उधर देखने लगी। दाहिने-बाएं घोर अंधकार था। उच्च पर्वत शिखाओं पर तारे जगमगा रहे थे। सामने एक टीला मार्ग रोके खड़ा था और समीप ही किसी जलधारा से दबी हई सांय-सांय की आवाज सुनायी देती थी।
दूजी थककर चूर हो गयी थी, पर उसे नींद न आई। सर्दी से कलेजा कांप रहा था। वायु के निर्दयी झोंके लेश-मात्र भी चैन न लेने देते थे। कभी-कभी एक क्षण के लिए आंखें झपक जाती और फिर चौंक पड़ती। रात्रि ज्यों-त्यों व्यतीत हुई। सवेरा हुआ। चट्टान से कुछ दूर एक घना पाकड़ का वृक्ष था, जिसकी जड़े सूखे पत्तों से चिपट यों रस खींचती थी, जैसे कोई महाजन दीन असामियों को बांधकर उनसे ब्याज के रुपए वसूल करता है। इस वृक्ष के सामने कई छोटी-छोटी चट्टानों ने मिलकर एक कोठरी की आकृति बन रखी थी। दाहिनी ओर लगभग दो सौ गज की दूरी पर नीचे की ओर पयस्विनी नदी चट्टानों और पाषाण-शिलाओं से उलझती, घूमती-घामती बह रही थी, जैसे कोई दृढ़-प्रतिज्ञ मनुष्य बाधाओं का ध्यान न कर अपने-साधक के मार्ग पर बढ़ता चला जाता है। नदी के किनारे साधु प्रकृति बगुले चुपचाप मौन-व्रत धारण किए हुए बैठे थे। संतोषी जल-पक्षी पानी में तैर रहे थे। लोभी टिटहरियां नदी पर मंडराती थी और रह-रहकर मछलियों की खोज में टूटती थीं। खिलाड़ी मैंने निःशंक अपने पैरों को खुजला-खुजला कर स्नान कर रहे थे। और चतुर कौवे झुंड-के-झुंड भोजन संबंधी प्रश्न को हल कर रहे थे। एक वृक्ष के नीचे मोरों की सभा सुसज्जित थी और वृक्षों की शाखाओं पर कबूतर आनन्द कर रहे थे। एक दूसरे वृक्ष पर महाशय काग एवं श्रीमान् पं. नीलकंठ जी घोर शास्त्रार्थ में प्रवृत्त थे। महाशय काग ने छेड़ने के लिए पंडितजी के निवास स्थान की ओर दृष्टि डाली थी। इस पर पंडितजी इतने क्रोधित हुए कि महाशय काग के पीछे पड़ गए। महाशय काग अपनी स्वाभाविक बुद्धिमत्ता को काम में लाकर सहज ही में भाग खड़े हुए । श्रीमान- पंडितजी बुरा-भला कहते हुए काग के पीछे पड़े। किसी भांति महाशय जी की सर्वज्ञता ने उनकी जान बचाई।
थोड़ी देर में जंगली नील गायों का एक झुंड आया। किसी न पानी पीया, किसी ने सूंघकर छोड़ दिया। दो-चार युवावस्था के मतवाले हिरण आपस में सींग मिलाने लगे। फिर एक काला हिरण अभिमान-भरे नेत्रों से देखता ऐंठ-ऐंठ कर पग उठाता कुछ मृगनयनियों को साथ लिए नदी के किनारे आया। बच्चे थोड़ी दूर पर खेलते हुए चले जाते थे। कुछ और हटकर एक वृक्ष के नीचे बंदरों ने अपने डेरे डाल रखे थे। बच्चे क्रीड़ा करते थे। पुरुषों में छेड़छाड़ हो रही थी। रमणियां सानंद बैठी हुई एक-दूसरी के बालों से जुए निकालती थी और उन्हें अपने मुंह में रखती जाती थी। दूजी एक चट्टान पर अर्द्धनिद्रा की दशा में बैठी हुई यह दृश्य देख रही थी। घाम के कारण निद्रा आ गयी। नेत्रपट बंद हो गए।
