Hitopadesh ki Kahani : अयोध्या नगरी में चूड़ामणि नाम का एक क्षत्रिय रहता था ।
धन की इच्छा से उसने बहुत दिनों तक भगवान शिव की आराधना की । उसके जब सब पाप क्षीण हो गये तो एक दिन रात्रि को सोते हुए कुबेर ने उसको दर्शन दिये और कहा, “सवेरे उठने पर तुम बाल बनवा लेना और फिर नहा-धो कर हाथ में लाठी लेकर घर में छिप जाना। प्रातः काल तुम्हारे आंगन में एक भिक्षुक आयेगा उस पर तुम अपनी लाठी से प्रहार करना। जिससे कि वह वहीं ढेर हो जाये। उसके धराशायी होते ही वह सुवर्ण ढेर में परिणत हो जायेगा। वह सुवर्ण तुम्हारे जीवन-भर के लिये पर्याप्त होगा। तुम आजीवन सुखी रहोगे ।”
प्रातः होने पर उस क्षत्रिय ने नाई को बुलवाकर अपने बाल कटवाये। फिर स्नान किया और लाठी लेकर द्वार पर खड़ा हो गया। नाई तब तक वहीं था। वह चूड़ामणि को इस प्रकार लाठी लिये देखकर आश्चर्य से आगे की कार्यवाही देखने के लोभ से अपने घर नहीं गया।
जैसा कि कुबेर ने स्वप्न में कहा था तदनुसार एक भिक्षुक आया और चूड़ामणि ने उसके सिर पर लाठी दे मारी। दो-तीन लाठियां खाकर भिक्षुक चित्त हो गया और उसका सारा शरीर स्वर्ण में परिणत हो गया।
नाई ने जब यह तमाशा देखा तो वह सोचने लगा कि वह भी क्यों न ऐसा ही करे। इससे तो उसका जन्म-जन्मान्तर तर जायेगा ।
उस दिन से वह नित्य प्रति भिक्षुक की प्रतीक्षा में अपने घर में लाठी लिए छिपा बैठा रहता । बहुत दिनों बाद किसी भिक्षुक के चरण उसकी देहरी पर पड़े। नाई ने आव देखा न ताव और दे मारी लाठी उसके सिर पर । उससे भिक्षुक मर तो गया किन्तु वह सोने में परिणत नहीं हुआ ।
नाई बहुत परेशान हुआ । राजदरबार में उसकी शिकायत पहुंची तो उसको पकड़ लिया गया। वहां अभियोग चलने पर उसको मृत्यु दंड दिया गया।
यह कथा सुनाकर मन्त्री कहने लगा, “देखा देखी किया हुआ कार्य कभी उलटा भी पड़ जाया करता है।”
राजा बोला, “किन्तु इसका निपटारा किस प्रकार हो कि कौन अपना अकारण बन्धु है अथवा कौन विश्वासघाती है?
“खैर, छोड़ो इस बात को । जैसा कि समाचार है चित्रवर्ण मलयपर्वत तक पहुंच गया है। ऐसे में हमें क्या करना चाहिए “
“महाराज ! वहां से लौटे दूत के मुख से मैंने सुना है कि चित्रवर्ण ने अपने प्रधानमंत्री का अनादर कर दिया है। ऐसे अवसर पर हम उस को जीत सकते हैं। वीरों का तिरस्कार करने वाला शत्रु सहज ही जीता जा सकता है।
“इसलिये जब तक वह हमारे निकट नहीं आ जाता उससे पहले ही नदी, पर्वत और वन में उसकी सेना को नष्ट करने के लिये सेनापतियों को नियुक्त कर दिया जाये।
“हमें चाहिए कि आक्रमण के भय से रात भर जगने वाली और दिन को सोने वाली शत्रु सेना पर आक्रमण कर उसको मार डालें।”
वैसा ही किया गया। उसका परिणाम यह हुआ कि चित्रवर्ण की सेना की बहुत हानि हुई। ऐसे अवसर पर चित्रवर्ण ने अपने वृद्धमंत्री गीध से कहा “तात ! आप हमारी उपेक्षा क्यों कर रहे हैं? क्या हमसे कोई अपराध हुआ है ?”
