vajrapaat by munshi premchand
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दिल्ली की गलियाँ दिल्ली-निवासियों के रुधिर से प्लावित हो रही हैं। नादिरशाह की सेना ने सारे नगर में आतंक मचा रखा है। जो कोई सामने आ जाता है, उसे उनकी तलवार के घाट उतरना पड़ता है। नादिरशाह का प्रचंड क्रोध किसी भांति शान्त ही नहीं होता। रक्त की वर्षा भी उसके कोप की आवाज को नहीं बुझा सकती।

नादिरशाह दरबारे-आम में तख्त पर बैठा हुआ है। उसकी आंखों से जैसे ज्वालाएं निकल रही हैं। दिल्ली वालों की इतनी हिम्मत कि उसके सिपाहियों का अपमान करे। उन कापुरुषों की यह मजाल। यही काफिर तो उसकी सेना की एक ललकार पर रण-क्षेत्र से निकल भागे थे! नगर-निवासियों का आर्तनाद सुन-सुनकर स्वयं सेना के दिल काँप जाते हैं, मगर नादिरशाह की क्रोधाग्नि शांत नहीं होती। यहाँ तक कि उसका सेनापति उनके सम्मुख जाने का साहस नहीं कर सकता। वीर पुरुष दयालु होते हैं। असहायों पर, दुर्बलों पर, स्त्रियों, पर उन्हें क्रोध नहीं आता। इन पर क्रोध करना वे अपनी शान के खिलाफ समझते हैं, किन्तु निष्ठुर नादिरशाह की वीरता दया-शून्य थी।

दिल्ली का बादशाह सिर झुकाए नादिरशाह के पास बैठा हुआ था। हरमसरा में विलास करने वाला बादशाह नादिरशाह की अविनयपूर्ण बातें सुन रहा था, पर मजाल न थी कि जबान खोल सके। उसे अपनी ही जान के लाले पड़े हुए थे, पीड़ित प्रजा की रक्षा कौन करे? वह सोचता था, मेरे मुँह से कुछ निकले और यह मुझी को डाँट बैठे, तो।

अंत को जब सेना की पैशाचिक क्रूरता पराकाष्ठा को पहुँच गई, तो मुहम्मदशाह के वजीर से न रहा गया। वह कविता का मर्मज्ञ था, खुद भी कवि था। जान पर खेलकर नादिरशाह के सामने पहुँचा और यह शेर पढ़ा-

कसे न मांद कि दीगर व तेग़े बाज कुशी,

नजर कि जिन्दा कुनी ख़ल्करा व बाज कुशी।

अर्थात् मेरी निगाहों की तलवार से कोई नहीं बचा। अब यही उपाय है कि मुर्दों को कि फिर जिलाकर कत्ल कर।

शेर ने दिल पर चोट की। पत्थर में भी सुराख होते हैं, पहाड़ों में भी हरियाली होती है, पाषाण हृदयों में भी रस होता है। इस शेर ने पत्थर को पिघला दिया। नादिरशाह ने सेनापति को बुलाकर कत्लेआम बंद करने का हुक्म दिया। एकदम तलवारें म्यान में चली गई। कातिलों के उठे हुए हाथ उठे ही रह गए। जो सिपाही जहाँ था, वहीं बुत बन गया।

शाम हो गई थी। नादिरशाह शाही बाग में सैर कर रहा था। बार-बार वही शेर पढ़ता और झूमता-,

कसे न मांद कि दीगर व तेग़े नाज़ कुशी,

मगर कि जिन्दा कुनी खत्करा व बाज कुशी।

दिल्ली का खजाना लुट रहा है। शाही महल पर पहरा है। कोई अंदर से बाहर या बाहर से अंदर आ जा नहीं सकता। बेगमें भी अपने महलों से बाहर बाग में निकलने की हिम्मत नहीं कर सकतीं। महज खजाने पर ही आफत नहीं आयी हुई है, सोने-चाँदी के बरतनों, बेशकीमती तस्वीरों और आराइश की अन्य सामग्रियों पर भी हाथ साफ किया जा रहा है। नादिरशाह तख्त पर बैठा हुआ हीरे और जवाहरात के ढेरों को गौर से देख रहा है, पर वह चीज नजर नहीं आती, जिसके लिये मुद्दत से उसका चित्त लालायित हो रहा था। उसने मुगले-आजम नाम के हीरे की प्रशंसा, उसकी करामातों की चर्चा सुनी थी-उसको धारण करने वाला मनुष्य दीर्घजीवी होता है, कोई रोग उसके निकट नहीं आता, उस रत्न में पुत्रदायिनी शक्ति है, इत्यादि।