प्रकृति की इस रंगभूमि में दूजी ने अपने चौदह वर्ष व्यतीत किए। वह प्रतिदिन प्रातःकाल इसी नदी के किनारे शिलाओं पर बैठी यह दृश्य देखती और लहरों की कारुणिक ध्वनि सुनती। उसी नदी की भांति उसके मन में लहरें उठती, जो कभी धैर्य और साहस के किनारों पर चढ़कर नेत्रों द्वारा बह निकलती। उसे मालूम होता कि वन के वृक्ष तथा जीव-जन्तु सब मेरी ओर व्यंग्य पूर्ण नेत्रों से देख रहे हैं। नदी भी उसे देखकर क्रोध से मुंह में फेन भर लेती जब यहां बैठे-बैठे उसका जी ऊब जाता, तो वह पर्वत पर चढ़ जाती और दूर तक देखती। पर्वतों के बीच में कहीं-कहीं मिट्टी के घरौंदे की भांति छोटे-छोटे मकान दिखाई देते, कही लहलहाती हुई हरियाली। सारा दृश्य एक नवीन वाटिका की भांति मनोरम था। उसके दिल में एक तीव्र इच्छा होती कि उड़कर उन चोटियों पर जा पहुंचे। नदी के किनारे या पाकड़ की घनी छाया में बैठी हुई घंटों सोचा करती। बचपन के वे दिन याद आ जाते, जब वह सहेलियों के गले में बांहें डालकर महुवा चुनने जाया करती थी। फिर गुड़ियों के ब्याह का स्मरण हो आता। पुनः अपनी प्यारी मातृभूमि का पनघट आंखों में फिर जाता। आज भी वहां भीड़ होगी, वही हास्य, चहल-पहल। पुनः अपना घर ध्यान में आता और वह गाय स्मरण आती, जो कि उसको देखकर हुंकारती हुई अपने प्रेम का परिचय देती थी। मन्नू स्मरण हो आता, जो उसके पीछे-पीछे छलांग मारता हुआ खेतों में जाया करता, जो बर्तन धोते समय बार-बार बर्तनों में मुंह डालता। तब ललनसिंह नेत्रों के सामने आकर खड़े हो जाते थे। होठों पर वही मुस्कुराहट नेत्रों पर वहीं चंचलता। तब वह उठ खड़ी होती और अपना मन दूसरी ओर ले जाने की चेष्टा करती।
दिन गुजरते थे, किन्तु बहुत धीरे-धीरे। वसंत आया। सेमल की लालिमा एवं कचनार की ऊदी, पुष्प-माला अपनी यौवन छटा दिखलाने लगी। मकोय के फल महके। गरमी का आरम्भ हुआ, प्रातःकाल समीर के झोंके, दोपहर की लू, जलती हुई लपट। डालियां फूलों से लदी। फिर वह समय आया कि जब न दिन को सुख था और न रात को नींद। दिन तड़पता था, रात जलती थी, नदियां वाधिकों के हृदय की भांति सूख गई। वन के पशु मध्याह्न की धूप में प्यास के कारण जिह्वा निकाले पानी की खोज में इधर-उधर दौड़ते फिरते थे। जिस प्रकार द्वेष से भरे हुए दिल तनिक-तनिक-सी बातों पर जल उठते हैं, उसी प्रकार गर्मी से जलते हुए वन वृक्ष कभी-कभी वायु के झोंकों से परस्पर रगड़ खाकर जल उठते हैं। ज्वाला ऊंची उठी थी, मानो अग्निदेव ने तारागणों पर धावा मारा है। वन में भी भगदड़-सी पड़ जाती। फिर आंधी और तूफान के दिन आए। वायु की देवी गरजती हुई आती। पृथ्वी और आकाश थर्रा