गीध बोला “महाराज ! राजा चाहे मूर्ख हो किन्तु विद्या और वृद्ध जनों की सेवा से वह परमश्री को प्राप्त होता है। नीति और पराक्रम में ही सम्पत्तियों का निवास होता है।
” किन्तु तुम तो अपनी सेना का केवल उत्साह देखकर उतावले हो गये। मैंने परामर्श दिया किन्तु तुमने उसकी अवहेलना की। अब अपनी दुर्नीति का फल भोग रहे हो ।
“जिसमें स्वयं बुद्धि नहीं होती शास्त्र उसका क्या कर सकता है। नेत्रहीन मनुष्य को दर्पण दिखाने का क्या लाभ?
“यही विचार कर मैं चुप रहा । “
तब राजा ने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर कहा, “तात ! यह मेरा अपराध है। अब आप कोई ऐसा उपाय बताइए कि जिससे अपनी बची हुई सेना के साथ मैं विन्ध्याचल वापस लौट सकूं।”
गीध ने मन ही मन विचार किया कि अब इसका प्रतिकार कर ही देना चाहिए।
गीध ने हंसकर कहा, “राजन् ! डरिये नहीं, धैर्य रखिये । हम आप ही के प्रताप से इन किले को भंग करके कीर्ति और प्रताप के साथ शीघ्र आपको विन्ध्याचल ले जायेंगे ।” राजा कहने लगा, “इतनी थोड़ी सी सेना से इतना बड़ा कार्य किस प्रकार सम्भव होगा ?” “सब हो जायेगा। बस आप शीघ्र उसके दुर्ग को घेर लीजिये ।”
उसी समय राजा हिरण्यगर्भ के दूत ने आकर उसको सूचना दी कि गीध के परामर्श पर बहुत थोड़ी सेना के बल पर ही चित्रवर्ण उसके किले पर घेरा डालेगा।
राजा ने अपने मन्त्री से पूछा, “सर्वज्ञ ! अब क्या किया जाये ?”
सर्वज्ञ ने कहा, “सबसे पहले आप अपनी सेवा का बलाबल देख लीजिये। यह देख लेने के बाद सैनिकों को पुरस्कृत कीजिए।”
राजा कहने लगा, “क्या इस समय इस प्रकार का अपव्यय उचित होगा? कहते हैं कि आपत्ति से बचने के लिए धन की रक्षा करनी चाहिये।”
मन्त्री बोला, “आपके पास आपत्ति आयेगी ही क्यों? जिससे बचने के लिये धन की आवश्यकता पड़ेगी।”
“यदि लक्ष्मी चली गई तो ?”
“बचाते रहने पर भी तो वह नष्ट हो सकती है? इस समय यही उचित है कि कृपणता को त्याग कर दान- मान से अपने वीरों को प्रसन्न कीजिए। “
उसी समय मेघवर्ण कौवे ने आकर सूचना दी, “महाराज! दयादृष्टि करिए। अब तो शत्रु दुर्ग के द्वार पर आ खड़ा हुआ है। यदि आप अनुमति दें तो मैं बाहर निकलकर अपना परिक्रम दिखाऊं और आपका जो ऋण मुझ पर है मैं उसका कुछ प्रतिकार करूं?”
चकवा बोला, “नहीं, बाहर निकलकर ही युद्ध करना होता तो हम दुर्ग का आश्रय ही क्यों लेते?
“मगर इतना भयंकर जीव होते हुए भी पानी से बाहर निकलते ही विवश हो जाता है। वन से निकला हुआ पराक्रमी सिंह भी सियार जैसा अकर्मण्य हो जाता है ।
“महाराज ! आप स्वयं जाकर इस युद्ध को देखिए । राजा को चाहिए कि सेना को आगे करके स्वयं उसकी देखभाल करे। स्वामी के साथ रहने पर तो कुत्ता भी सिंह के समान वीर बन जाता है।”
इस प्रकार सबने दुर्ग के द्वार पर जाकर घमासान युद्ध किया ।
दूसरे दिन चित्रवर्ण ने अपने मन्त्री से कहा, “तात! अब आप अपनी प्रतिज्ञा को निबाहिए। “
गीध बोला, “सुनिए महाराज ! शीघ्रता करना, थोड़ी सेना रखना, सेनानायक का मूर्ख और व्यसनी होना सैनिकों का डरपोक होना आदि-आदि दुर्ग के दुर्व्यसन कहे गये हैं । किन्तु यहां यह सब नहीं है।
“दुर्ग पर विजय प्राप्त करने के चार उपाय हैं-दुर्ग की भीतरी सेना में फूट डलवाना, बहुत दिनों तक घेरा डाले रहना, आक्रमण कर देना और तीव्र पौरुष से काम लेना ।