दिल्ली पर आक्रमण करने के जहाँ और अनेक कारण थे, वहाँ इस रत्न को प्राप्त करना भी एक कारण था। सोने-चाँदी के ढेरों और बहुमूल्य रत्नों की चमक-दमक से उसकी आँखें भले ही चौंधिया जाएँ पर हृदय उल्लसित न होता था। उसे तो मुगले-आजम की धुन थी और मुगले-आजम का वहां कहीं पता न था। वह क्रोध से उन्मत्त होकर शाही मन्त्रियों की ओर देखता और अपने अफसरों को झिड़कियाँ देता था, पर अपना अभिप्राय खोलकर न कह सकता था। किसी की समझ में न आता था कि यह इतना आतुर क्यों हो रहा है। यह तो खुशी से फूले न समाने का अवसर है। अतुल सम्पत्ति सामने पड़ी हुई है,. संख्या में इतनी सामर्थ्य नहीं कि उनकी गणना कर सके। संसार का कोई भी महीपति इस विपुल धन का एक अंश भी पाकर अपने को भाग्यशाली समझता, परन्तु यह पुरुष, जिसने इस धनराशि का शतांश भी पहले कभी आँखों से न देखा होगा, जिसकी उम्र भेड़ें चराने में ही गुजरी, क्यों इतना उदासीन है। आखिर जब रात हुई, बादशाह का खजाना खाली हो गया और उस रत्न के दर्शन न हुए, तो नादिरशाह की क्रोधाग्नि फिर भड़क उठी। उसने बादशाह के मंत्री को-उसी मन्त्री को, जिसकी काव्य-मर्मज्ञता ने प्रजा के प्राण बचाए थे-एकान्त में बुलाया और कहा-मेरा गुस्सा तुम देख चुके हो! अगर फिर उसे नहीं देखना चाहते, तो लाजिमी है कि मेरे साथ काबिल सफाई का बर्ताव करो, वरना दोबारा यह शोला भड़का, तो दिल्ली की खैरियत नहीं।

वजीर- जहाँपनाह, गुलामों से तो कोई ख़ता सरजद नहीं हुई। खजाने की सब कुंजियाँ जनाबे-आली सिपहसालार के हवाले कर दी हैं।

जाहिर- तुमने मेरे साथ दगा की है।

वजीर-(त्यौरी चढ़ाकर) आपके हाथ में तलवार है और हम कमजोर हैं, जो चाहे फरमाएं, पर इल्जाम के तसलीम करने में मुझे उज्र है।

नादिर- क्या उसके सबूत की जरूरत है?

वजीर- जी हां, क्योंकि दगा की सजा कत्ल है और कोई विला सबब अपने कत्ल पर रजामंद न होगा।

नादिर- इसका सबूत मेरे पास है, हालांकि नादिर ने कभी किसी को सबूत नहीं दिया। वह अपनी मरजी का बादशाह है और किसी को सबूत देना अपनी शान के खिलाफ समझता है। पर यहाँ जाती मुआमिला है। तुमने मुगले-आजम हीरा क्यों छिपा दिया?

वजीर के चेहरे का रंग उड़ गया। वह सोचने लगा। यह हीरा बादशाह को जान से भी ज्यादा अज़ीज़ है। वह इसे एक क्षण भी अपने पास से जुदा नहीं करते। उनसे क्यों कर कहूँ? उन्हें कितना सदमा होगा! मुल्क गया, खजाना गया, इज्जत गयी। बादशाही की एक निशानी उनके पास रह गई है। उनसे कैसे कहूं? मुमकिन है, वह गुस्से में आकर इसे कहीं फेंक न दें, या तुड़वा डालें। इंसान की आदत है कि वह अपनी चीज दुश्मन को देने की अपेक्षा उसे नष्ट कर देना अच्छा समझता है। बादशाह, बादशाह हैं। मुल्क न सही, अधिकार न सही, सेवा न सही, पर जिन्दगी भर की स्वेच्छाचारिता एक दिल में नहीं मिट सकती। यदि नादिर को हीरा न मिला, तो यह न जाने दिल्ली पर क्या सितम ढाए। आह। उसकी कल्पना ही से रोमांच हो जाता है। खुदा न करे, दिल्ली को फिर यह दिन देखना पड़े।

सहसा नादिर ने पूछा- तुम्हारे जवाब का मुन्तजिर हूँ? क्या यह तुम्हारी दशा का काफी सबूत नहीं है?

वजीर- जहाँपनाह, हीरा बादशाह सलामत को जान से ज्यादा अज़ीज़ है। वह उसे हमेशा अपने पास रखते हैं।

नादिर- झूठ मत बोलो, हीरा बादशाह के लिए है, बादशाह हीरा के लिए नहीं। बादशाह को हीरा जान से ज्यादा अज़ीज़ है-का मतलब सिर्फ इतना है कि यह बादशाह का बहुत अज़ीज़ है, और यह कोई वजह नहीं कि मैं उस हीरे को उनसे न लूँ। अगर बादशाह यों न देंगे, तो मैं जानता हूँ कि मुझे क्या करना होगा। तुम जाकर इस मुआमिले में नाजुकफहमी से काम लो, जो तुमने कल दिखाई थी। आह! कितना ला-जवाब शेर था-

कसे न मांद कि दीगर न तेगे नाज़ कुशी,

मगर कि जिंदा कुनी ख़लकर व बाज कुशी।