vismrti by munshi premchand
vismrti by munshi premchand

चित्रकूट के सन्निकट धनगढ़ नामक एक गांव है। कुछ दिन हुए, वहां शानसिंह और गुमानसिंह दो भाई रहते थे। ये जाति के ठाकुर (क्षत्रिय) थे। युद्ध-स्थल में वीरता के कारण उनके पूर्वजों को भूमि का एक भाग माफी प्राप्त हुआ था। खेती करते थे, भैंसें पाल रखी थी, घी बेचते थे, मट्ठा खाते थे और प्रसन्नतापूर्वक समय व्यतीत करते थे। उनकी एक बहन थी, जिसका नाम दूजी था। यथा नाम तथा गुण। दोनों भाई परिश्रमी और अत्यन्त साहसी थे। बहिन अत्यन्त कोमल, सुकुमारी, सिर पर घड़ा रखकर चलती तो उसकी कमर बल खाती थी, किन्तु तीनों अभी तक कुंवारे थे। प्रकटत: उन्हें विवाह की चिन्ता न थी। बड़े भाई शानसिंह सोचते, छोटे भाई के रहते हुए मैं अपना विवाह कैसे करूं। छोटे भाई गुमानसिंह लज्जावश अपनी अभिलाषा प्रकट न करते थे कि बड़े भाई से पहले मैं अपना ब्याह कर लूं? वे लोगों से कहा करते थे कि – ‘भाई, हम बड़े आनन्द में है, आनन्दपूर्वक भोजन कर मीठी नींद सोते हैं। कौन झंझट सिर पर ले?’

किन्तु लग्न के दिनों में कोई नाई या ब्राह्मण गांव में वर ढूंढ़ने आ जाता तो उसकी सेवा-सत्कार में यह कोई कसर न छोड़ते थे। पुराने चावल निकाले जाते, पालतू बकरे देवी को भेंट होते, और दूध की नदियां बहने लगती थी। यहां तक कि कभी-कभी उनका भ्रातृ स्नेह प्रतिद्वंद्विता एवं द्वेष के भाव के रूप में परिणत हो जाता था। इन दिनों में इनकी उदारता उमंग पर आ जाती थी, और इससे लाभ उठाने वालों की भी कमी न थी। कितने ही नाई और ब्राह्मण ब्याह के असत्य समाचार लेकर उनके यहां आते, और दो-चार दिन पूड़ी और कचौड़ी खा, कुछ विदाई लेकर वर-रक्षा (फलदान) भेजने का वादा करके अपने घर की राह लेते। किन्तु दूसरे लग्न तक वह अपना दर्शन तक न देते थे। किसी-न-किसी कारण भाइयों का यह परिश्रम निष्फल हो जाता था। अब कुछ आशा थी, तो दूजी से। भाइयों ने यह निश्चय कर लिया था कि इसका विवाह वहीं पर किया जाये, जहां से एक बहू प्राप्त हो सके।

इस बीच में गांव का बूढ़ा कारिंदा परलोक सिधारा। उसकी जगह पर एक नवयुवक ललनसिंह नियुक्त हुआ, जो अंग्रेजी की शिक्षा पाया हुआ, शौकीन, रंगीन और रसीला आदमी था। दो-चार ही दिनों में उसने पनघट, तालाबों और झरोखों की देख-भाल भली-भांति कर ली। अन्त में उसकी रसभरी दृष्टि दूजी पर पड़ी। उसकी सुकुमारता और रूप-लावण्य पर मुग्ध हो गया। भाइयों से प्रेम और परस्पर मेल-जोल पैदा किया। कुछ विवाह संबंधी बातचीत छेड़ दी। यहां तक कि हुक्का-पानी भी साथ-साथ होने लगा। सायं-प्रात: इनके घर पर आया करता। भाइयों ने भी उसके आदर-सम्मान की सामग्रियां जमा कीं। पानदान मोल लाए, कालीन खरीदी। वह दरवाजे पर आता तो दूजी तुरन्त पान के बीड़ा बनाकर भेजती। बड़े भाई कालीन बिछा देते और छोटे भाई तश्तरी में मिठाइयां रख लाते। एक दिन श्रीमान् ने कहा – भैया शानसिंह, ईश्वर की कृपा हुई तो अब की लग्न में भाभी भी आ जायेंगी। मैंने सब बातें कर ली है।

शानसिंह की बांछें खिल गई। अनुग्रहपूर्ण दृष्टि से देखकर कहा – मैं अब इस अवस्था में क्या करूंगा। हां, गुमानसिंह की बातचीत कहीं ठीक हो जाती, तो पाप कट जाता।

गुमानसिंह ने ताड़ का पंखा उठा लिया और झलते हुए बोले – वाह भैया! कैसी बात कहते हो?