“मैं इस विषय में उद्योग कर रहा हूं।”
फिर उसने राजा के कान में कुछ कहा ।
दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही दुर्ग के चारों द्वारों पर युद्ध आरम्भ हो गया। उसी समय दुर्ग के भीतर वाले घरों में कौओं ने आग लगा दी और फिर शोर मचा दिया कि दुर्ग जीत लिया, दुर्ग जीत लिया । “
यह सब देख-सुनकर राजहंस के सभी सैनिक तुरन्त सरोवर में कूद गए ।
राजहंस स्वभाव से ही मन्दगति होता है । सारस के साथ-साथ उसको भी चित्रवर्ण के मुर्गों ने घेर लिया।
हिरण्यगर्भ ने सारस से कहा, “तुम मेरे साथ अपने प्राण क्यों गंवा रहे हो तुम भाग सकते हो इसलिए भाग जाओ। जल में कूद कर अपनी रक्षा कर लो। फिर विद्वानों की सम्मति लेकर मेरे पुत्र चूड़ामणि को राजा बना देना । “
सारस बोला, “महाराज ! ऐसी कठोर बात मत कहिए। जब तक आकाश में सूर्य और चन्द्रमा स्थित हैं तब तक आप विजयी रहें। महाराज ! मैं दुर्ग का अधिकारी हूं। दुर्ग का द्वार मेरे मांस और रुधिर से व्याप्त हो जायेगा तभी शत्रु भीतर प्रविष्ट हो सकता है । ” राजा बोला, “यह सब सच है किन्तु मैं तो समझता हूं कि स्वच्छ हृदय, कार्यकुशल और स्वामीभक्त सेवक भी कठिनाई से ही मिलता है।”
सारस कहने लगा, “सुनिए महाराज ! यदि यह निश्चित हो कि युद्ध भूमि से भागकर मैं कभी मरूंगा ही नहीं तब तो यहां से अन्यत्र भाग जाना चाहिए। किन्तु जब प्राणी का मरण निश्चित है तब व्यर्थ अपने यश को मलिन क्यों करे?
“महाराज 1 आप हमारे स्वामी हैं। इस लिये सब प्रकार से आपकी रक्षा होनी चाहिये।” उसी समय एक मुर्गे ने आकर राजहंस के शरीर पर अपने नखों का प्रहार किया । उसी समय सारस ने तुरन्त आकर स्वामी के शरीर को अपने पंखों से ढका और उसे पानी में कुदा दिया।
तब मुर्गे ने अपने प्रहार से सारस को जर्जर कर दिया। ऐसी अवस्था में भी सारस ने मुर्गे की सेना का बहुत बड़ा भाग नष्ट कर दिया । किन्तु वह स्वयं मुर्गे के चंचु-प्रहार से क्षत-विक्षत हो कर मर गया।
इस प्रकार दुर्ग जीत लिया गया। चित्रवर्ण अपनी सेना के साथ उसमें प्रविष्ट हुआ और वहां की सारी सम्पत्ति समेट कर अपने शिविर को चला गया।
राजकुमारों ने यह सारी कहानी सुनी और बोले, “गुरुदेव उस राजहंस की सेना में वह सारस ही पुण्यवान् था जिसने अपने प्राण देकर भी स्वामी की रक्षा की।
“कहा भी गया है कि गौएं बैल की आकृति वाले बहुत से बछड़ों को जन्म देती हैं किन्तु बिरली ही गौ ऐसे सांड को उत्पन्न करती है जिसका कन्धा सींगों की मार के घाव से भरा होता है ।”
विष्णुशर्मा बोले, “उस महात्मा सारस की विद्याधरियां सेवा करें और वह स्वर्ग का सुख भोगे । “जो वीर स्वामी के लिए संग्राम में अपने प्राण देते हैं और जो स्वामिभक्त तथा कृतज्ञ होते हैं वे ही स्वर्ग को जाते हैं। ” शत्रु से घिरा हुआ वीर जहां भी मारा जाता है यदि वह कायरता नहीं दिखाता तो अक्षयलोकगामी होता है।
“मैं आप लोगों को आशीर्वाद देता हूं कि आप जैसे राजाओं का हाथी, घोड़े तथा पैदल सैनिकों के साथ युद्ध न हो। आप लोगों की नीति रूपी वायु के झोंकों से उड़ाये हुए शत्रु पर्वतों की कन्दराओं में आश्रय लें। अर्थात् आप सदा शत्रु पर विजयी रहें। “
सन्धि
