vismrti by munshi premchand
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शानसिंह ने बहिन की तरफ ताने-भरे नेत्रों से देखकर कहा – अब वह घर में न आएंगे। गुमानसिंह बोले – हम इसी समय जाकर समझा देंगे।

भाइयों ने भोजन कर लिया। दूजी को पुनः कुछ कहने का साहस न हुआ। उसे उनके तेवर कुछ बदले हुए मालूम होते थे। भोजनोपरांत दोनों भाई दीपक लेकर भंडारे की कोठरी में गए। अनावश्यक बर्तन, पुराने सामान, पुरखों के समय के अस्त्र-शस्त्र आदि इसी कोठरी में रखे थे। गांव में जब कोई बकरा देवीजी को भेंट दिया जाता तो वह कोठरी खुलती थी। आज तो कोई ऐसी बात नहीं है। इतनी रात गये यह कोठरी क्यों खोली जाती है? दूजी को किसी भावी दुर्घटना का संदेह हुआ। दबे पांव दरवाजे पर गई तो देखती क्या है कि गुमानसिंह एक भुजाली लिए पत्थर पर रगड़ रहा है। उसका कलेजा धक-धक करने लगा और पांव थर्राने लगे। वह उल्टे पांव लौटना चाहती थी कि शानसिंह की आवाज सुनाई दी – ‘इसी समय एक घड़ी में चलना ठीक है। पहली नींद बड़ी गहरी होती है। बेधड़क सोता होगा।’ गुमानसिंह बोले – ‘अच्छी बात है, देखो, भुजाली की धार? एक हाथ में काम तमाम हो जायेगा।’

दूजी को ऐसा ज्ञात हुआ, मानो किसी ने पहाड़ पर से धकेल दिया। सारी बातें उसकी समझ में आ गई। वह भय की दशा में घर से निकली और ललनसिंह की चौपाल की ओर चली। किन्तु वह अंधेरी रात प्रेम की घाटी थी और वह रास्ता प्रेम का कठिन मार्ग। वह इस सुनसान अंधेरी रात में चौकन्ने नेत्रों से इधर-उधर देखती, विह्वलता की दशा में शीघ्रतापूर्वक चली जाती थी। किन्तु हाय निराशा! एक-एक पल उसे प्रेम-भवन से दूर लिए जाता था। उस अंधेरी भयानक रात्रि में भटकती, न जाने वह कहां चली जाती थी, किससे पूछे। लज्जावश, वह किसी से कुछ न पूछ सकती। कहीं चूड़ियों की झनझनाहट भेद न खोल दे! क्या इन अभागे आभूषणों को आज ही झनझनाना है? अन्त में एक वृक्ष के तले वह बैठ गई। सब चूड़ियां चूर-चूर कर दी। आभूषण उतारकर आंचल में बांध लिए। किन्तु हाय! यह चूड़ियां सुहाग की चूड़ियां थी और यह गहने सुहाग के गहने थे, जो एक बार उतारकर फिर न पहने गए।

उसी वृक्ष के नीचे पयस्विनी नदी पत्थर के टुकड़ों से टकराती हुई बहती थी। यहां नौकाओं का बहना दुश्कर था। दूजी बैठी हुई सोचती थी, क्या मेरे जीवन की नदी में प्रेम की नौका दुःख की शिलाओं से टक्कर खाकर डूब जायेगी।

प्रातःकाल ग्रामवासियों ने आश्चर्यपूर्वक सुना कि ठाकुर ललनसिंह की किसी ने हत्या कर डाली। सारे गांव के स्त्री-पुरुष, वृद्ध-युवा सहस्रों की संख्या में चौपाल के सामने जमा हो गए। स्त्रियां पनघट को जाती हुई रुक गई। किसान हल-बैल लिए ज्यों-त्यों खड़े रह गए। किसी की समझ में न आया था कि यह हत्या किसने की। कैसा मिलनसार, हंसमुख सज्जन मनुष्य था! उसका कौन ऐसा शत्रु था। बेचारे ने किसी पर इजाफा लगान या बेदखली की नालिश तक नहीं की। किसी को दो बात तक नहीं कहीं। दोनों भाइयों के नेत्रों से आंसू की धारा बहती थी। उनका घर उजड़ गया। सारी आशाओं पर तुषारपात हो गया। गुमानसिंह ने रोकर कहा – हम तीन भाई थे, अब दो ही रह गए! हमसे तो दांत-काटी रोटी थी। साथ उठना, हंसी-दिल्लगी, भोजन-छाजन एक हो गया था। हत्यारे से इतना भी नहीं देखा गया। हाय! अब हमको कौन सहारा देता?