उठते, सूर्य छिप जाता, पर्वत भी कांप उठते। पुनः वर्षा ऋतु का जन्म हुआ। वर्षा की झड़ी लगी। वन लहराए, नदियों ने पुनः पुनः अपने सुरीले राग छेड़े। पर्वतों के कलेजे ठंडे हुए। सूखे मैदान में हरियाली छाई। सारस की ध्वनि पर्वतों में गूंजने लगी। आषाढ़ मास में बाल्यावस्था का अल्हड़पन था। श्रावण में युवावस्था के पग बड़े, फुहारें पड़ने लगी। भादों कमाई के दिन थे, जिसने झीलों के कोष भर दिए। पर्वतों को धनाढ्य कर दिया। अंत में बुढ़ापा आया। कास के उज्ज्वल बाल लहराने लगे। जाड़ा आ पहुंचा।
इस प्रकार ऋतु परिवर्तन हुआ। दिन और महीने गुजरे। वर्ष आए और गए, किंतु दूजी ने विंध्याचल के उस किनारे को न छेड़ा। गर्मियों के भयानक दिन और वर्षा की भयावनी रातें सब उसी स्थान पर काट दी। क्या भोजन करती थी, क्या पहनती थी इसकी चर्चा व्यर्थ है। मन पर चाहे जो बीते, किंतु भूख और मनु-सम्बन्धी कष्ट का निवारण करना ही पड़ता है। प्रकृति की थाल सजी हुई थी। कभी बनबेरी और शरीफें के पकवान थे, कभी तेंदू, कभी मकोय और कभी राम का नाम। वस्त्रों के लिए चित्रकूट के मेले में साल में केवल एक बार जाती, मोरों के पर, हिरणों के सींग, वन औषधियां महंगे दामों में बिकती। कपड़ा भी आया, बर्तन भी आए। यहां तक कि दीपक जैसी विलास-वस्तु भी एकत्र हो गई। एक छोटी-सी गृहस्थी जम गई।
दूजी ने निराशा की दशा में संसार से विमुख होकर जीवन व्यतीत करना जितना सहज समझा था उससे कहीं कठिन मालूम हुआ। आत्मानुराग में निमग्न वैरागी तो वन में रह सकता है, परन्तु एक स्त्री जिसकी अवस्था हंसने-खेलने में ही व्यतीत हुई हो, बिना किसी नौका के सहारे विराट-सागर को किस प्रकार पार करने में समर्थ हो सकती? दो वर्ष के पश्चात् दूजी को एक-एक दिन वहां वर्ष-सा प्रतीत होने लगा। कालक्षेप करना दुष्कर हो गया। घर की सुधि एक क्षण भी विस्मृत न होती। कभी-कभी वह इतनी व्यग्र होती कि क्षणमात्र के लिए अपमान का भी भय न रहता। वह दृढ़-विचार करके उन पहाड़ियों के बीच शीघ्रता से पग बढ़ाती, घर की ओर चलती, मानो कोई अपराधी कारागार से भागा जा रहा हो। किंतु पहाड़ियों की सीमा के बाहर आते ही उसके पग स्वयं रुक जाते। वह आगे न बढ़ सकती। तब वह ठंडी सांस भरकर एक शिला पर बैठ जाती और फूट-फूटकर रोती। फिर वह भयानक रात्रि और वहीं सघन कुंज, वही नदी की भयावनी गरज और श्रृंगालों की वही विकराल ध्वनि।