ललनसिंह ने अकड़कर शानसिंह की ओर देखते हुए कहा – भाई साहब, क्या कहते हो, अबकी लग्न में दोनों भाभियां छमाछम करती हुई घर में आवें तो बात! मैं ऐसा कच्चा मामला नहीं रखता। तुम तो अभी से बुड्ढों की भांति बातें करने लगे। तुम्हारी अवस्था यद्यपि पचास से भी अधिक हो गई, पर देखने में चालीस वर्ष से भी कम मालूम होती है। अब दोनों विवाह होंगे, बीच खेत होंगे। यह तो बताओ, वस्त्राभूषण का समुचित प्रबन्ध है न?

शानसिंह ने उनके जूतों को सीधा करते हुए कहा – भाई साहब! आप की यदि ऐसी कृपा-दृष्टि है तो सब कुछ हो जायेगा। आखिर इतने दिन कमा-कमाकर क्या किया है। गुमानसिंह घर में गए, हुक्का ताजा किया, तम्बाकू में दो-तीन बूंद इत्र के डाले, चिलम भरी, दूजी से कहा कि शरबत घोल दे और हुक्का लाकर ललनसिंह के सामने रख दिया।

ललनसिंह ने दो-चार कश लगाए और बोले – नाई दो-तीन दिन में आने वाला है। ऐसा घर चुना है कि चित्त प्रसन्न हो जाये। एक विधवा है। दो कन्याएं एक-से-एक सुन्दर। विधवा दो-एक वर्ष में संसार को त्याग देगी और तुम एक महत्त्वपूर्ण गांव में दो आने के हिस्सेदार बन जाओगे। गांव वाले जो अभी हंसी करते हैं, पीछे जल-जल मरेंगे। हां, भय इतना ही है कि कोई बुढ़िया के कान न भर दे कि सारा बना-बनाया खेल बिगड़ जाये।

शानसिंह के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी। गुमानसिंह की मुखकांति मलिन हो गई। कुछ देर बाद शानसिंह बोले – अब तो आपकी ही आशा है, आपकी जैसी राय हो, किया जाये। जब कोई पुरुष हमारे साथ अकारण मित्रता का व्यवहार करने लगे तो हमको सोचना चाहिए कि इसमें उसका कोई स्वार्थ तो नहीं छिपा है। यदि हम अपने सीधेपन से इस भ्रम में पड़ जायें कि कोई मनुष्य हमको केवल अनुगृहीत करने के लिए हमारी सहायता करने में तत्पर हैं, तो हमें धोखा खाना पड़ेगा। किन्तु अपने स्वार्थ की धुन में ये छोटी-मोटी बातें भी हमारी निगाहों से छिप जाती है और छल अपने रंगे हुए भेष में आकर हमको सर्वदा के लिए परस्पर व्यवहार का उपदेश देता है। शानसिंह और गुमानसिंह ने विचार से कुछ भी काम न लिया और ललनसिंह के फंदे में नित्यप्रति गाढ़े होते गए। मित्रता ने यहां तक पांव पसारे भाइयों की अनुपस्थिति में भी वह बेधड़क घर में घुस जाता और आंगन में खड़े होकर छोटी बहिन से पान-हुक्का मांगता। दूजी उसे देखते ही अति प्रसन्नता से पान बनाती। फिर आंखें मिलती, एक प्रेमाकांक्षा से बेचैन, दूसरी लज्जावश सकुची हुई। फिर मुस्कुराहट की झलक होठों पर आती। चितवनों की शीतलता कलियों को खिला देती। हृदय नेत्रों द्वारा बातें कर लेते।

इस प्रकार प्रेमलिप्सा बढ़ती गई। उस नेत्रालिंगन में, तो मनोभावों का बाह्यरूप था, उद्विग्नता और विकलता की दशा उत्पन्न हुई। वह दूजी, जिसे कभी मनिहार और बिसाती की रुचिकर ध्वनि भी चौखट से बाहर न निकाल सकती थी अब एक प्रेम विह्वलता की दशा में प्रतीक्षा की मूर्ति बनी हुई घंटों दरवाजे पर खड़ी रहती। उन दोहे और गीतों में, जिन्हें यह कभी विनोदार्थ गाया करती थी अब उसे विशेष अनुराग और विरह-वेदना का अनुभव होता। तात्पर्य यह है कि प्रेम का रंग गाढ़ा हो गया।

शनैः शनैः गांव में चर्चा होने लगी। घास और कास स्वयं उगते हैं। उखाड़ने से भी नहीं जाते। अच्छे पौधे बड़ी देख-रेख से उगते हैं। इसी प्रकार बुरे समाचार स्वयं फैलते हैं, छिपाने से नहीं छिपते। पनघट और तालाबों के किनारे इस विषय पर काना-फूसी होने लगी। गांव की बनियाइन, जो अपनी तराजू पर हृदयों, को तोलती थी और ग्वालिन जो जल में प्रेम का रंग जमाती थी, बैठकर दूजी की लोलुपता और निर्लज्जता का राग अलापने लगी। बेचारी दूजी को घर से निकलना दुर्लभ हो गया, सखी-सहेलियां एवं बड़ी-बुढ़िया सभी उसको ताने मारती। सखी सहेलियां हंसी से छेड़ती और वृद्धा स्त्रियां हृदय-विदारक व्यंग्य से।

मर्दों तक बातें फैली। ठाकुरों का गांव था। उनकी क्रोधाग्नि भड़की। आपस में सम्मति हुई कि ललनसिंह को इस दुष्टता का दण्ड देना उचित है। दोनों भाइयों को बुलाया और बोले – भैया, क्या अपनी मर्यादा नाश करके विवाह करोगे?