शानसिंह ने आंसू पोंछते हुए कहा – हम दोनों भाई कपास निराने जा रहे थे। ललनसिंह से कई दिन से भेंट नहीं हुई थी। सोचे कि इधर से होते चलें, किन्तु पिछवाड़े आते ही सेंध दिखायी पड़ी। हाथों के तोते उड़ गये। दरवाजों पर जाकर देखा तो चौकीदार-सिपाही सब सो रहे है। उन्हें जगाकर ललनसिंह के किवाड़ खटखटाने लगे। परंतु बहुत बल करने पर भी किवाड़ अंदर से न खुले तो सेंध के रास्ते से झांका। आह कलेजे में तीर लग गया। संसार अंधेरा दिखाई दिया। प्यारे ललनसिंह का सिर धड़ से अलग था। रक्त की नदी बह रही थी। शोक! भैया सदा के लिए बिछुड़ गए।

मध्याह्न काल तक इसी प्रकार विलाप होता रहा। दरवाजे पर मेला लगा हुआ था। दूर-दूर से लोग इस दुर्घटना का समाचार पाकर इकट्ठे होते जाते थे। संध्या होते-होते हलके के दरोगा साहब भी चौकीदार और सिपाहियों का एक झुंड लिए आ पहुंचे। कड़ाही चढ़ गई। पूरियां छलने लगी। दारोगाजी ने जांच करनी शुरू की। घटनास्थल देखा। चौकीदारों का बयान हुआ। दोनों भाइयों के बयान लिखे। आस-पास से पासी और चमार पकड़े गये और उन पर मार पड़ने लगी। ललनसिंह की लाश लेकर थाने पर गये। हत्यारे का पता न चला। दूसरे दिन इंस्पेक्टर-पुलिस का आगमन हुआ। उन्होंने भी गांव का चक्कर लगाया, चमारों और पासियों की फिर मरम्मत हुई, हलुआ-मोहन, गोश्त, पूड़ी के स्वाद लेकर सायंकाल को उन्होंने भी अपनी राह ली। कुछ पासियों पर, जो कि कई बार डाके-चोरी में पकड़े जा चुके थे, संदेह हुआ। उनका चालान किया। मजिस्ट्रेट ने गवाही पुष्ट पाकर अपराधियों को सेशन सुपुर्द किया और मुकदमें की पेशी होने लगी।

मध्याह्न का समय था। आकाश पर मेघ छाए हुए थे। कुछ बूंदें भी पड़ रही थी। सेशन जज कुंवर विनयकृष्ण बघेल के इजलास में मुकदमा पेश था। कुंवर साहब बड़े सोच-विचार में थे कि क्या करूं। अभियुक्तों के विरुद्ध साक्षी निर्बल थी। किंतु सरकारी वकील, जो एक प्रसिद्ध नीतिज्ञ थे, नजीरों पर नजीर पेश करते जाते थे कि अचानक दूजी श्वेत साड़ी पहने, घूंघट निकाले हुए निर्भय न्यायालय में आ पहुंची और हाथ जोड़कर बोली – श्रीमान्! मैं शानसिंह और गुमानसिंह की बहिन हूं। इस मामले में जो कुछ जानती हूं वह मुझसे भी सुन लिया जाये, इसके बाद सरकार जो फैसला चाहें, करें ।

कुंवर साहब ने आश्चर्य से दूजी की तरफ दृष्टि फेरी। शानसिंह और गुमानसिंह के शरीर में काटो तो रक्त नहीं। वकीलों ने आश्चर्य की दृष्टि से उसकी ओर देखना शुरू किया। दूजी के चेहरे पर दृढ़ता झलक रही थी। भय लेश-मात्र का न था। नदी आंधी के पश्चात स्थिर दशा में थी। उसने उसी प्रवाह में बहना प्रारम्भ किया – ठाकुर ललनसिंह की हत्या करने वाले मेरे दोनों भाई हैं।