‘ज्यों-ज्यों भीजै कामरी, त्यों-त्यों भारी होय।’ भाग्य को धिक्कारते-धिक्कारते उसने ललनसिंह को धिक्कारना आरम्भ किया। एकांतवास ने उसमें आलोचना और विवेचना की शक्ति पैदा कर दी। मैं क्यों इस वन में मुंह छिपाए दुःख के दिन व्यतीत कर रही हूं? यह उसी निर्दयी ललनसिंह की लगाई आग है। कैसे सुख से रहती थी। इसी ने आकर मेरे झोंपड़े में आग लगा दी। मैं अबोध और अनजान थी। उसने जान-बूझकर मेरा जीवन भ्रष्ट कर डाला। मुझे अपने आमोद का केवल एक खिलौना बनाया था। यदि उसे मुझसे प्रेम होता तो क्या वह मुझसे विवाह न कर लेता? वह भी तो चंदेल ठाकुर था। हाय! मैं कैसी अज्ञान थी। अपने पैरों में आप कुल्हाड़ी मारी।
इस प्रकार मन से बातें करते-करते ललनसिंह की मूर्ति उसके नेत्रों के सम्मुख आ जाती तो वह घृणा से मुंह फेर लेती। वह मुस्कुराहट जो उसका मन हर लिया करती थी, वह प्रेममय मृदु भाषण जो उसकी नसों में सनसनाहट पैदा कर देता था, वह क्रीड़ामय हाव-भाव जिन पर मतवाली हो जाती थी, अब उसे एक दूसरे ही रूप में दृष्टिगोचर होते। उसमें अब प्रेम की झलक न थी। अब कपट प्रेम और काम-तृष्णा के गाढ़े रंग में रंगे हुए दिखाई देते थे। वह प्रेम का कच्चा घरौंदा, जिसमें वह गुड़िया बनी बैठी थी, वायु के झोंके में संभला, किन्तु जल के प्रबल प्रवाह में न संभल सका। अब वह अभागी गुड़िया निर्दयी चट्टान पर पटक दी गई है कि रो-रोकर जीवन के दिन काटे-उन गुड़ियों की भांति जो गोटे-पट्टे और आभूषणों से सजी हुई मखमली पिटारे में भोग-विलास के पश्चात् नदी और तालाब में बहा दी जाती है, डूबने के लिए, तरंगों में थपेड़े खाने के लिए।
ललनसिंह की तरफ से फिरते ही दूजी का मन एक अधीरता के साथ भाइयों की ओर जुड़ा। मैं अपने साथ उन बेचारों को व्यर्थ ले डूबी। मेरे सिर पर उस घड़ी न जाने कौन-सा भूत सवार था। उन बेचारों ने जो कुछ किया, मेरी मर्यादा रखने के लिए किया। मैं तो उन्मत्त हो रही थी। समझाने-बुझाने से क्या काम चलता और समझाना-बुझाना तो स्त्रियों का काम है। मर्दों का समझाना तो उसी ढंग का होना चाहिए, और होता ही है। नहीं मालूम, उन बेचारों पर क्या बीती! क्या मैं उन्हें फिर कभी देखूंगी? यह विचारते-विचारते भाइयों की वह मूर्ति उसके नेत्रों में फिर जाती, जो उसने अन्तिम बार देखी थी, जब वह उस देश को जा रहे थे, जहां से लौटकर फिर आना मानो मृत्यु के मुंह से निकल आना है – वह रक्त वर्ण नेत्र, वह अभिमान से भरी हुई चाल, वह फिरे हुए नेत्र जो एक बार उसकी ओर उठ गए थे। आह! उनमें क्रोध का द्वेष न था, केवल क्षमा थी। वह मुझ पर क्रोध क्या करते। फिर अदालत के इजलास का चित्र नेत्रों के सामने खिंच जाता। भाइयों के वह तेवर, उनकी वह आंखों जो क्षणमात्र के लिए क्रोधाग्नि से फैल गई थी, फिर उनकी प्यार की बातें, उनका प्रेम स्मरण आता। पुनः वे दिन याद आते जब वह उनकी गोद में खेलती थी, जब वह उनकी उंगली पकड़कर खेतों को जाया करती थी। हाय! क्या वह दिन भी आएंगे कि मैं उनको पुनः देखूंगी।
