vismrti by munshi premchand
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एक दिन वह था कि दूजी अपने भाइयों के रक्त की प्यासी थी, निदान एक दिन आया कि वह पयस्विनी नदी के तट पर कंकड़ियों द्वारा दिनों की गणना करती थी। एक कृपण जिस सावधानी से रुपयों को गिन-गिनकर इकट्ठा करता है, उसी सावधानी से दूजी इन कंकड़ियों को गिन-गिनकर इकट्ठा करती थी। नित्य संध्या वह इस ढेर में पत्थर का एक टुकड़ा और रख देती तो उसे क्षणमात्र के लिए मानसिक सुख प्राप्त होता। इन कड़ियों का ढेर अब उसका जीवन-धन था। दिन में अनेक बार इन टुकड़ों को देखती और गिनती। असहाय पक्षी पत्थर के ढेर से आशा के घोंसले बनाता था।

यदि किसी को चिंता और शोक की मूर्ति देखनी हो, तो वह पयस्विनी नदी के तट पर प्रतिदिन सांयकाल दिख पड़ती है। डूबे हुए सूर्य की किरणों की भांति उसका मुख-मंडल पीला है। वह अपने दुखमय विचारों में डूबी हुई, तरंगों की ओर दृष्टि लगाए बैठी रहती है। यह तरंगे इतनी शीघ्रता से कहां जा रही है? मुझे भी अपने साथ क्यों नहीं ले जाती? क्या मेरे लिए वहां भी स्थान नहीं है? कदाचित् शोक-क्रंदन में यह भी मेरी संगिनी है। तरंगों की ओर देखते-देखते उसे ऐसा ज्ञात होता है कि मानों वह स्थिर हो गई और मैं शीघ्रता से बही जा रही हूं। तब वह चौंक पड़ती है और अंधेरी शिलाओं के बीच मार्ग खोजती हुई फिर अपने शोक-स्थल पर आ जाती है।

इसी प्रकार दूजी वे अपने दुःख के दिन व्यतीत किए। तीस-तीस के ढेलों के बारह ढेर बन गए, तब उसने उन्हें एक स्थान पर इकट्ठा कर दिया। वह आशा का मन्दिर उसी हार्दिक अनुशय से बनता रहा, जो किसी भक्त को अपने इष्टदेव के साथ होता है। रात्रि के बारह घंटे बीत गए। पूर्व की ओर प्रातःकाल का प्रकाश दिखाई देने लगा। मिलाप का समय निकट आया। इच्छा रूपी अग्नि की लपट बढ़ी दूजी उन ढेरों को बार-बार गिनती, महीनों के दिनों की गणना करती कदाचित एक दिन कम हो जाये। हाय! आजकल उसके मन की वह दशा थी जो प्रातःकाल सूर्य में सुनहले प्रकाश में हलकोरे लेने वाले सागर की होती है, जिसमें वायु की तरंगों से मुस्कुराता हुआ कमल झूलता है।

आज दूजी, इन पर्वतों और वनों से विदा होती है। वह दिन आ पहुंचा जिसकी राह देखते-देखते एक पूरा युग बीत गया। आज चौदह वर्ष पश्चात उसकी पलकें नदी में लहरा रही हैं। बरगद की जटाएं नागिन बन गई है।

उस सुनसान वन से उसका चित्त कितना दुःखित था। किन्तु आज उससे पृथक होते हुए दूजी के नेत्र-भर आते है। जिस पाकड़ की छाया में उसने दुःख के दिन बिताए, जिस गुफा में उसने रो-रोकर रातें काटी, उसे छोड़ते आज शोक हो रहा है। यह दुःख के साथी हैं। सूर्य की किरणें दूजी की आशाओं की भांति कुहरा की घटाओं को हटाती चली जाती थी। उसने अपने दुःख के मित्रों को अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखा। पुनः ढेरों के पास गयी, जो उसके चौदह वर्ष की तपस्या के स्मारक चिह्न थे। उन्हें एक-एक कर चूमा, मानो वह देवी जी के चेहरे हैं। तब वह रोती हुई चली, जैसे लड़कियां ससुराल को चलती हैं।

संध्या समय उसने शहर में प्रवेश किया और पता लगाते हुए कैलासी के घर आयी। घर सूना पड़ा था। तब वह विजयकृष्ण बघेल का घर पूछते-पूछते उनके बंगले पर आयी। कुंवर महाशय टहल कर आये ही थे कि उसे खड़ी देखा। पास आये। उसके मुख पर घूंघट था। दूजी ने कहा – महाराज, मैं एक अनाथ दुखिया हूं।

कुंवर साहब ने आश्चर्य से पूछा – तुम दूजी हो। तुम इतने दिनों तक कहां रही? कुंवर साहब के प्रेम-भाव ने घूंघट और बढ़ा दिया। इन्हें मेरा नाम स्मरण है, यह सोचकर दूजी का कलेजा धड़कने लगा। लज्जा से सर नीचे झुक गया था। लजाती हुई बोली – जिसका कोई हितू नहीं है, उसका वन के सिवा अन्यत्र कहीं ठिकाना है। मैं भी वनों में रही। पयस्विनी नदी के किनारे एक गुफा में पड़ी रहती थी।