कुंवर साहब के नेत्रों के सामने से पर्दा हट गया। सारी कचहरी दंग हो गयी और सब टकटकी बांधे दूजी की तरफ देखने लगे।

दूजी बोली – यह वह भुजाली है, जो ललनसिंह की गर्दन पर फेरी गयी है। अभी इसका खून ताजा है। मैंने अपनी आंखों से भाइयों को इसे पत्थर पर रगड़ते देखा, उनकी बातें सुनी। मैं उसी समय घर से बाहर निकली कि ललनसिंह को सावधान कर दूं किंतु मेरा भाग्य खोट था। चौपाल का पता न लगा। मेरे दोनों भाई सामने खड़े है, वह मर्द हैं, मेरे सामने असत्य कदापि न कहेंगे। इनसे पूछ लिया जाये और सच पूछिये तो यह छुरी मैंने चलायी है। मेरे भाइयों का अपराध नहीं है। यह सब मेरे भाग्य का खेल है। यह सब मेरे कारण हुआ और न्याय की तलवार मेरी ही गर्दन पर पड़नी चाहिए। मैं ही अपराधिनी हूं और हाथ जोड़कर कहती हूं कि इस भुजाली से मेरी गर्दन काट ली जाये।

न्यायालय में एक स्त्री का आना बाजार में भानमती का आना है। अब तक अभियोग नीरस और अरुचिकर था। दूजी के आगमन ने उसमें प्राण डाल दिए। न्यायालय में एक भीड़ लग गई। मुवक्किल और वकील, अमले और दुकानदार असावधानी की दशा में इधर-उधर दौड़ते हुए चले आते थे। प्रत्येक पुरुष उसको देखने का इच्छुक था। सहस्रों नेत्र उसके मुखड़े की तरफ देखते थे और वह जनसमूह में शांति की मूर्ति बनी हुई निश्चल खड़ी थी।

इस घटना की प्रत्येक पुरुष अपनी-अपनी समझ के अनुसार आलोचना करता था। वृद्धजन कहते थे – बेहया है, ऐसी लड़की का सिर काट लेना चाहिए। भाइयों ने वहीं किया, जो मर्दों का काम था। इस निर्लज्ज का तो देखो कि अपना परदा ढांकने के बदले उसका डंका बजा रही है और भाइयों को भी डुबा देती है। आंखों का पानी गिर गया है। ऐसी न होती तो यह दिन ही क्यों आता?

मगर नवयुवकों, स्वतंत्रता पर जान न्यौछावर कर देने वाले वकीलों और अमलों में उसके साहस और निर्भयता की प्रशंसा हो रही थी। उनकी समझ में जब यहां तक नौबत आ गई थी, तो भाइयों का धर्म था कि दोनों का ब्याह कर देते।

कई वृद्ध वकीलों की अपने नवयुवक मित्रों से कुछ छेड़-छाड़ हो गयी। एक फैशनेबुल बैरिस्टर साहब ने हंसकर कहा – मित्र, और तो जो कुछ है सो है, यह स्त्री सहस्रों में एक है, रानी मालूम होती है। सर्वसाधारण ने इनका समर्थन किया। कुंवर विनय कृष्ण इस समय कचहरी से उठे थे। बैरिस्टर साहब की बात सुनी और घृणा से मुंह फेर लिया। वह सोच रहे थे कि जिस स्त्री के क्रोध में इतनी ज्वाला है, क्या उसका प्रेम भी इसी प्रकार ज्वाला पूर्ण होगा?

दूसरे दिन फिर दस बजे मुकदमा पेश हुआ। कमरे में तिल रखने की भी जगह न थी। दूजी कटघरे के पास सिर झुकाए खड़ी थी। दोनों भाई कई कांस्टेबलों के बीच में चुपचाप खड़े थे। कुंवर विनय कृष्ण ने उन्हें सम्बोधित करके उच्च-स्वर से कहा – ठाकुर शानसिंह, गुमानसिंह तुम्हारी बहिन ने तुम्हारे संबंध में अदालत में जो कुछ बयान किया है, उसका तुम्हारे पास क्या उत्तर है?