दोनों भाई चौंक पड़े। उन्हें विवाह की उमंग में यह सुधि ही नहीं थी कि घर में क्या हो रहा है। शानसिंह ने कहा – तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आई। साफ-साफ क्यों नहीं कहते?

एक ठाकुर ने जवाब दिया – साफ-साफ क्या कहलाते हो! इस शोहदे ललनसिंह का अपने यहां आना-जाना बन्द कर दो। तुम तो अपनी आंखों पर पट्टी बांधे ही हो, पर उसकी जान की कुशल नहीं। हमने अभी तक इसीलिए तह दिया है कि कदाचित् तुम्हारी आंखें खुले, किन्तु ज्ञात होता है कि तुम्हारे ऊपर उसने मुर्दे का भस्म डाल दिया है। ब्याह क्या अपनी आबरू बेचकर करोगे? तुम लोग खेत में रहते हो और हम लोग अपनी आंखों से देखते है कि वह शोहदा अपना बनाव-संवार किए आता है और तुम्हारे घर में घंटों घुसा रहता है। तुम उसे अपना भाई समझते हो तो समझा करो, हम तो ऐसे भाई का गला काट ले, जो विश्वासघात करे। भाइयों के नेत्रपट खुले। दूजी के ज्वर के संबंध में जिस ज्वर का सन्देह था, वह प्रेम ज्वर निकला। रुधिर में उबाल आया। नेत्रों से चिनगारियां उड़ी। तेवर बदले। दोनों भाइयों एक-दूसरे की ओर क्रोधमय दृष्टि से देखा। मनोगत भाव जिह्वा तक न आ सके। अपने घर आये, किन्तु दर पर पांव रखा ही था कि ललनसिंह से मुठभेड़ हो गई।

ललनसिंह ने हंसकर कहा – वाह भैया! हम तुम्हारी खोज में बार-बार आते हैं, किन्तु तुम्हारे दर्शन तक नहीं मिलते। मैंने समझा, आखिर रात्रि में तो कुछ काम न होगा। किन्तु देखता हूं आपको इस समय भी छुट्टी नहीं है।

शानसिंह ने हृदय के भीतर क्रोधाग्नि को दबाकर कहा – हां, इस समय वास्तव में छुट्टी नहीं है।

ललनसिंह – आखिर काम क्या है? मैं भी सुनू।

शानसिंह – बहुत बड़ा काम है, आपसे छिपा न रहेगा ।

ललनसिंह – कुछ वस्त्राभूषण का भी प्रबंध कर रहे हो? अब लग्न सिर पर आ गया

शानसिंह – अब बड़ा लग्न सिर पर आ पहुंचा है, पहले इसका प्रबन्ध करना है।

ललनसिंह – क्या किसी से ठन गई?

शाजसिंह – भली भांति।

ललनसिंह – किससे?

शानसिंह – इस समय जाइए, प्रातःकाल बताऊंगा।

दूजी भी ललनसिंह के साथ दरवाजे की चौखट तक आई थी। भाइयों की आहट पाते ही ठिनक गई और यह बातें सुनी। उसका माथा ठनका कि आज यह क्या मामला है? ललनसिंह का कुछ आदर-सत्कार नहीं हुआ। न हुक्का, न पान। क्या भाइयों के कानों में कुछ भनक तो नहीं पड़ी। किसी ने कुछ लगा तो नहीं दिया। यदि ऐसा हुआ तो कुशल नहीं।

इस उधेड़बुन में पड़ी थी कि भाइयों ने भोजन परोसने की आज्ञा दी। जब वह भोजन करने बैठे तो दूजी ने अपनी निर्दोषिता और पवित्रता प्रकट करने के लिए एवं अपने भाइयों के दिल का भेद जानने के लिए कुछ कहना चाहा। पर त्रिया-चरित्र में अभी निपुण न थी। बोली – भैया, ललनसिंह से कह दो, घर में न आया करें। आप घर में रहिए तो कोई बात नहीं, किन्तु कभी-कभी आप नहीं रहते तो मुझे अत्यन्त लज्जा आती है। आज ही आपको वह पूछते हुए चले आए, अब मैं उनसे क्या कहूं। आपको नहीं देखा तो लौट गए।