कुंवर साहब विस्मित हो गए। चौदह वर्ष और नदी के किनारे गुफा में क्या कोई संन्यासी इससे अधिक त्याग कर सकता है? वह आश्चर्य से कुछ न बोल सके।

दूजी उन्हें चुपचाप देखकर बोली, मैं कैलासी के घर से सीधे पर्वत पर चली गई और वही इतने दिन व्यतीत किए। चौदह वर्ष पूरे हो गए। जिन भाइयों की गर्दन पर छुरी चलायी, उनके छूटने के दिन अब आये हैं। नारायण उन्हें अब कुशल पूर्वक लावे। मैं चाहती हूं कि उनके दर्शन करूं और उनकी ओर से मेरे दिल में जो इच्छाएं हैं, पूर्ण हो जाये।

कुंवर साहब बोले – तुम्हारा हिसाब बहुत ठीक है। मेरे पास आज कलकत्ते से सरकारी पत्र आया है कि दोनों भाई चौदह तारीख को कलकत्ता पहुंचेंगे, उनके संबंधियों को सूचना दी जाये। यहां कदाचित् दो-तीन दिन में आ जायेंगे। मैं सोच ही रहा था कि सूचना किसे दूं।दूजी ने विनयपूर्वक कहा – मेरा जी चाहता है कि वे जहाज पर से उतरें, तो मैं उनके पैरों पर माथा नवाऊं, उसके पश्चात् संसार में मुझे कोई अभिलाषा न रहेगी। इसी लालसा ने मुझे इतने दिनों तक जिलाया है, नहीं तो मैं आपके सम्मुख कदापि न खड़ी होती।

कुंवर विजयकृष्ण गम्भीर स्वभाव के मनुष्य थे। दूजी के आन्तरिक रहस्य उनके दिल पर गहरा प्रभाव डाल जाते थे। जब सारी अदालत दूजी पर हंसती थी, तब उन्हें उसके साथ सहानुभूति थी और आज इसके वृत्तांत सुनकर वे इस ग्रामीण स्त्री के भक्त हो गए। बोले – यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो मैं स्वयं तुम्हें कलकत्ता पहुंचा दूंगा। तुमने उनसे मिलने की जो रीति सोची है, उससे उत्तम ध्यान में नहीं आ सकती, परन्तु तुम खड़ी हो और मैं बैठा हूं यह अच्छा नहीं लगता दूजी मैं बनावट नहीं करता। जिसमें इतना त्याग और संकल्प हो, वह यदि पुरुष है तो देवता है, स्त्री है तो देवी है। जब मैंने तुम्हें पहले देखा, उसी समय मैंने समझ लिया कि तुम साधारण स्त्री नहीं हो। जब तुम कैलासी के घर से चली गई तो सब लोग कहते थे कि तुम जान पर खेल गई। परन्तु मेरा मन कहता था कि तुम जीवित हो। नेत्रों से पृथक होकर भी तुम मेरे ध्यान से बाहर न हो सकी। मैंने वर्षों तुम्हारी खोज की, अगर तुम ऐसी खोह में जा छिपी थी कि तुम्हारा कुछ पता न चला।

इन बातों में कितना अनुराग था! दूजी को रोमांच हो गया। हृदय बल्लियों उछलने लगा। उस समय उसका मन चाहता था कि इनके पैरों में सिर रख दूं। कैलासी ने एक बार जो बात उससे कही थी, वह बात उसे इस समय स्मरण आयी । उसने भोलेपन से पूछा – क्या आप ही के कहने से कैलासी ने मुझे अपने घर में रख लिया था?

कुंवर साहब लज्जित होकर बोले – मैं इसका उत्तर कुछ न दूंगा।

रात को जब दूजी एक ब्राह्मणी के घर में नर्म बिछावन पर लेटी हुई थी, तो उसके मन की वह दशा हो रही थी, जो अश्विन आस के आकाश की होती है, एक ओर चंद्र-प्रकाश, दूसरी ओर घनी घटा और तीसरी ओर झिलमिलाते हुए तारे।