शानसिंह ने गर्वपूर्ण भाव से उत्तर दिया – बहिन ने जो कुछ बयान किया है, वह सत्य है। हमने अपना अपराध इसलिए छिपाया था कि हम बदनामी, बेइज्जती से डरते थे। किन्तु अब, जब हमारी बदनामी जो कुछ होनी थी हो चुकी तो हमको अपनी सफाई देने की कोई आवश्यकता नहीं। ऐसे जीवन से अब मृत्यु ही उत्तम है। ललनसिंह से हमारी हार्दिक मित्रता थी। आपस में कोई विभेद न था। हम उसे अपना भाई समझते थे, किन्तु उसने हमको धोखा दिया। उसने हमारे कुल में कलंक लगा दिया और हमने उसका बदला लिया। उसने चिकनी- चुपड़ी बातों द्वारा हमारी इज्जत लेनी चाही। किंतु हम अपने कुल की मर्यादा इतनी सस्ती नहीं बेच सकते थे। स्त्रियां ही कुल-मर्यादा की सम्पत्ति होती हैं। मर्द उसके रक्षक होते हैं। जब इस सम्पत्ति पर कपट का हाथ उठे तो मर्दों का धर्म है कि रक्षा करें। इस पूंजी को अदालत का कानून, परमात्मा का भय या सद्विचार नहीं बचा सकता। हमको इसके लिए न्यायालय में जो दंड प्राप्त हो वह शिरोधार्य है।

जज ने शानसिंह की बात सुनी। कचहरी में सन्नाटा छा गया और सन्नाटे की दशा में उन्होंने अपना फैसला सुनाया। दोनों भाइयों को हत्या के अपराध में 15 वर्ष काले पानी का दंड मिला।

सायंकाल हो गया था। दोनों भाई कांस्टेबलों के बीच में कचहरी से बाहर निकले। हाथों में हथकड़ियां थी, पांवों में बेड़ियां। हृदय अपमान से संकुचित और सिर लज्जा के बोझ से झुके हुए थे। मालूम होता था, मानो सारी पृथ्वी हम पर हंस रही है।

दूजी पृथ्वी पर बैठी हुई थी कि उसने कैदियों के आने की आहट सुनी और उठ खड़ी हुई। भाइयों ने उसकी ओर देखा। परन्तु हाय! उन्हें ऐसा ज्ञात हुआ कि यह भी हमारे ऊपर हंस रही है। घृणा से नेत्र फेर लिया। दूजी ने भी उन्हें देखा, किंतु क्रोध और घृणा से नहीं, केवल एक उदासीन भाव से। जिन भाइयों की गोद में खेली और जिनके कंधों पर चढ़कर बाल्यावस्था व्यतीत की, जिन भाइयों पर प्राण न्यौछावर करती थी, आज वहीं दोनों भाई कालापानी को जा रहे है, जहां से कोई लौटकर नहीं आता और उसके रक्त में तनिक भी गति नहीं होती। रुधिर भी द्वेष से जल की भांति जम जाता है! सूर्य की किरणें वृक्षों की डालियों से मिली, फिर जड़ों को चूमती हुई चल दी। उनके लिए अंधकार गोद फैलाए हुए था। क्या इस अभागिनी स्त्री के लिए भी संसार में कोई ऐसा आश्रय नहीं था।

आकाश की लालिमा नीलावरण हो गयी। तारों के कंवल खिले। वायु के लिए पुष्प-शय्या बिछ गयी। ओस के लिए हरी मखमल का फर्श बिछ गया, किन्तु अभागिनी दूजी उसी वृक्ष के नीचे शिथिल बैठी थी। उसके लिए संसार में कोई स्थान न था। अब तक जिसे वह अपना घर समझती थी, उसके दरवाजे उसके लिए बंद थे। वहां क्या मुंह लेकर जाती? नदी को अपने उद्गम से चलकर अथाह समुद्र के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं ठिकाना नहीं है।

दूजी उसी तरह निराशा के समुद्र में निमग्न हो रही थी, कि एक वृद्ध स्त्री उसके सामने आकर खड़ी हो गयी। दूजी चौंक कर उठ बैठी। वृद्धा स्त्री ने उसकी ओर आश्चर्यचकित होकर कहा – इतनी रात बीत गयी, अभी तक तुम यही बैठी हो।

दूजी ने चमकते हुए तारों को देखकर कहा – कहां जाऊं?