नादिरशाह पहाड़ों और नदियों को लाँघता हुआ ईरान को चला जा रहा था। 77 ऊंटों और इतनी ही बैलगाड़ियों की कतार देख-देखकर उसका हृदय बाँसों उछल रहा था। वह बार-बार खुदा को धन्यवाद देता था, जिसकी असीम कृपा से आज उसकी कीर्ति को उज्ज्वल बनाया था। अब वह केवल ईरान ही का बादशाह नहीं हिन्दुस्तान जैसे विस्तृत प्रदेश का भी स्वामी था। पर सबसे ज्यादा उसे खुशी उसे मुगले आजम हीरा पाने की थी, जिसे बार-बार देखकर भी उसकी आंखें तृप्त न होती थी। सोचता था, जिस समय में दरबार में यह रत्न धारण करके आऊंगा।, सबकी आंखें झपक जाएँगी, लोग आश्चर्य से चकित रह जाएँगे।
उसकी सेना अन्न-जल के कठिन कष्ट भोग रही थी। सरहदों की विद्रोही सेनाएँ पीछे से उसको दिक कर रही थीं। नित्य दस-बीस आदमी मर जाते या मारे जाते थे, पर नादिरशाह को ठहरने की फुरसत न थी। वह भागा-भागा चला जा रहा था।
ईरान की स्थिति बड़ी भयंकर थी। शाहजादा खुद विद्रोह शान्त करने के लिए गया हुआ था, पर विद्रोह दिन-दिन उग्र रूप धारण करता जाता था। शाही सेना कई युद्धों में परास्त हो चुकी थी। हर घड़ी यही भय होता था कि कहीं वह स्वयं शत्रुओं के बीच घिर न जाए।
पर वाह रे प्रताप! शत्रुओं ने ज्यों ही सुना कि नादिरशाह ईरान आ पहुँचा, त्यों ही उनके हौसले पस्त हो गए। उसका सिंहनाद सुनते ही उनके हाथ-पाँव फूल गए। इधर नादिरशाह ने तेहरान में प्रवेश किया, उधर विद्रोहियों ने शहजादे से सुलह की प्रार्थना की, शरण में आ गए। नादिरशाह ने यह शुभ समाचार सुना, तो उसे निश्चय हो गया कि यह सब उसी हीरे की करामात है। यह उसी का चमत्कार है, जिसने शत्रुओं का सिर झुका दिया, हारी हुई बाजी जिता दी।
शाहजादा विजयी होकर घर लौटा, तो प्रजा ने बड़े समारोह से उसका स्वागत और अभिवादन किया। सारा तेहरान दीपावली की ज्योति से जगमगा उठा। मंगल गान की ध्वनि से सब गली और कूचे गूंज उठे।
दरबार सजाया गया। शायरों ने कसीदे सुनाए। नादिरशाह ने गर्व से उठकर शहजादे के ताज को मुगले-आजम हीरे से अंलकृत कर दिया। चारों ओर ‘मरहबा! महरबा’ की आवाजें बुलंद हुई। शहजादे के मुख की कांति हीरे के प्रकाश से दूनी दमक उठी। पितृ-स्नेह से हृदय पुलकित हो उठा। नादिर-वह नादिर, जिसने दिल्ली में खून की नदी बहायी थी-पुत्र-प्रेम से फूला न समाता था। उसकी आँखों से गर्व और हार्दिक उल्लास के आंसू बह रहे थे।
सहसा बंदूक की आवाज आयी-धांय! धांय! दरबार हिल उठा। लोगों के कलेजे दहल उठे। हाय! वज्रपात हो गया! हाथ रे दुर्भाग्य! बंदूक की आवाजें कानों में गूंज ही रही थीं कि शाहजादा कटे हुए पेड़ की तरह गिर पड़ा, साथ ही वह रत्नजटित मुकुट भी नादिरशाह के पैरों के पास आ गिरा।
नादिरशाह ने उन्मत्त की भांति हाथ उठाकर कहा- कातिलों को पकड़ो। साथ ही शोक से विह्वल होकर वह शहजादा के प्राणहीन शरीर पर गिर पड़ा। जीवन की सारी अभिलाषाओं का अंत हो गया।
लोग कातिलों की तरफ दौड़े। फिर धाँय-धांय की आवाज आई और दोनों कातिल, गिर पड़े। उन्होंने आत्महत्या कर ली। वे दोनों विद्रोही-पक्ष के नेता थे।
हाय रे मनुष्य के मनोरथ। तेरी भित्ति कितनी अस्थिर है! बालू की दीवार तो वर्षा में गिरती है, पर तेरी दीवार बिना पानी-मुंह के ढह जाती है। आँधी में दीपक का कुछ भरोसा किया जा सकता है, पर तेरा नहीं। तेरी अस्थिरता के आगे बालकों का घरौंदा अचल पर्वत है, वेश्या का प्रेम सती की प्रतिज्ञा की भांति अटल! नादिरशाह को लोगों ने लाश पर से उठाया। उसका करुण क्रंदन हृदयों को हिलाए देता था। सभी की आँखों से आंसू बह रहे थे। होनहार कितना प्रबल, कितना निष्ठुर, कितना निर्दयी और कितना निर्मम है।
नादिरशाह ने हीरे को जमीन से उठा लिया। एक बार उसे विषादपूर्ण नेत्रों से देखा। फिर मुकुट को शहजादे के सिर पर रख दिया और वजीर से कहा- यह हीरा इसी लाश के साथ दफन होगा।
रात का समय था। तेहरान में मातम छाया हुआ था। कहीं दीपक या अग्नि का प्रकाश न था। न किसी ने दिया जलाया और न भोजन बनाया। अफीमचियों की चिलमें भी आज ठंडी हो रही थी। मगर कब्रिस्तान में मशालें रोशन थीं-शहजादे की अन्तिम क्रिया हो रही थी।
जब फातिमा खत्म हुआ, नादिरशाह ने अपने हाथों से मुकुट को लाश के साथ कब्र में रख दिया। राज और संगतराश हाजिर थे। उसी वक्त कब्र पर पत्थर और चूने का मकान बनने लगा।
नादिर एक महीने तक एक क्षण के लिए भी वहाँ से न हटा। वहीं सोता था, वहीं से राज्य का कार्य करता था। उसके दिल में यह बात बैठ गई थी कि मेरा अहित इसी हीरे के कारण हुआ। यही मेरे सर्वनाश और अचानक वज्रपात का कारण है।
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