प्रातःकाल का समय था। गंगा नामक स्टीमर बंगाल की खाड़ी में अभिमान से गर्दन उठाए, समुद्र की लहरों को पैरों से कुचलता हुगली के बंदरगाह की ओर चला आता था। डेढ़ सहस्र से अधिक आदमी उसकी गोद में थे। अधिकतर व्यापारी थे। कुछ वैज्ञानिक तत्त्वों के अनुरागी, कुछ भ्रमण करने वाले और कुछ ऐसे हिन्दुस्तानी मजदूर, जिनको अपनी मातृभूमि आकर्षित कर रही थी। उसी में दोनों भाई शानसिंह और गुमानसिंह एक कोने में बैठे निराशा की दृष्टि से किनारे की ओर देख रहे थे। दोनों हड्डियों के दो ढांचे थे, उन्हें पहचानना कठिन था। जहाज घाट पर पहुंचा। यात्रियों के मित्र और परिचित जन किनारे पर स्वागत करने के लिए अधीर हो रहे थे। जहाज पर से उतरते ही प्रेम की बाढ़ आ गयी। मित्रगण परस्पर हाथ मिलाते थे। उसके नेत्र प्रेमाश्रु से परिपूर्ण थे। यह दोनों भाई शनैः शनैः जहाज से उतरे, मानो किसी ने धकेलकर उतार दिया। उनके लिए जहाज के तख्ते और मातृ-भूमि में कुछ अन्तर न था। वे आये नहीं बल्कि लाए गए। चिरकाल के कष्ट और शोक ने जीवन का ज्ञान भी शेष न छोड़ा था। साहस लेश-मात्र भी न था। इच्छाओं का अन्त हो चुका था। वह तट पर खड़े विस्मित दृष्टि से सामने देखते थे। कहां जाएं? उनके लिए इस संसार-क्षेत्र में कोई स्थान दिखाई नहीं देता था।

तब दूजी उस भीड़ में से निकलकर आती दिखाई दी। उसने भाइयों को खड़े देखा। तब जिस भांति जल ढाल की ओर गिरता है, उसी प्रकार अधीरता की उमंग में वह रोती हुई उनके चरणों में चिपट गई। दाहिने हाथ में शानसिंह के चरण थे, बायें हाथ में गुमानसिंह के, और नेत्रों में अश्रु धाराएं प्रवाहित थी, मानों दो सूखे वृक्षों की जड़ों में एक मुरझायी बेल चिमटी हुई है या दो संन्यासी माया और मोह की बेड़ी में बंधे खड़े हैं। भाइयों के नेत्रों से भी आंसू बहने लगे। उनके मुख-मंडल बादलों में निकलने वाले तारों की भांति प्रकाशित हो गए। वह दोनों पृथ्वी पर बैठ गए और तीनों भाई-बहिन परस्पर गले मिलकर बिलख-बिलख रोए। वह गहरी खाड़ी जो भाइयों और बहिन के बीच में थी, अश्रुधारा से परिपूर्ण हो गई। आज चौदह वर्ष के पश्चात् भाई और बहिन में मिलाप हुआ और वह घाव जिसने मांस को मांस से रक्त को रक्त से विलग किया था, परिपूर्ण हो गया और वह उस मरहम का काम था, जिससे अधिक लाभकारी और कोई मरहम नहीं होता, जो मन के मैल को साफ करता है, जो दुःख को भुलाने वाला और हृदय की दाह को शांत करने वाला है, जो व्यंग्य विषैले घावों को भर देता है। यह काल का मरहम है।

दोनों भाई घर को लौटे। पट्टीदारों के स्वप्न भंग हो गए। हित-मित्र इकट्ठे हुए। ब्रह्मभोज का दिन निश्चित हुआ। पूड़ियां पकने लगी, घी की सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मणों के लिए, तेल की पासी-चमारों के लिए। काले पानी का पाप इसी घी के साथ भस्म हो गया।

दूजी भी कलकत्ते से भाइयों के साथ चली, प्रयाग तक आयी। कुंवर विजयकृष्ण भी उनके साथ थे। भाइयों से कुंवर साहब ने दूजी के संबंध में कुछ बातें की, उसकी भनक दूजी के कानों में पड़ी। प्रयाग में दोनों भाई-बहिन रुक गए कि त्रिवेणी में स्नान करने चले। कुंवर विजयकृष्ण अपने ध्यान में सब ठीक करके मन प्रसन्न करने वाली आशाओं का स्वप्न देखते हुए चले गए, किन्तु फिर वहां से दूजी का पता न चला। मालूम नहीं क्या हुई, कहां चली गई। कदाचित गंगाजी ने उसे अपनी गोद में लेकर सदा के दुःख से मुक्त कर दिया। भाई बहुत रोए-पीटे किन्तु क्या करते। जिस स्थान पर दूजी ने अपने वनवास के चौदह वर्ष व्यतीत किए थे, वहां दोनों भाई प्रतिवर्ष जाते हैं और उन पत्थरों के ढेरों से चिपट चिपटकर रोते हैं।

कुंवर साहब ने भी पेंशन ले ली। अब चित्रकूट में रहते हैं। दार्शनिक विचारों के पुरुष थे, जिस प्रेम की खोज थी, वह न मिला। एक बार कुछ आशा दिखाई दी थी, जो चौदह वर्ष एक विचार के रूप में स्थित रही। एकाएक आशा की वह धुंधली झलक भी एक बार झिलमिलाते हुए दीपक की भांति हंसकर सदा के लिए अदृश्य हो गई।